Last Updated: Wednesday, September 14, 2011, 08:46
इन्द्रमोहन कुमारदिल्ली हाईकोर्ट में हुए बम विस्फोट ने यह साबित कर दिया कि जानकारी और चौकस रहने के बावजूद हम हमले नहीं रोक सकते. बस ऊपर वाले से दुआ करते रहें कि हम पर कोई मुसीबत नहीं आए, सरकार से फ़रियाद करना बेईमानी है. जनता सह रही है और सरकार खामोश रहती है. शायद कोई मसीहा आकर हमारी रक्षा करेगा.
खैर छोड़िये इन बातों को, सरकार सिर्फ बहाने बना सकती है और विपक्ष आरोप. फिर भी जो मंजर दिल्ली हाईकोर्ट विस्फोट के बाद देखने को मिला उससे यह साफ़ जाहिर हो रहा था कि किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए दिल्ली तैयार नहीं है. आधा दर्जन से ज्यादा मौत तो आपात सुविधा नहीं रहने के कारण हो गई. वहां पर मौजूद लोग कह रहे थे कि अगर समय पर एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध होती तो कुछ और जानें बचाई जा सकती थी. जो एम्बुलेंस मौजूद थे उसमें जरूरी जीवन रक्षक उपक्रम भी नहीं लगे थे. यह हाल संसद भवन और राष्ट्रपति भवन के दो किलोमीटर के दायरे का है.
सबसे नजदीकी अस्पताल राममनोहर लोहिया भी केंद्र सरकार के बड़े अस्पतालों में से एक है जहां अधिकतर घायलों को भर्ती कराया गया. मगर वहां क्या हालत थे ये किसी से छुपा नहीं है. घायलों को यहां तक लाने में दो घंटे का समय लग गया. कुछ घायलों ने तो रस्ते में ही दम तोड़ दिया था क्योंकि समय पर चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाई.
राष्ट्रमंडल खेलों के समय दिल्ली को चमकाने की मुहिम चली वो भी अब मुंह चिढ़ाती है. चौड़े सड़क बनाए गए, तेज यातायात के लिए उपरी पूल बने, यहां तक कि सौ से ज्यादा आधुनिक एम्बुलेंस ख़रीदे गए. मगर दुर्भाग्य देखिये कि ज्यादातर एम्बुलेंस धूल फांक रहे है. ऐसे आयोजन के लिए हजारों करोड़ रुपये फूंक दिए गए लेकिन आपात चिकित्सा सुविधा की तरफ ध्यान नहीं रहा. अगर यह हाल देश राजधानी दिल्ली का है तो अन्य जगह की बात बेईमानी होगी.
राम मनोहर लोहिया अस्पताल में खून संग्रह केंद्र भी है, यानि ब्लड बैंक की सुविधा मौजूद है, लेकिन संयोग देखिये कि धमाकों के बाद सबसे ज्यादा खून की कमी यहीं पर रही. अनजान हाथ एक दूसरे की सहायता कर रहे थे.
सरकार की सुविधा बिलकुल सरकारी बनी हुई थी, सब कुछ देरी से. हालत तो तब बदतर हो गए जब डाक्टरों की जगह वार्ड ब्यॉय मरीजो को प्लास्टर लगा रहे थे. पूरे अस्पताल में अव्यवस्था फैली हुई थी वह भी ऐसी आपात घड़ी में. मिनी आपरेशन थिएटर पूरे दिन खून से लतपत था. कोई भी समुचित व्यवस्था कहीं नहीं दिख रही थी. जानकारी के आभाव में परिजन इधर- उधर भटक रहे थे.
असल में आम आदमी की कीमत कितनी आम है यह सरकार ने दिखा दिया. बगल में संसद भवन और सांसदों की सुरक्षा में करोड़ों रुपये बस कुछ घंटों में खर्च हो जाते हैं पर घायल मरीजों के लिए इतनी सी सुविधा नहीं मिल पाती कि वो अपनी जान बचा सकें.
बात इतनी पर ख़त्म हो जाती तो फिर भी समझा जा सकता था. राममनोहर लोहिया अस्पताल में दो दिन बाद के हालात देखिये, जो मरीज पूरी तरह ठीक भी नहीं हुए थे, उन्हें अपने घर लौटने को कह दिया गया. जैसे कुछ लोगों को एक्स- रे रिपोर्ट में कील और छर्रे आने के बाद भी दवा दे कर कह दिया गया कि वो वापस घर जाएं, दवा खाने पर छर्रे निकल जाएगा. कुछ मरीजों और परिजनों ने तो डाक्टरों के व्यवहार भी शिकायत की और कहा कि उनका बर्ताव अच्छा नहीं था. कुछ भी पूछने पर डांट देते थे. पारा मेडिकल स्टाफ खोजने पर भी नहीं मिल रहे थे.
अपनों को खोजने आये परिजनों की बदकिस्मती देखिये कि शाम तक पीड़ितों की सूची तक जारी नहीं की गई थी. इनकी मदद के लिए न तो प्रशासन कुछ कर रहा था न ही दिल्ली पुलिस आगे आ रही थी. वहीं नेताओं और मत्रियों की सुरक्षा में अस्पताल और पुलिस ज्यादा तत्पर दिखी. ऐसे में अस्पताल आए राहुल गांधी सरीखे नेताओं के खिलाफ परिजन अगर नारे लगते हैं तो क्या गलत है? वैसे भी जनता आजकल नेताओं से ज्यादा गुस्साई हुई है.
इससे पहले मरीजो को खाने के लिए जो खाना दिया गया वह भी स्वच्छ नहीं था. कुछ खानों में तो फंगस लगे होने तक की शिकायत की गई. अगर राजधानी में अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं का यही हाल रहा तो हमारे योजना आयोग के उपाध्यक्ष जीडीपी का जितना प्रतिशत भी इसमें लगा दें, लाभ जरूरतमंद आम लोगों तक नहीं पहुंच पाएगा. वैसे भी अमीर लोग महंगे अस्पतालों में ही इलाज करवाते है.
तो हमारी राजधानी दिल्ली कब वर्ल्ड क्लास बनेगी यह आम लोग तो नहीं समझ पाएं, लेकिन करोड़ों रुपये खर्च करके हमारे रहनुमा वाहवाही जरूर लूट लेते है. आखिर कब और कैसे बनेंगे हम विश्वस्तरीय?
First Published: Monday, November 21, 2011, 18:04