क्यों नहीं चल रही है संसद - Zee News हिंदी

क्यों नहीं चल रही है संसद

पुण्य प्रसून वाजपेयी

 

अगर आप याद किजिये कि संसद इस बरस कब एकजुट हुई । कब सामुहिकता का बोध लेकर चली । कब समूचा सदन किसी मुद्दे पर चर्चा कर समाधान के रास्ते निलका । तो यकीनन आम जनता से जुडे किसी मुद्दे को लेकर ऐसी कोई याद आपकी आंखो के सामने नहीं रेंगेगी । यहा तक की जिस मंहगाई का रोना आज सभी रो रहे है उस मंहगाई पर भी पिछले सदन में चर्चा हुई लेकिन अधिकतर सांसद नदारद ही रहे । और खानापूर्ति के लिये चर्चा हुई ।

 

लेकिन याद कीजिये अगस्त के महिने में रामदेव की रामलीला को पुलिस ने जब जून में तहस-नहस किया और यह मामला संसद में उटा तो हर सांसद मौजूद था । अन्ना हजारे के अनशन को तुडवाने के लिये तो समूची संसद ही एकजूट हो गई और लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार से लेकर प्रधानंमत्री तक की अगुवाई में सभी एक जूट दिखे । राज्यसभा में जस्टिस सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई को याद किजिये । अगस्त की ही घटना है । हर कोई सदन में बैठा नजर आया । तो क्या इसका मतलब यह निकाला जा सकता है जब जब संसद की साख पर सवाल उठे ।

 

जब जब सासंदो और राजनेताओ की साख सडक पर डगमगायी और जब न्यायपालिका को पाठ पढाने का मौका आया तो संसद ने अपना काम किया । यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योकि पहली बार 22 दिनो के संसद के शीतकालिन सत्र को लेकर सरकार की जेब में 31 पेंडिग बिल है । नये 19 बिल है । और इस फेरहिस्त में हर वह बिल है जो आम जनता से लेकर कारपोरेट तक को सुविधा देगा । फुड सेक्युरटी बिल आ गया तो सस्ते अनाज को बांटने का व्यापक रास्ता भी खुलेगा । और सस्ते अनाज के जरीये जिले और गांव स्तर पर घोटालो का रास्ता भी खुलेगा ।

 

 

खनन और खनिज संपदा को लेकर माइन्स एंड मिनरल डेवलपमेंट और रेगुलेशन बिल 2011 पास हुआ तो सरकार के हाथ में जमीन हथियाने के रास्ते भी खुलेगें । और निजी कंपनियो को लाभ पहुंचाकर अपने तरीके से योजनाओ को लाने का रास्ता भी खुलेगा । सीड्स बिल 2004 पास हुआ तो बाजार किसानो को अपनी बीन पर नजायेगा और बाजार के जरीये किसान की फसल तय होगी । यानी चोटे किसानो की मुश्किल बढेगी । इसी फेरहिस्त में कंपनी बिल से लेकर मनी लैडरिंग बिल तक है । जीएसटी को लेकर सरकार कुछ पैसा चाहती है तो हवाला और मनीलैडरिंग को रोकने के लिये संसद का मच चाहती है ।जाहिर यह सब किसी भी सरकार के लिये जरुरी है । खासकर तब जब सरकार के पास नीतियो के नाम पर विकास का ऐसा आर्थिक माडल हो जिसमें निजी हथेलियो को लाभ देते हुये आम जनता की बात की जाये ।

 

पहली मुश्किल यही है कि सरकार जो तमगा संसद के चलने से चाहती है वह ना भी मिले तो भी साउथ-नार्थ ब्लाक से सरकार मजे में चल सकती है । फिर संसद की जरुरत है क्यो और हंगामा मचा हुआ क्यो है । तो हंगामे का पहला मतलब तो यह है कि सरकार चलाना और राजनीति साधना दोनो एक साथ नहीं चल सकते यह पहली बार सरकार भी समझ रही है और विपक्ष भी । लेकिन विपक्ष के हाथ में डोर इसलिये है क्योकि मनमोहन सिंह के सबसे मजबूत सिपहसलार चिदबरंम फंसे है ।

 

 

जो उडान चिंदबरम ने यूपीए-1 के दौर में बतौर वित्त मंत्री रहते हुये भरी उसपर इतनी जल्दी ब्रेक लगाना पडेगा यह ना तो प्रधानमंत्री ने सोचा और ना ही सरकार की नीतियो से आसमान में कुलांचे मारते कारपोरेट ने । चिदबरंम के आसरे मनमोहन सरकार की जो नीतियो 2004 से 2008 तक चली , चाहे वह पावर सेक्टर हो या खनन या फिर इन्फ्रस्ट्रचर, बंदरगाह या एसआईजेड । अगर ध्यान दिजिये तो सरकार के साथ उस दौर में जो निजी कंपनिया सरकारी लाईसेंस का लाभ उठा रही थी , संयोग से वही सब यूपीए-2 के दौर में घेरे में है । और बीजेपी का खेल अब यही से शुरु हो रहा ।

 

 

बीजेपी के लिये चिदबरंम का मतलब सिर्फ संघ परिवार को भगवा आंतकवाद के नाम पर घेरना भर नहीं है । उसके लिये चिदबरंम का मतलब 2 जी घोटाले में सरकार से बाहर कर उन कारपोरेट घरानो को डरा कर अपने साथ खडा भी करना है जिनके आसरे मनमोहनइक्नामि क्स अभी तक चलती रही । इसीलिये अनिल अंबानी के रिलांयस के तीन अधिकारी हो या यूनिटेक के संजय चन्द्र या पिर स्वान के डायरेक्टर जो तिहाड से जमानत पर छह महिने बाद निकले । उन सभी के हालात के पीछे चिदबरंम की खुली बाजार में खुली राजनीति रही और अब सरकार के साथ सटने से लाभ कम धाटा ज्यादा होगा , यही पाठ बीजेपी निजी सेक्टर को पढाना चाहती है । और चूकि शेयर बाजार से लेकर निवेश का रास्ते इस दौर में उलझे है ।

 

 

साथ ही आम आदमी की न्यूनतम जरुरतो से लेकर कारपोरेट का मुनाफा तंत्र भी डगमगाया है तो संसद ना चलने देने के सामानातंर बडी सियासत इस बात को लेकर भी चल रही है कि आने वाले वक्त में निजी कंपनिया या  कारपोरेट घराने काग्रेस का साथ छोड बीजेपी के साथ आते है या नहीं । दरअसल बीजेपी के इस सियासी समझ के पीछे सरकार के भीतर के टकराव भी है । जहा पहली बार आरएसएस को खारिज करने वाली मनमोहन सरकार के वित्त मंत्री प्रमव मुखर्जी तमाम नेताओ से मिलते हुये संघ के लाडले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी का भी दरवाजा खटखटाते है ।

 

यानी एक तरफ चिदबरंम की संघ को घेरने की मशक्कत और दूसरी तरफ प्रणव मुखर्जी की संघ के दरवाजे पर दस्तक । और इस खेल में बीजेपी चिदबरंम की मात चाहती है । जाहिर है इसी मात के दस्तावेजो को सुब्रहम्णयम स्वामी समेटे हुये है । लेकिन सरकार के भीतर का सच यह है कि चिदबरंम की मात का मतलब मनमोहन सिंह को प्रमव मुखर्जी की शह मिलना भी होगा । जो मनमोहन बिलकुल नहीं चाहेगें । और इस सियासी गणित में दिग्विजय सिंह सरीखे नेता आरएसएस की ताकत उभारकर काग्रेस के वैचारिक बिसात को बिछाना चाहेगें ।

 

यानी इस पूरे चकव्यूह को तोडेगा कौन और कैसे संसद शुरु होगी यह अपने आप में एक बडा सवाल है । लेकिन संसद की जरुरत इस दौर में है किसे और संसद सजेगी किस दिन संयोग से यह सवाल भी संसद को चुनौती देने वाले उसी जनलोकपाल आंदोलन से जुड़े है जिसे संसद के पटल पर भी इसी सत्र में रखा जाना है । तो य़कीन जानिये दिसबंर के पहले हफ्ते में जिस दिन सरकार ऐलान करेगी कि आज लोकपाल बिल रखेगें । उस दिन सभी पार्टिया सदन में जरुर नजर आयेगी । क्योकि वहा सवाल संसद के जरीये राजनीति का नहीं बल्कि सडक के आंदोलन से डर का होगा ।

 

(लेखक ज़ी न्‍यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)

First Published: Saturday, November 26, 2011, 16:07

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