क्रिकेट को खेल ही रहने दो - Zee News हिंदी

क्रिकेट को खेल ही रहने दो

इन्द्रमोहन कुमार

 

टीम इंडिया के ड्रेसिंग रूम से लेकर प्रेस दीर्घा तक अगर वास्तव में चर्चा यही है कि भारतीय क्रिकेटरों में मनमुटाव है तो मसला ज्यादा गंभीर नहीं है। अगर टीम के खिलाड़ी दो खेमों में बंटे हैं तो भारतीय बोर्ड के लिए यह एक समस्या के साथ-साथ समाधान भी है। जाहिर सी बात है कि धोनी और वीरेंद्र सहवाग की सोच में कोई सिर्फ वनडे लायक दिखता है, तो कोई टी-20 में फिट बैठता है। रही बात समाधान की तो बोर्ड को वनडे, टी-20 और टेस्ट के लिए फिट एकादश इस विवाद से सामने आ सकेगा।

 

धुंआधार क्रिकेट के धनी धोनी भी वैसे ही खिलाड़ियों को तरजीह देंगे जो इस फटाफट फॉर्मेट में फिट बैठे। मसलन, धोनी द्वारा सीनियर खिलाड़ियों के क्षेत्ररक्षण पर सवाल उठाने को ही देख लें, जो चिंता है वो फुर्तीलेपन को लेकर है। निश्चित ही हम 39 साल के सचिन में यह नहीं देख पाएं पर इसका यह मतलब नहीं निकलता कि उनकी फील्डिंग कमजोर है, यह धोनी को समझना होगा। उगर वो 20-22 साल के युवा की तरफ देख रहे हैं तो ऑस्ट्रेलिया जैसे देश में, जहां गेंद हवा में लहराते हुए आती हो, अनुभव ही काम देगा। अगर खुद धोनी, सुरेश रैना या रविंद्र जडेजा की बल्लेबाजी को ही देखें तो वे वहां के वनडे क्रिकेट के लायक तो बिलकुल नहीं हैं। जहां तक सीनियरों की बात है, दम तो है पर दिख नहीं रहा।

 

इस मामले में दोनों खेमों में संयम बरतना ज्यादा जरूरी था और है भी, जिसमें खिलाड़ियों से ज्यादा क्रिकेट बोर्ड जिम्मेदार है। खिलाड़ी भी मीडिया से तभी कुछ कहते हैं जब या तो बोर्ड उनकी समस्या की तरफ ध्यान नहीं देता, या फिर ऐसा करने के बावजूद बोर्ड उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाता। हालांकि टेस्ट पराजय के समय ट्वीट पर रोक जरूर लगी थी। मगर वर्तमान में दोनों बातें दिखती हैं। दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड और पैसे कमाने में लगा है और खिलाड़ी अपनी जगह पक्की करने में, जिसमें कप्तान की भूमिका अहम है। यही कारण है कि बोर्ड के इस रवैए के चलते खिलाड़ी ज्यादा स्वायत्त होते गए। कप्तानों की लॉबी बढ़ गई है। फिर भी अगर बोर्ड जागा तो अच्छी खबर है।

 

फिर भी यह भारतीय क्रिकेट के लिए नया नहीं है। एक समय में कपिल देव और सुनील गावस्कर की किचकिच भी कम सुर्खियां नहीं बनी पर दोनों ने अलग राह चुनी। 1983 में विश्वकप जीतने के बाद तो यह और भी गहराता गया। सितारे गावस्कर थे पर कप्तान कपिल को बनाया गया था। गावस्कर फिर कप्तान बने और 1984 के कलकत्ता टेस्ट में कपिल को एकादश से बाहर रखा गया। गावस्कर ने 1987 विश्वकप के बाद संन्यास ले लिया पर कपिल का करियर लंबा चला। सिद्धू-अजहर के अनबन को भी नहीं भुलाया जा सकता। 1992-93 इंग्लैंड दौरे में विवाद इतना बढ़ गया था कि सिद्धू ने टेस्ट दौरा बीच में ही छोड़ स्वदेश वापसी कर ली। कारण आज तक स्पष्ट नहीं है। बाद के दिनों तक दोनों में अनबन की पहेली बनी रही। 2003-04 में सौरभ गांगुली और राहुल द्रविड़ के बीच भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनती दिखी। कारण बने गुरु ग्रेग यानी टीम इंडिया के तत्कालीन कोच ग्रेग चैपल। गांगुली ने यहां तक कहा कि द्रविड़ में विरोध करने की क्षमता नहीं थी और वो चैपल से डरते थे।

 

अब जब धैर्य रखना ही समय की मांग है तो धोनी और सहवाग को समय की नजाकत को समझना चाहिए। वैसे भी मिस्टर कूल कप्तान महेंद्र सिंह धोनी इसी लिए जाने जाते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि तकनीकी तौर पर इस समय इस टीम में उनसे बेहतर कोई नहीं है। रिकॉर्ड भी कहता है कि बतौर कप्तान मैच फिनिशर के रूप में धोनी की स्ट्राइक रेट 100  के पार है। भारत में क्रिकेट भावनाओं का खेल बन गया जहां सचिन का वो मकाम है जिसे फिलहाल कोई छूता नजर नहीं आ रहा। इसलिए जरूरी है कि दोनों समन्वय बनाकर चलें।

 

दरअसल कप्तान के बढ़ते कद और चयन प्रकिया में उनकी सक्रियता इस बेचैनी का कारण है। धोनी भारत में और खासकर टी-20 में हीरो हैं। सीधी सी बात है कि अगर टीम इंडिया का कप्तान कोई जुझारू टेस्ट खिलाड़ी होता तो वह भी धोनी, रैना और जडेजा पर वैसे ही सवाल उठाता, जैसे आज धोनी सीनियर सचिन-सहवाग जैसे क्लासिकल खिलाड़ियों पर उठा रहे हैं। और फिर ऐसा क्यों लगता है कि धोनी कुछ खिलाड़ियों के प्रति ज्यादा मेहरबान हैं? जैसे पीयूष चावला तभी टीम से बाहर हो पाए जब मीडिया और सार्वजनिक तौर पर उनके फॉर्म और प्रतिभा पर बहस होने लगी। 120-125 गति से गेंद फेंकने और औसत प्रदर्शन के बावजूद प्रवीण कुमार लगातार बने हुए हैं, जबकि इरफान पठान उनसे ज्यादा तेज होने के साथ ही बल्ले से भी कमाल करते रहे हैं। एक समय तो कप्तान धोनी को पठान बंधुओं का नाम तक याद नहीं रहा था। मनोज तिवारी इसकी अगली कड़ी हैं।

 

धोनी जिस फटाफट टी-20 क्रिकेट की बुलंदी पर हैं यही कारण है कि मिस्टर कूल होने के बावजूद उनमें वह धैर्य नहीं है, जो टेस्ट या वनडे खिलाड़ियों में होता है। किसी परिणाम को लेकर वो त्वरित निर्णय व टिप्पणी कर रहे हैं। जिसका खामियाजा टीम भुगत रही है। जाहिर है  संकट खेल के मैदान के साथ ही बाहर भी है। जिसे बढ़ाने में क्रिकेट बोर्ड भी जिम्मेदार है, जिसने समय रहते इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया।

 

यदि खिलाड़ियों की आपसी तकरार मीडिया में सुर्खियां बनाने लगे, तो इसके खिलाड़ी कम और बोर्ड ज्यादा दोषी है। इतना सबकुछ होने के बाद अगर क्रिकेट के नुमाइंदे सबकुछ ठीक होने का दवा करते हैं, वो भी तब जब टीम हार रही हो तो सवाल उठना लाजमी है।

First Published: Sunday, February 26, 2012, 16:16

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