थारु जनजाति को सरकार से मदद की आस

थारु जनजाति को सरकार से मदद की आस

थारु जनजाति को सरकार से मदद की आसरंजना ठाकुर
भारत में सैकड़ों जनजातियां निवास करती हैं और उन्हीं में से एक है थारु जनजाति। इस जनजाति के लोग भारत से लेकर नेपाल तक फैले हैं। ये उत्तराखंड के खटीमा और सितारगंज, उत्तर प्रदेश के कुछ इलाके और नेपाल के दक्षिणी हिस्से के तराई क्षेत्र में रहते हैं। थारु जनजाति आबादी के हिसाब से उत्तराखंड की पांच प्रमुख जनजातियों में दूसरे नंबर पर आती हैं। थारु जनजाति में कई उपसूमह हैं मसलन उधमसिंह नगर के खटीमा और सितारगंज तहसील में राणा थारु निवास करते हैं।

थारु जनजाति के इतिहास पर इतिहासकारों के बीच काफी मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि थारु मुस्लिम आक्रमणकारियों से जान बचाकर भागीं राजपूत महिलाओं और उनके सेवकों के वंशज हैं जो उस दौरान पहाड़ के दुर्गम इलाकों में बस गए थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि इनके समाज में महिलाएं खुद को श्रेष्ठ मानती हैं और कुछ इतिहासकार यहां तक कहते हैं कि महिलाएं अपने पति के साथ भोजन तक नहीं करती थीं। हालांकि अब काफी बदलाव आ चुका है, बावजूद इसके इस समाज में महिलाएं अभी भी हावी होती हैं। वहीं कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ये राजस्थान के थार इलाके से आए हैं और महाराणा प्रताप के वंशज हैं।

थारु, अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आते हैं। समाज में पिछड़े वर्ग में आने की वजह से 1961 में इन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया था, जिसके बाद इन्हें सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण मिला। बावजूद इसके इस समाज के लोग उत्तराखंड की भोटिया और जौनसार जनजातियों के मुकाबले पिछड़े हुए हैं। जहां एक तरफ भोटिया और जौनसार जनजाति के कई लोग जागरूकता दिखाते हुए आरक्षण का फायदा लेकर सरकारी नौकरियों में हैं, वहीं दूसरी तरफ थारु जनजाति के युवाओं में इतनी जागरूकता नज़र नहीं आती। भोटिया और जौनसारी जनजाति के लोगों में अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार की भी ललक दिखती है लेकिन थारु पर आधुनिकता की छाप नज़र आने लगी है। इन्होंने अपना पारंपरिक पहनावा घाघरा छोड़कर आम पहनावा अपना लिया है। अब थारु महिलाएं साड़ियां और सूट में नज़र आती हैं।

इनके लोकगीत अब खास मौकों पर ही सुनने को मिलते हैं। थारु लोकगीतों की विशेषता होती है कि इनमें पिगल और छनद नहीं मिलते। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाली ये जनजाति पहले बारिश नहीं होने पर अपने नृत्य से देवी-देवताओं को खुश किया करते थे। कोई एक महिला अपने सिर पर मिट्टी का एक पात्र, जिसे झिंझी कहते हैं लेकर नृत्य करती थी जबकि बाकी महिलाएं उसके चारों तरफ गोला बनाकर नाचा करती थीं। झिंझी को ये देवी का रूप मानते हैं। मान्यता थी कि देवता प्रसन्न होंगे तो अच्छी बारिश होगी और अच्छी बारिश से फसल अच्छी होगी। अब थारु जनजाति का ये नृत्य कभी-कभार ही देखने को मिलता है। फसल अच्छी होने पर भी थारु समुदाय के सभी लोग साथ मिलकर नृत्य किया करते थे। इस जनजाति का कुछ परिवार अपनी परंपराओं के इन पहलुओं को अभी भी बचाने की कोशिशों में लगा हुआ है।

भारत और नेपाल में फैली इस जनजाति की कोई एक भाषा भी नहीं है। पश्चिमी नेपाल और उससे लगे भारत के इलाकों में रहने वाले थारु जनजाति के लोगों की भाषा में अवधि और उर्दू की छाप दिखती है, वहीं पूर्वी नेपाल के थारु मैथिली से मिलती-जुलती भाषा बोलते हैं जबकि कई जगहों पर इनकी भाषा में भोजपुरी की भी छाप है।

एक तरफ ये आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो जाने के बाद अपनी संस्कृति को बचाने की कोशिश कर रहे हैं तो वहीं कई ऐसे मसले हैं जहां ये चाहकर भी अपने पुराने तौर तरीके आजमाने पर मजबूर हैं। थारु समाज के लोग आज भी चूल्हे पर खाना बनाते हैं। ईंधन के रूप में ये लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं जो थारु समाज की महिलाएं जंगल से लेकर आती हैं। थारु समाज की महिलाएं घने जंगलों में ऊंचे-ऊंचे पेड़ पर चढकर टहनियां काटने में दक्ष होती हैं, ये सागौन के ऊंचे पेड़ों पर चढ़कर टहनियां काटती हैं, सूखी लकड़ियां इकट्ठा करती हैं, फिर उनके गट्ठर बनाकर अपने सिर पर लादकर घर लाती हैं। एक गट्ठर का वज़न 50 से 60 किलो होता है। इन महिलाओं को इतना वजन उठाने की आदत हो चुकी है।

बरसात के महीने में ये जंगल में नहीं आ पातीं ऐसे में कुछ महीनों में ये साल भर के लिए ईंधन जुटाती हैं। जंगलों में इनका आना-जाना खतरे से खाली नहीं होता। खटीमा के पास के जंगलों में जंगली हाथी रहते हैं और अक्सर महिलाओं का सामना उन हाथियों से होता रहता है। बावजूद इसके महिलाएं बेधड़क जंगलों में जाती हैं और लकड़ियां लेकर आती हैं। इस तरह अपनी जान जोखिम में डालना इनकी मजबूरी है। ज्यादातर परिवारों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वे अपने घरों में गैस चूल्हे का इस्तेमाल कर सकें।

वन विभाग ने जंगल में लकड़ियां काटने पर रोक भी लगा रखी है लेकिन थारु जनजाति के लोगों पर इसका असर कम ही दिखता है। वन विभाग के अधिकारी भी इन्हें कई बार नहीं रोक पाते। कानूनी तौर पर टहनियां काटने पर रोक नहीं है ऐसे में थारु जनजाति की महिलाएं टहनियां काटने के नाम पर जंगल में आराम से चली जाती हैं।

उत्तराखंड में उधमसिंहनगर के खटीमा और सितारगंज में रह रही थारु जनजाति आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध नहीं है। इनके ज्यादातर परिवार खेती पर निर्भर हैं। 60-70 के दशक तक इनके पास काफी ज़मीनें थीं लेकिन अब ज्यादातर थारु परिवार दूसरे के खेतों में काम करते हैं। थारु समाज के ज्यादातर परिवारों ने कभी अपनी ज़रूरत तो कभी भूमाफियाओं के जाल में फंसकर अपनी ज़मीनें बेच दीं। कुछ लोग अभी भी अपनी जमीनों पर खेती करते हैं लेकिन ज्यादातर लोग अब दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं। यही इनकी आय का मुख्य ज़रिया होता है। पारंपरिक रूप से ये धान और चावल की खेती किया करते थे, लेकिन खेती में लागत के हिसाब से फायदा नहीं हो पाता लिहाजा इन्होंने सब्जियों की खेती भी शुरू कर दी है। इसके अलावा ये पशुपालन, शिकार और मछली पकड़ने जैसे काम भी करते हैं।

थारु जनजाति के लोगों में अब अपनी ज़मीन को लेकर जागरूकता बढ़ रही है, ऐसे में वो अब सरकार से मदद की आस लगाए बैठे हैं। जनजातियों की ज़मीन पर कब्जे को रोकने संबंधी कानून के मुताबिक उनकी ज़मीन गैर जनजाति के लोग नहीं खरीद सकते, लेकिन पिछले कुछ दशकों में खटीमा और सितारगंज में बड़े पैमाने पर इनकी ज़मीनों पर अन्य स्थानीय लोगों ने खरीद ली हैं। अपनी ज़मीनों को गैर जनजातियों को बेच चुके थारु जनजाति के लोग अब चाहते हैं कि सरकार इस कानून का सख्ती से पालन कराए।

सैकड़ों साल का इतिहास समेटे थारु जनजाति के समाज और संस्कृति में वक्त से साथ काफी बदलाव आए हैं। शिक्षा को लेकर जागरूकता बढ़ी है। इस समाज के बच्चे अब इंजीनियर, डॉक्टर बनना चाहते हैं, लेकिन खटीमा और सितारगंज में उच्च शिक्षा के लिए सुविधाएं ना होने की वजह से इन्हें दूसरे बड़े शहरों में जाना पड़ता है। खटीमा और सितारगंज में रोजगार की कमी की वजह से भी थारु युवा मायूस हैं, ये चाहते हैं कि सरकार इन इलाकों में इन्हें रोजगार के अवसर मुहैया कराए ताकि इनका जीवन बेहतर हो सके और थारु युवाओं का पलायन थम सके।

एक तरफ थारु जनजाति के लोगों में समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की ललक बढ़ी है, दूसरी तरफ इस समाज में सैकड़ों साल से चली आ रही ऐसी कई चीजें जो आज भी परंपरा के तौर पर जीवित हैं। थारु जनजाति की महिलाएं एक खास किस्म की घास से डलिया और चटाई जैसी तमाम चीजें तैयार करती हैं। डलिया का इस्तेमाल ये रोटियां या खाने-पीने की बाकी चीजें रखने में करते हैं। इनकी बनाई गई चीजें काफी खूबसूरत होती है, लेकिन ये इसका कारोबार नहीं करते। हाथ से बुनी गई ऐसी तमाम चीजों को इस्तेमाल ये घर में करते हैं। घर की बुजुर्ग महिलाएं खाली समय में डलिया या चटाई बुनने का काम करती हैं।

हालांकि आज की पीढी में इस कला को सीखने की ललक कम हो गई है । इनके पास एक और अनोखी चीज होती है लौका। लौका का इस्तेमाल ये लोग मछली पकड़ने के लिए करते हैं। पकी हुई लौकी को अंदर से खोखला करके उसे सुखाया जाता है। थारु जनजाति के पुरुष सदस्य नदी में मछली पकड़ते वक्त लौका को अपनी कमर से बांधते हैं और मछली पकड़ कर उसमें रखते जाते हैं। इसका आकार ऐसा होता है कि उससे मछलियां बाहर नहीं आ पातीं।

थारु जनजाति के लोग अपने दिन की शुरुआत कुलदेवता की पूजा से करते हैं। अपने कुलदेवता की स्थापना भंडार घर के मुहाने पर करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने पर इनका भंडार भरा-पूरा रहेगा। भंडार घर में ये अनाज स्टोर करते हैं। अपने अनाज के भंडारण के लिए ये मिट्टी और ईंटों से कोठी तैयार करते हैं। इन कोठियों में अनाज लंबे समय तक खराब नहीं होता। थारु जनजाति में एक खास बात ये है कि अभी भी पीढ़ियों तक इनके परिवार में बंटवारा नहीं होता और ऐसे में एक-एक परिवार में 60 से 70 सदस्य होते हैं।

(लेखिका ज़ी न्यूज़ उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में सीनियर प्रोड्यूसर हैं)





First Published: Wednesday, December 12, 2012, 20:12

comments powered by Disqus