Last Updated: Friday, July 13, 2012, 22:07

संजीव कुमार दुबे
रुस्तमे हिंद के नाम से मशहूर दारा सिंह अब हमारे बीच नहीं है। कुश्ती,फिल्म,राजनीति इन तीन चीजों का बेजोड़ संतुलन अगर उन्हें कहा जाए तो गलत नहीं होगा। कुश्ती में देश और दुनिया में ऐसा सिक्का जमाया कि उनका कोई सानी नहीं रहा। फिल्मी पर्दे पर भी वह काफी सफल रहें और फिल्मों से उन्होंने शोहरत और पैसा दोनों कमाया। रामायण में उनका निभाया बजरंगबली का किरदार भला कौन भूल सकता है। इस हनुमान में दर्शक खो गए और उनके इस किरदार को खूब सराहा गया। कलियुग के लोगों के लिए पर्दे का यह असल हनुमान लगा।
महाबली दारा सिंह की शख्सियत के रंग ही कुछ ऐसे हैं जो सालों साल हमारे जहन में तरोताजा रहेंगे। दारा सिंह को बचपन से ही कुश्ती का शौक था। दारा सिंह अपने छोटे भाई के साथ मिलकर आसपास के जिलों में कुश्ती समारोहों में हिस्सा लेते थे। दोनों भाइयों ने कई कुश्तियों की प्रतियोगिताएं जीतीं। जल्द ही पूरे इलाके में उनका नाम हो गया लेकिन असल शुरुआत अभी बाकी थी। उनकी कामयाबी का सफर शुरू हुआ 1947 में जब वह सिंगापुर पहुंचे।
आजादी के दौरान 1947 में दारा सिंह सिंगापुर पहुंचे। मकसद था भारतीय स्टाइल की कुश्ती में नाम कमाना और उन्होंने मलेशियाई चैंपियन तरलोक सिंह को पछाड़ कर ही दम लिया।
विदेश में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़कर 1952 में दारा सिंह भारत लौट आए। 1954 में भारतीय कुश्ती चैंपियन बने। इसके बाद उन्होंने कॉमनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैंपियन किंग कॉन्ग को भी धूल चटा दी। सब उन्हें देखते रहे और कामयाबी का बेहतरीन कारवां आगे बढ़ता रहा। गांव में पले-बढ़े इस युवक ने ऐसा कारनामा किया कि सब दांतो तले उंगली दबाने पर मजबूर हो गए।
दारा सिंह की लोकप्रियता से बौखलाए कनाडा के चैंपियन जार्ज गार्डीयांका और न्यूजीलैंड के जॉन डिसिल्वा ने 1959 में कोलकाता में कॉमनवेल्थ कुश्ती चैंपियनशिप में उन्हें खुली चुनौती दे डाली। नतीजा फिर वही रहा। दारा सिंह एक बार फिर अजेय बनकर उभरे। ऐसा लग रहा था जैसे वह सिर्फ जीतने के लिए बने हो।
इसके बाद 1968 में दारा सिंह ने फ्रीस्टाइल कुश्ती के अमेरिकी चैंपियन लाऊ थेज को हराकर विश्व चैंपियन का खिताब हासिल कर दिया। 1लेकिन 1983 में उन्होंने कुश्ती को अलविदा कह दिया। कुश्ती के करियर को खत्म करने से पहले दारा सिंह ने सोच लिया था कि अब उन्हें क्या करना है। सामने कामयाबी का एक और रास्ता दिखाई दे रहा था। चुनौतियां तो थीं लेकिन दारा सिंह को तो मुश्किलों से जूझने में मजा आने लगा था लिहाजा वो निकल पड़े बॉलीवुड के सफर पर। उन्होंने तय किया कि अब वह बॉलीवुड में अपनी किस्मत आजमाएंगे।
1952 में वतन वापसी के बाद दारा सिंह को पहली फिल्म मिली संगदिल लेकिन उनकी असल पहचान बनी 1962 में आई फिल्म किंग कॉन्ग से। इस फिल्म ने उन्हें वो शोहरत दिलाई जो कम ही लोगों को ही नसीब होती है। ये फिल्म कुश्ती पर ही आधारित थी। अपने 60 साल लंबे फिल्मी करियर में दारा सिंह ने 100 से ज्यादा फिल्मों में काम किया लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा शोहरत मिली टीवी सीरियल रामायण से। लोगों ने दारा सिंह के रूप में हनुमान के नए अवतार को देखा।
इस सीरियल में उन्होंने हनुमान का किरदार निभाया। इसकी वजह से दारा सिंह को देखते हीं लोगों के जेहन में आज भी जो पहला अक्स उभरता है वो बजरंगबली का ही होता है। यह किरदार उनपर इसलिए जचा क्योंकि वह वास्तविक जीवन में शाकाहारी थे और मांस-मदिरा से दूर रहे। उनके बारे में यह कहा जाता रहा कि असल जीवन में वह सात्विक पुरुष थे और संस्कार उनके रग-रग में बसता था।
2003 में बीजेपी ने हनुमान की छवि को भुनाने के लिए दारा सिंह को राज्यसभा के जरिए संसद पहुंचाया। हालांकि अखाड़े और स्क्रीन में अपना जलवा दिखा चुके दारा सिंह की दिलचस्पी पर्दे से कम नहीं हुई और 2003 में उन्होंने जव वी मेट में करीना कपूर के दादा का किरदार निभाया।
अखाड़े को पहले ही अलविदा कह चुके दारा सिंह ने इसके बाद किसी फिल्म में काम नहीं किया। जिसकी वजह शायद उनकी बढ़ती उम्र और खराब सेहत ही थी। देश का यह अनोखा और बेजोड़ पहलवान ना सिर्फ पहलवानों का बल्कि कई सिने हस्तियों का भी आदर्श रहा।
लेकिन दारा सिंह की जिंदगी से जुड़ी एक और भी खास बात है जो काफी कम लोगों को ही पता है। दरअसल दारा सिंह नाबालिग होते हुए ही एक बच्चे के पिता बन गए थे। कम उम्र में ही दारा सिंह के घरवालों ने उनकी शादी कर दी। नतीजतन महज 17 साल की उम्र में ही एक बच्चे के पिता बन गए लेकिन जब उन्होंने कुश्ती की दुनिया में नाम कमाया तो उन्होंने अपनी पसंद से दूसरी शादी सुरजीत कौर से की। आज दारा सिंह के परिवार में तीन बेटियां और तीन बेटे हैं।
दरअसल जिंदगी और मौत से कई दिनों तक जूझने के बाद आखिरकार दारा सिंह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। चला गया एक ऐसा शख्स जिसने कुश्ती को उन ऊंचाईंयों तक पहुंचाया जो सबके बस की बात नहीं। बजरंगबली का वह किरदार जो दर्शकों के सर चढ़कर बोलता है। जिंदगी के 84 बसंत में उन्होंने कई सीख और पैगाम दिए। मुझे अब भी बचपन का वह विज्ञापन याद है जब दारा सिंह एक घी का विज्ञापन करते थे। विज्ञापन में दिखाया गया था कि कार एक कीचड़ में फंस जाती है। दारा सिंह उसे अपने हाथों से निकाल देते है। फिर वह विज्ञापन में नाती-पोतों को नसीहत देते हैं घी खाने के लिए। दरअसल वह ना सिर्फ शाकाहारी थे बल्कि सही मायने में सात्विक व्यक्ति भी थे। उन्होंने दुनिया को यह नसीहत दी कि अगर जज्बा हो, जिद हो, कुछ पाने की ललक हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। रुस्तमे-हिंद दारा सिंह को विनम्र श्रद्धांजलि।
First Published: Friday, July 13, 2012, 22:07