Last Updated: Monday, January 30, 2012, 05:35
संजीव कुमार दुबे बचपन की एक घटना अब भी जेहन में एक खौफ के रूप गाहे-बगाहे अपना वजूद दर्ज कराती है। तकरीबन 28 साल पहले एक दिन बिल्कुल सुबह पटना में मेरे घर के ठीक सामने वाले घर से धुआं उठता दिखा। यह सुबह का वक्त था जब पास के मंदिर में आरती भी शुरू हो चुकी थी और घंटियों से वातावरण गूंजायमान हो रहा था। पड़ोस के लोगों को लगा कि उस घर में आग लग गई और शायद कई लोग हताहत हो गए। पता चला कि उस घर की महिला (बहू) खाना बनाते वक्त स्टोव की टंकी फटने से बुरी तरह घायल हो गई है। मैने देखा बुरी तरह से आग में जली उस महिला को पीएमसीएच (पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल) ले जाया जा रहा है। लेकिन उस महिला ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। कुछ दिनों बाद हमने देखा उस घर में कई पुलिसवाले उस परिवार के कुछ सदस्यों को गिरफ्तार करके ले जा रहे है।
बाद में पता चला कि उस महिला की मृत्यु हादसा नहीं बल्कि दहेज के लिए की गई हत्या थी। पुलिस के डंडे की बदौलत परिवार ने अपना अपराध कबूल कर लिया। बहू तो दहेज की बलि चढ़ गई और उसका पूरा ससुराल उसे जलाने के जुर्म में जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गया।
बाद में मेरे जीवन में परिपक्वता के कई मोड़ आते चले गए और उसके बाद मैं ऐसी ही घटनाओं से अखबारों और टीवी के जरिए रूबरू होता रहा। खबरों की दुनिया में कभी दहेज के लिए बहू को मारपीट कर भगा दिए जाने की खबरे पढ़ता। तो कभी मानवता को शर्मसार करनेवाली दर्दनाक उन दास्तानों से भी रूबरू हुआ जब बहू के रूप में आई औरतों को या तो जला दिया जाता है या फिर बेरहमी से उनका कत्ल कर दिया जाता है।
उस वक्त बड़े-बुजुर्ग से ऐसी घटनाओं के बारे में यह सुनने को मिलता कि कुछ साल के बाद ऐसी घटनाएं नहीं होंगी। मैने पूछता क्यों। जवाब मिला- तब इंसान आज के मुकाबले ज्यादा समझदार होगा, उसके पास बेशुमार दौलत होगी जो ऐसी घटनाओं में कमी का कारण बनेगी।
इस बात को लंबा अरसा हो गया। तीन दशक से भी ज्यादा वक्त बीतने के बाद भी समाज के उस चेहरे में मुझे नहीं लगता कि बदलाव नहीं हुआ है जो दहेज के लिए हत्या कर देने में हिचकिचाता हो। जो दहेज को सामाजिक आन, बान और शान का प्रतीक समझता हो। अब भी दहेज हत्या की सुर्खियां दिखती है। दहेज लिए प्रताड़ना, हत्या और बहूओं को जलाए जाने का सिलसिला अब भी जारी है और आंकड़े इस बात की गवाही देते है कि ऐसे मामले में बढ़ते जा रहे है जो इंसानियत को शर्मसार कर रहे है।
दहेज की खातिर बहूओं को जलाए जाने का आंकड़ा हर साल खौफनाक तस्वीर को पेश करता है। आंकड़े की भयावहता इसी बात से झलकती है कि देश में हर घंटे एक बहू को जलाकर मार दिया जाता है। इन आंकड़ों की भयावहता यही खत्म नहीं होती बल्कि रोज 23 नई नवेली बहूओं की देश में हत्या की जाती है। यानी इन घटनाओं में या तो बहू को जला दिया जाता है, उनकी हत्या कर दी जाती है या फिर उन्हें खुदकुशी के लिए मजबूर किया जाता है।
वर्ष 2010 में दहेज के लिए 8391 दहेज हत्या के मामले सामने आए जबकि वर्ष 2000 में यह आंकड़ा 6995 था। वर्ष 2000 में अदालत ने 37 फीसदी मामलों में सजा सुनाई जबकि वर्ष 2010 में 34 फीसदी मामलों में गुनहगार को सजा मिली। इन आंकडों से तो यही लगता है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। समाज अब भी दहेज प्रथा के डंक से मुक्त नहीं हो पाया है।
वर्ष 2010 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दहेज हत्या के मामले में फांसी की सजा होनी चाहिए। ये केस 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' कैटिगरी में आते हैं। कोर्ट ने यह भी कहा था कि स्वस्थ समाज की पहचान यही है कि वह महिलाओं को कितना सम्मान देता है, लेकिन भारतीय समाज बीमार हो गया है।
तत्कालीन जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने एक आदेश में कहा, 'समय आ गया है कि बहू हत्या की कुरीति पर जोरदार वार कर इसे खत्म कर दिया जाए, इस तरह कि कोई ऐसा अपराध करने की सोच न पाए।'
कोर्ट ने यह भी कहा था कि इस कोर्ट में आने वाले उन मामलों से यह साफ है, जिनमें युवा लड़कियों को उनके पति या ससुराल वाले जलाकर या गला घोंटकर मार देते हैं। जिस समाज में बड़ी संख्या में महिलाओं से बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जाता है, वहां सभ्यता का क्या स्तर है। हमारा समाज क्या हो गया है, यह केस बता रहा है।
दहेज प्रणाली एक बड़ा और हमारे समाज, लोकतंत्र, और देश पर कलंक अभिशाप है। दहेज हत्या के दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय उदाहरणों अक्सर हमारे समाज में तेजी से बढ़ रही हैं। दहेज से मौत की, मूल रूप से एक अपनी तरह अपराध की वर्ग है जो दोनों अहंकार से और जटिल ग्रस्त के साथ एक आर्थिक समस्या है। विधायिका गंभीरता से हमारे समाज के दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई के बारे में चिंतित था और रोकने के लिए, दहेज प्रतिषेध अधिनियम-1961 के साथ दहेज हत्या की बढ़ती बुराई से निपटने के लिए अधिनियमित किया गया था। दहेज प्रतिषेध (संशोधन) अधिनियम, 1986 द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी दहेज हत्या की बढ़ती बुराई का मुकाबला करने के लिए एक दृश्य के साथ सम्मिलित किया गया था। कानून बनाने के बाद भी यह एक कड़वा सच है कि इस तरह के मामले प्रकाश में या अदालत में तब आते है जब सब कुछ खत्म हो चुका होता है।
हमारे देश में हालात को देखते हुए दहेज के मद्देनजर जरूरत सख्त से सख्त कानून बनाने की है ताकि अपराधी ऐसा करने के पहले हजार बार सोचे। बहूओं की जिंदगी महफूज हो इसके लिए कानून ऐसा हो ताकि अपराधी को जल्द से जल्द कड़ा दंड मिलें ताकी दूसरा व्यक्ति यह देखकर अपराध करने से डरे। तेजी से गिर रहे नैतिक मूल्यों के बीच जरूरत इस बात की है कि हम कुछ वक्त के लिए यह सोचे कि एक दूसरे घर से बहू के रूप में चलकर आई लक्ष्मी को प्रताड़ित करना, उसकी हत्या करना या जलाना किस मर्दानगी या इंसानियत का प्रतीक है ?
First Published: Monday, January 30, 2012, 13:23