बेटे की ही चाहत क्यों - Zee News हिंदी

बेटे की ही चाहत क्यों


रामानुज सिंह




कभी आफरीन तो कभी फलक, इस तरह बेटियों पर किसी न किसी रूप में कहर बरपाया जाता है यानि बेटियों को बेटों की तुलना में कम तहजीह देना या भार समझने की मानसिकता सदियों पुरानी है जो अबतक चली आ रही है। आखिर क्यों लोगों को बेटे की चाहत बेटी से ज्यादा है।

 

आज देश में एक हजार पुरुष की तुलना में महिलाओं की संख्या 940 रह गई है। यह अंतर दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों में यह अंतर और भी भयावह है। आने वाले समय में यही हाल रहा तो लड़कियों की संख्या काफी कम हो जाएगी। शादी करने के लिए लड़कों को लड़कियां मिलना मुश्किल हो जाएगी। जीवनसाथी की चाहत रखने वालों की मुराद पूरी नहीं होगी। संतान सुख से भी वंचित होना पड़ेगा। सामाजिक संतुलन बिगड़ने के साथ-साथ समाज में अव्यवस्था भी फैलेगी।

 

जब किसी माता-पिता को संतान के रूप में बेटी जन्म लेती है तो बेटे की तुलना में कम खुशी होती है। कई दंपत्तियों पर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। लगता है, उसके जीवन में दुखों और कष्टों की शुरुआत हो गई है। बेटियों से ज्यादा बेटों की चाहत होने के कई कारण है।

 

वंश परंपरा को बढ़ाना

शादी के बाद बेटियां पराये घर चली जाती है। जिस घर में वह जन्म लेती है। उस घर का या उसके माता-पिता का उसपर कोई अधिकार नहीं रह जाता है। यानी वंश को आगे बढ़ाने के लिए कोई नहीं रह जाता है। जबकि बेटा अपने माता-पिता के साथ रहता है और उसपर उसके माता-पिता का अधिकार होता है। बेटा वंश परंपरा को आगे बढ़ाता है।

 

बुढ़ापे का सहारा

इंसान जन्मजात स्वार्थी होता है। जिंदगी के हर पड़ाव पर अपने सुख और शांति के लिए सबकुछ करता है। बचपन से लेकर जवानी तक जीवन का गुजर बसर तो कर लेता है लेकिन बुढ़ापे में शरीर अपनी हिफाजत करने में सक्षम नहीं होता है। जिससे किसी न किसी के सहारे की आवश्यकता महसूस होती है। बेटा मां-बाप के साथ रहकर बुढ़ापे का सहारा बनता है। जबकि अमूमन बेटियां शादी के बाद अपने ससुराल वालों के पास ही रहने लगती है। बूढ़े मां-बाप का सहारा नहीं बन पाती है।

 

सुरक्षा कवच

बेटों को हर परिस्थितियों में सुरक्षा कवच समझा जाता है। भारत की 70 फीसदी जनसंख्या गांव में बसती है। जहां का सामाजिक ताना-बाना इस तरह का है कि बेटों को ही रात-दिन किसी समय कहीं भी जाने का अधिकार होता है। उसे समाज के हर बुराईयों से लड़ने के बारे में बताया और सिखाया जाता है। बेटे को ही घर के बाहर किसी भी कार्य के लिए भेजा जाता है। पिता उसे अपना सुरक्षा कवच समझते हैं। प्राय: बेटियों घर के अंदर किचन तक ही सिमटी होती है। लेकिन शहरों में बेटा और बेटी दोनों को घरों से बाहर निकलने और हर तरह के कार्यों को करने की आजादी है। आज बेटियां घर से लेकर कार्यालयों तक पुरूष के समकक्ष काम कर रही है। शहर में भी बेटियों को बेटों से ज्यादा सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है। इस हालात में बेटे के प्रति लोग आश्वस्त रहते है वह अपना सुरक्षा खुद कर लेगा।

 

बेटियों की ज्यादा सुरक्षा की आवश्यकता

महिलाओं और लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की घटना घटती रहती है। जिससे बेटियों के जन्म लेने के साथ ही न केवल उसके भरण पोषण का ख्याल रखना पड़ता है बल्कि शारीरिक सुरक्षा की भी चिंता होती है। बेटियां ज्यों-ज्यों बड़ी होती हैं त्यों-त्यों उसके अकेले घर से निकलने से लेकर घर वापस आने तक चिंता लगी रहती है उसके साथ किसी तरह का कोई अप्रिय घटना न हो। जिस तरह रोज व रोज अपहरण, रेप से समाचार सुनने को मिलता है। लेकिन बेटे के साथ इस तरह की चिंताए नहीं होती है।

 

पढ़ाई-लिखाई पर खर्च

आमतौर भारतीय समाज में जब संतान को पढ़ाने-लिखाने की बारी आती है तो माता-पिता बेटे को ही बेटियों से ज्यादा तरजीह देते हैं। बेटे को अच्छे स्कूलों में एडमिशन करवाते है जबकि बेटियों को किसी तरह साक्षर बना देते हैं। इसकी एक वजह यह है कि बेटियां शादी के बाद पराये घर चली जाती है जबकि बेटा बुढ़ापे में मां-बाप की परवरिश करता है। दूसरी वजह यह है कि बेटियों को पढ़ाने में ज्यादा खर्च आता है क्योंकि अच्छी शिक्षा के लिए उसे शहर भेजना होता है शहर में उसके रहने से लेकर कॉलेज जाने-आने तक हर पल की सुरक्षा व्यवस्था पर ज्यादा खर्च आता है। लेकिन बेटे को शहर में पढ़ने के लिए कम खर्च में भी काम चल जाता है।

 

दहेज का दानव

बेटे और बेटियों पर जन्म से लेकर उसकी शिक्षा दीक्षा तक समान अवसर मुहैया कराने के बावजूद  जब उसकी शादी की बारी आती है तो बेटी की शादी में दहेज देना पड़ता है। जबकि बेटे की शादी में दहेज मिलता है।

 

इन्हीं वजहों से बेटे और बेटियों में अंतर पैदा होता है। यह भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही है। जिसके चलते लोगों में बेटे की चाहत ज्यादा होती है। हमारा समाज 21वीं सदी में जी रहा है पर लोगों की मानसिकता में बदलाव नहीं आया है। लोगों की सोच हर जनगणना के बाद सामने आती है। हम अब भी बेटी-बेटा में मतभेद की मानसिकता के साथ जी रहे है लेकिन अब हमें इस सोच को बदलने की जरूरत है। बेटियां भी बेटों जैसी होती है। क्योंकि दोनों इंसान है। लिंगभेद से पहले इंसानियत सामने आती है। जब इंसानियत की बात चलती है तो लड़के-लड़की की बात सोचना या करना बेमानी और शर्मनाक है।

 

 

 

 

 

 

First Published: Sunday, April 15, 2012, 23:38

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