माया के चुनावी टोटके - Zee News हिंदी

माया के चुनावी टोटके

देवेश खंडेलवाल

 

मायावती की सोशल इंजीनियरिंग भी कमाल का जादू करती है, इस सोशल इंजीनियरिंग का ही जलवा था कि 2007 के विधानसभा चुनावो में ब्राहमण भी कहने को मजबूर थे कि 'ब्राहमणों की यही पुकार मायावती चौथी बार।' दलित  के साथ ब्राहमणो के गठजोड़ के लिए गांवो में भाईचारा समितियों का गठन किया गया वहीं वैश्यो को अपने साथ मिलाने के लिए बसपा के नेता और कांशीराम के सहयोगी रहे सुधीर गोयल को लाया गया। पिछड़ो के वोट साधने के लिये उस समय बाबू सिंह कुशवाह भी मायावती के साथ थे।

 

चुनाव प्रचार के समय मायावती के साथ एक तरफ सतीश चंद्र मिश्रा थे तो दूसरी तरफ नसीमुद्दीन सिद्दकी। जो पार्टी अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में  केवल बहुजन समाज की बात करती थी वह अब सर्वजन समाज की बात करने लगी थी। और नतीजतन मायावती के हाथी ने उत्तर प्रदेश की 206 सीटो पर कब्जा जमा लिया जिसमे 62 दलित, 51 ब्राहमण, 51 ओबीसी, 24 मुसलमान, 18 ठाकुरो की सीटे शामिल थी।

 

इस बार 2012 विधानसभा चुनाव में मायावती 2007 की सफलता को दोहराने के लिए वही सोशल इंजीनियरिंग का जादू बिखेरने के लिए तैयार है। नवम्बर 2011 लखनऊ में ब्राहमण समाज भाईचारा समिति की रैली फिर दिसम्बर में मुस्लिम-वैश्य-क्षत्रिय महासम्मेलन का आयोजन कर सभी जातियो को बसपा में लाने का प्रयास किया। लेकिन मायावती सिर्फ रैलियों तक ही सीमित ना रहना चाहती इसलिए वे जमीनीस्तर पर भी लोगों को बसपा से जोड़ने के लिए सभी भाईचारा समितियों को अलर्ट कर दिया गया है और पिछले चुनावो की तरह इन चुनावों में एक बेहतर मैंनेजमेंट के तहत प्रत्येक पांच जिलों का चार्ज कोर्डिनेटर्स को दिया गया है हर कोर्डिनेटर्स के नीचे जिलाध्यक्षो एक टीम काम कर रही है जिनके जिम्मे अपने-अपने जिलो के विधानसभा क्षेत्र है। और फिर आते है विधानसभा क्षेत्रो के नेता जिन्हे बसपा के लोकल कार्यकर्ता का समर्थन प्राप्त है। इन लोकल कार्यकर्ता को प्रत्येक बूथ की जिम्मेदारी दी गई है। इस पूरे मैंनेजमेंटीय ढॉचे की खास बात यही है कि कोर्डिनेटर्स और जिलाध्यक्ष मायावती से सीधे मिल सकते है। 2012 विधानसभा चुनावो के मद्देनजर इस मैंनेजमेंटीय ढॉचे कोई बदलाव नही किया गया और मायावती लगातार अपने कोर्डिनेटर्सो के सम्पर्क में बनी रहती है और इन पर पूरा भरोसा भी करती है तभी तो इस बार के चुनावो में कई विधायको के टिकट काट दिये गए।

 

मायावती की 2012 विधानसभा चुनावो को लेकर पूरी तैयारियां है, दागी मंत्रियो की बर्खास्तगी और कार्यकर्ताओं को किसी भी प्रकार के विवाद से दूर रहने की हिदायत से जनता में एक अच्छा संदेश जरुर जायेगा। साथ ही बसपा के पास मजबूत दलित बोट बैंक है इस बोट बैंक ने बसपा का साथ कभी नही छोड़ा जोकि आगामी चुनावो में बसपा की जीत सुनिश्चत करने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 2007 में 89 सुरक्षित सीटों में से बसपा को 62 सीटें मिली इससे पहले 1996 विधानसभा चुनावो में 62प्रतिशत दलितो ने बसपा को वोट दिया वही 2002 के चुनावो में 69 प्रतिशत दलित बसपा के कुनबे में शामिल थे तो 2007 में 77 प्रतिशत दलितो का बसपा को समर्थन प्राप्त था।

 

हालांकि इस मजबूत बोट बैंक को आधार देने के लिए कांशीराम ने 1981 में दलित सोशित संघर्ष समिति की स्थापना की जिसे डीएस4 के नाम से भी जाना जाता था इसी डीएस4 के परिणाम स्वरुप बसपा आज इतनी मजबूत स्थिति में पंहुच पायी है। डीएस4 की रैली को संबोधित करते हुए कांशीराम ने एक नारा दिया कि ठाकुर, ब्राहमण, बनिया छोड़ बांकि सब है डीएस4। हालांकि यह ना तो कोई राजनीतिक रैली थी ना ही डीएस4 कोई राजनीतिक दल था । यह तो बस बामसेफ जैसा एक मूवमेंट था जिसका उद्देश्य दलितो को एक मंच पर लाना था। 1982 हरियाणा विधानसभा चुनाव और 1983 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावो में डीएस4 ने कई निर्दलीय प्रत्याशियो को खड़ा किया लेकिन सारे प्रत्याशी अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे। लेकिन डीएस4 को सफल करने के लिए कांशीराम के नेतृत्व में मार्च 1983 में 42 दिनों की 3000 किमी लम्बी साईकल यात्रा भी निकाली गई जो कि उत्तर भारत के सात राज्यों से होकर गुजरी । इस रैली को दो पैरो और दो पहियो का जादू कहा गया। यही जादू आज हकीकत में बदल कर बसपा को बाकी दलो से एक कदम आगे रखता है।

 

कांशीराम इस पूरे आन्दोलन का मकसद जातियों में बटे उत्तर प्रदेश में अपने लिए जगह तलाशना था इसके लिए कांशीराम ने पिछड़ों और दलितों का गठजोड़ करने के लिए कुर्मियों के करिश्माई नेता जंगबहादुर पटेल को भी अपने साथ कर लिया और फिर 1984 में बसपा का जन्म हुआ तो कांशीराम  की असली परीक्षा तो अब शुरु होनी थी। यही वह वक्त था जब अस्सी के यह दशक भाजपा भी राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की मदद से उत्तर भारत में अपने पैर जमाने में लगी हुई थी हालांकि भाजपा को अंदेशा था कि बसपा का बढ़ता प्रभाव उसके लिए सरदर्द बन सकता है। 1988 में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाब देबरस ने एक अखबार के माध्यम से बसपा के बारे में कहा था कि यह उत्तर भारत में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की मुख्य समस्याओं में से एक है। इस बात में सच्चाई भी थी क्योकि राम मंदिर आन्दोलन के बाद ठाकुर, ब्राहमण और गैर यादव वोट भाजपा के साथ थे वह अब धीरे धीरे खिसक कर बसपा में जाने लगे थे । 2007 में बसपा के साथ 27 प्रतिशत गैर यादव और 16प्रतिशत ठाकुर, ब्राहमण के वोट थे जोकि 1996 के मुकाबले क्रमश 13प्रतिशत और 4प्रतिशत से कई गुना अधिक थे।

 

एकतरफ मायावती को दलितों की बेटी होने का गर्व तो मिल चुका है लेकिन ऐसा भी नही कि सभी दलित आंख मूंदकर बसपा को बोट करने जाते हो। दलितों में बसपा को उसी उपजाति का पूर्ण समर्थन प्राप्त है जिस से खुद मायावती आती है। इस उपजाति की उत्तर प्रदेश के दलितो में 54 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। दलितो में 12 प्रतिशत संख्या वाले पासी समुदाय भी बसपा में रुचि रखने लगा है लेकिन बाकी का दलित समुदाय बिखरा पड़ा है। कांशीराम का मानना था कि एक दिन सारा बहुजन समाज बसपा से जुड़ जाएगा। मायावती ने बहुजन समाज को अपने साथ करने के लिए कोई कोर कसर नही छोड़ी। पिछड़े और अल्पसंख्यको के नेताओ को चुनावों के समय तो मायावती में बहनजी नजर आती है लेकिन चुनावो के बाद वे खुद मायावती पर आरोप लगाते नजर आते है। यही कारण है कि बसपा में कोई भी नेता पांच साल से ज्यादा या तो टिक नहीं पाया या फिर उसे निकाल दिया गया। कभी ना खत्म होने वाली यह लिस्ट शेख सुलेमान, आरिफ मोहम्मद खॉन, राशिद  अल्वी, जंग बहादुर पटेल, भगवत पाल, बाबू सिंह कुशवाह और यही नही नसीमुद्दीन सिद्दकी तक पर लोकायुक्त की जांच चल रही है।

 

इस बार खुद मायावती ही बसपा के लिए भीड़ जुटाऊ चेहरा हैं, अब यह चेहरा भीड़ को वोटों में तब्दील कर पाता है या नहीं, यह तो चुनावी नतीजे ही तय करेंगे लेकिन इतना तो साफ है कि अगर मायावती इस बार भी अपनी जीत दोहराती है तो निश्चत ही दिल्ली के सियासी गलियारे में उनका नाम गूंजने लगेगा।

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं और इस आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के अपने हैं)

First Published: Tuesday, January 24, 2012, 09:22

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