राज्य का विभाजन जनहित में नहीं - Zee News हिंदी

राज्य का विभाजन जनहित में नहीं

रामानुज सिंह

 

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रदेश को बांटकर चार राज्य पूर्वांचल, बुंदेलखंड, अवध प्रदेश और हरित प्रदेश बनाने का प्रस्ताव रखा। जिसे राज्य मंत्रिमंडल ने अपनी मुहर लगा दी। इस प्रस्ताव को 21 नवंबर को शुरू होने वाले विधानसभा सत्र में पारित करवाया जाएगा। उसके बाद इस मुद्दे को केंद्र के पाले में डाल दिया जाएगा।

 

अगले साल यानी 2012 में यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनाव से ठीक पहले बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा राज्य विभाजन का प्रस्ताव लाना, जनता को अपनी ओर आकर्षित करने का चुनावी हथियार भर है और कुछ भी नहीं।

 

मायावती के इस फैसले को कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने चुनावी स्टंट करार दिया। लेकिन सपा को छोड़कर किसी ने राज्य विभाजन का मुखर होकर विरोध नहीं किया। आरएलडी ने इसे मायावती की चुनावी चाल करार देते हुए प्रदेश के विभाजन का खुलकर समर्थन किया साथ ही कहा कि अगर विधानसभा में यह प्रस्ताव पेश होता है तो आरएलडी उसका समर्थन करेगा।

 

अब सवाल यह उठता है कि क्या किसी राज्य को छोटे-छोटे राज्यों में बांट देने से उस राज्य में रह रहे आम लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएगी। राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को रोटी, कपड़ा और मकान की गारंटी हो जाएगी। हर व्यक्ति को शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा  सुनिश्चित हो जाएगा। अगर ऐसा हो तो छोटे-छोटे राज्य बनने चाहिए।

 

आजादी के बाद राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 बनने के बाद देश में 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश थे। जो अब बढ़कर 28 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश हो गए, लेकिन आम जन की समस्याएं जस की तस हैं। मिसाल के तौर पर वर्ष 2000  में तीन नए राज्य का प्रादुर्भाव हुआ। बिहार से अलग होकर झारखंड बना। मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ बना। उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड बना।

 

झारखंड खनिज संसाधन के मामले में सबसे अव्वल राज्य है। लेकिन शहरी आबादी को छोड़कर प्रदेश के शेष हिस्से विकास से महरूम हैं। आज भी ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी की समस्या, बिजली और रोजगार की समस्या बदस्तूर जारी है। आदिवासी लोग अपनी जीविका के लिए जंगल पर निर्भर हैं। क्योंकि राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक की सरकारों ने विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। सभी ने जमकर लूट-खसोट की। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा चार हजार करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में जेल में बंद हैं।

 

छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल प्रदेश है। यहां भी आम लोगों की हालत में कोई खास सुधार नहीं है। प्रदेश भर में नक्सलियों का तांडव होता रहता है। अगर राज्य सरकार आदिवासी इलाके में सच्चे मन से विकास की गति तेज की होती तो इन 10 वर्षों में स्वतः नक्सली आंदोलन खत्म हो जाता, पर ऐसा नहीं हुआ।

 

उत्तराखंड में भी कमोबेश हालत अन्य राज्यों की तरह ही है। राज्य में कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा की सरकार बनती रही, मुख्यमंत्री बदलते रहे पर प्रदेश की जनता की माली हालत में कोई सुधार नहीं हुआ।

 

राज्य के विभाजन से अगर किसी को फायदा है तो वह है नेता। स्पष्ट है अगर यूपी का विभाजन होता है तो प्रत्येक राज्य में विधानसभा होगी। मुख्यमंत्री होंगे। मंत्रिमंडल होगा। कैबिनेट और राज्य मंत्री होंगे। उनके लिए दूसरे राज्य की तरह सारी सुविधाएं होंगी। इन सुविधाओं को पूरा करने के लिए धन चाहिए। वह धन राज्य के खजाने से आएगा। यानी राज्य का अधिकांश राजस्व राज्य सरकारों पर खर्ज होगा। इस तरह जनता का बहुमूल्य पैसा जनहित में नहीं, सत्ताहित में जाएगा।

 

अगर राज्य सरकार राज्य का बिना विभाजन किए प्रदेश के कोने-कोने का विकास करना चाहे तो कोई मुश्किल नहीं है। इसके लिए शासनतंत्र को सुधारना होगा। भ्रष्टचार मुक्त शासन व्यवस्था बनानी होगी। ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले व्यक्ति को चुनाव में टिकट दिया जाना चाहिए। आपराधिक तत्वों को राजसत्ता से बेदखल किया जाना चाहिए।

 

अगर इस तरह नए राज्य बनाने की मांग बढ़ती रही तो कई ऐसे प्रदेश हैं जिसे तोड़कर कई राज्यों में बांटना पड़ेगा। अभी यूपी के विभाजन की बात उठी है, इससे पहले आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना, महाराष्ट्र से अलग विदर्भ, पश्चिम बंगाल से अलग गोरखालैंड राज्य की मांग उठती रही है। तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर तो लंबे समय से आंदोलन जारी है।

 

गुजरते वक्त के साथ नए राज्य बनते रहे, और नए राज्य बनाने की मांग बढ़ती रही तो आने वाले समय में हो ना हो प्रत्येक जिला को राज्य बनना पड़ जाएगा। इसका सीधा असर देश की एकता और अखंडता पर पड़ सकता है।

 

जब राज्य बंटता है तो लोगों की सोच में भी बदलाव आता है। 1905 से पहले बंगाल, बिहार, असम और उड़ीसा सभी एक ही प्रांत के हिस्से थे। अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति से तहत बंग भंग किया। जिसका तत्कालीन जनता ने जमकर विरोध किया था। इसके बावजूद बंगाल का विभाजन हुआ। 1911 में असम अलग राज्य बना और बिहार  1912 में बंगाल से अलग हुआ। फिर 1936 में बिहार से अलग होकर उड़ीसा राज्य बना। देश के आजाद होने के बाद भाषाई आधार पर राज्य का विभाजन शुरू हुआ। 1953 में सबसे पहले तेलगू भाषियों के लिए मद्रास से अलग आंध्र प्रदेश राज्य का गठन हुआ। उसके बाद 1960 में मराठी के लिए महाराष्ट्र और गुजराती के लिए गुजरात। 1963 में असम से अलग नागाओं के लिए नगालैंड। इसी तरह 1966 में पंजाब और हरियाणा, 1973 में मणिपुर, त्रिपुरा, मेधालय राज्य बने। 1975 में सिक्किम और 1987 में मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और गोवा को राज्य का दर्जा दिया गया।

 

आज इन सभी राज्यों के लोगों के बीच एकता नहीं है। वे सभी बंगाली, बिहारी, असामी, उड़िया, गुजराती, मराठी, पंजाबी और मणिपुरी इत्यादि में बंट चुके हैं। इससे आपस का प्यार और भाईचारा खत्म हो गया है। यही हाल नए राज्यों का भी है। एक राज्य के लोग दूसरे राज्य में नौकरी या पेशा करने जाते हैं तो उनके साथ दोयम दर्जे सा व्यवहार होता है। जिसका उदारहण मुंबई और असम में कई बार देखने को मिला है।

 

अगर यूपी का विभाजन हो जाता है तो पूर्वांचल और बुदेंलखंड के लोगों के साथ भी हरित प्रदेश और अवध प्रदेश में भी ऐसा ही सलूक हो सकता है। अभी कम से कम इतना तो है कि झांसी और बलिया के लोग नोएडा में आकर रोजगार करते हैं तो उन्हें क्षेत्रवाद का शिकार नहीं होना पड़ता है।

First Published: Sunday, November 20, 2011, 21:21

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