Last Updated: Saturday, May 12, 2012, 19:20
प्रवीण कुमारआज 13 मई है। देश की सबसे बड़ी पंचायत भारत की संसद आज अपनी पहली बैठक की 60वीं वर्षगांठ मना रहा है। संसद भवन में आज इस बात पर चर्चा जरूर होनी चाहिए कि इन छह दशकों में संसद ने क्या खोया क्या पाया? देश यह जानना चाहता है। गौर करेंगे तो 60 साल पहले और आज की संसद में जमीन और आसमान का फर्क आपको दिखेगा।
संसद का नजारा और माहौल कितना बदल गया है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पहली लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों की बड़ी संख्या थी और मार्क्सवादी विपक्ष में थे। आज कांग्रेस सहयोगी दलों की (संप्रग) बैसाखी की सहारे है और वामपंथियों की जगह दक्षिणपंथियों (राजग) ने ले ली है। संसद में बहस का स्तर भी निरंतर गिरता गया है। पहले संसद में राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पहलुओं पर गंभीर मंथन होता था लेकिन आज प्रांतीय मुद्दों को लेकर संसद को बाधित कर दिया जाता है। इससे संसद की साख पर बट्टा लगा है।
संसद में तमाम बदलावों के बीच जाहिर है कई सवालों का जवाब देश की जनता को चाहिए क्योंकि यही जनता सांसदों को चुनकर संसद में भेजती है और जिससे संसद का अस्तित्व बरकरार रहता है। कुछ सवाल मसलन क्या दशकों से संसद में बहस की गुणवत्ता में गिरावट आई है और क्या राजनीति अब सेवा के लिए नहीं रह गई है? क्या सांसद लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच पर अपनी भूमिका निभा पा रहे हैं? इन तमाम सवालों को लेकर जो एक आम धारणा है और राजनीतिक विश्लेषक भी कुछ ऐसा ही मानते हैं कि संसद का वातावरण हाल के कई दशकों से पहले जैसा नहीं रह गया है। व्यापक संवैधानिक मुद्दों के बदले राज्यों और वर्गीय हितों से सम्बंधित मुद्दे अक्सर संसद के एजेंडे में जबरदस्त तरीके से अपना प्रभाव बनाने में सफल रहे हैं।
आप उन दिनों को याद कर सकते हैं जब संसद की कार्यवाही में व्यवधान पैदा नहीं होते थे और शोरगुल, नारेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप देखने व सुनने को नहीं मिलते थे। लेकिन आज की संसद में क्या हो रहा है? हम बताते हैं। आज की संसद में कैश फॉर वोट का खुलेआम प्रदर्शन किया जा रहा है। आज की संसद में सांसद लोकपाल जैसे अहम विधेयक की कॉपी को फाड़ देते हैं। कभी पृथक तेलंगाना तो कभी 2जी घोटालों पर संसद को चलने नहीं दिया जाता है।
हम यहां आपको संसद से जुड़ी कुछ अहम तथ्यों से अवगत कराना चाहते हैं। इसे जानकर तब की संसद और आज की संसद का आप भलीभांति आंकलन कर सकेंगे। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार, लोकसभा की पहली बैठक 13 मई 1952 को हुई थी। पहली लोकसभा की 677 बैठकें हुईं जो लगभग 3,784 घंटे चली। पहली लोकसभा का लगभग 48.8 फीसदी समय का उपयोग विधायी कार्यों में किया गया। क्या आज की संसद इतनी बैठकें और इतने विधायी कार्यों को अंजाम दे पा रही है? यह एक बड़ा सवाल है।
हालांकि देश को इस तथ्य पर गर्व होगा कि 1952 में स्नातक की डिग्री प्राप्त संसद सदस्यों की संख्या 58 फीसदी थी जो 2009 में बढ़कर 79 फीसदी हो गई (स्नातकोत्तर व डॉक्टरेट डिग्रीधारी सहित)। लेकिन क्या संसद में किसी मुद्दे पर बहस के स्तर को देखकर यह महसूस होता है कि हमारे सांसद इतने पढ़े-लिखे हैं। पहली लोकसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष की ओर से जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, वल्लभ भाई पटेल, बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर, अब्दुल कलाम आजाद, ए. के. गोपालन, सुचेता कृपलानी, जगजीवन राम, सरदार हुकुम सिंह, अशोक मेहता और रफी अहमद किदवई जैसे दिग्गज थे। उन दिनों बड़ी जीवंत बहस हुआ करती थी। अब तो बिरले ही ऐसे मौके आते हैं जब बहस दमदार हो। आज तो अधिकांश समय हंगामे में जाया होते हैं।
मन को संतोष देने वाला एक और तथ्य कि 15वीं लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या 11 फीसदी तक पहुंची, जबकि पहली लोकसभा में केवल 5 फीसदी महिला सदस्य थीं। देश की जनता जानना चाहती है कि इन महिला सांसदों ने महिलाओं के उत्थान के लिए क्या किया। सरेआम महिलाएं बलात्कार की शिकार हो रही हैं। आज तक कोई ऐसा कानून देश की संसद नहीं बना पाई जो महिला अपराध पर लगाम लगा सके। महिलाओं के खिलाफ अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। महिला आरक्षण विधेयक आज तक कानून बनने की बाट जोह रहा है। क्या इन महिला सांसदों ने इस दिशा में कोई पहल की? तो फिर इन महिला सांसदों की संख्या बढ़ने का देश को क्या फायदा। एक और अहम तथ्य यह कि 1950 के दशक में लोकसभा की बैठकें औसतन 127 दिन चला करती थीं और राज्यसभा की बैठकें 93 दिन। वर्ष 2011 में दोनों सदनों की बैठकें केवल 73 दिन चलीं। बहुत ही गंभीर और सोचनीय सवाल है यह। देश की संसद अगर इस पर मंथन नहीं कर सकी तो देश की जनता इसका हिसाब अपने सांसदों से जरूर मांगेगी।
First Published: Sunday, May 13, 2012, 00:50