Last Updated: Sunday, March 11, 2012, 09:38
संजीव कुमार दुबे मेरे पड़ोस में रहनेवाले एक अभिभावक उस वक्त काफी परेशान हो गए जब उनके मासूम बच्चे ने साफ-साफ लफ्जों में कह दिया कि मुझे स्कूल नहीं जाना है। मेरे टीचर मुझे पसंद नहीं करते हैं। इन सब बातों को कहते हुए बच्चा फफककर रो पड़ा।
एक पांच साल के बच्चे से जब एक अभिभावकों को ऐसी बातें सुनने को मिलें तो उनका परेशान होना लाजमी है। वह भी उस हालत में जब बच्चा स्कूल से आने के बाद रोता हो। काफी प्यार-दुलार कर जब उस बच्चे से स्कूल नहीं जाने का कारण पूछा गया तो उसके जवाब से अभिभावक और परेशान हो गए। बच्चे ने कहा कि उसकी टीचर उसे रोज कहती है कि लेसन ठीक से याद करो नहीं तो धूप में खड़ा कर दूंगी। उस बच्चे ने यह भी कहा कि कई बार उसे बेवजह सजा दी जाती है। बच्चे के मुताबिक कभी-कभार शरारत तो दूसरी बच्चे करते हे लेकिन सजा उसे मिलती है लीन-डाऊन के रूप में।
बच्चा दिल्ली के तथाकथित प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ता है जो स्कूल अपनी अपनी रैंकिंग के तमाम दावे करता है। विज्ञापनों पर भी इस स्कूल का सालाना खर्च लाखों में होगा। जरा सोचिए एक अबोध बच्चा जिसने जीवन को ठीक से समझा भी नहीं। अबोध उम्र में स्कूल जाने की शुरुआत करता है और स्कूल के वातावरण उसके लिए खौफ का कारण बन जाता है। बच्चे को डर है कि अगर उसने होमवर्क नहीं किया तो उसे सजा मिलेगी। अगर उसने लेसन याद नहीं किया तो उसे स्कूल की छुट्टी की घंटी बजने तक धूप में खड़ा होना पड़ेगा।
दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में घटी कुछ वर्षों पहले की घटना शायद आपको याद होगी। टीचर ने एक बच्चे को इतनी बेरहमी से से मारा कि उस अमुक बच्चे की एक आंख की रोशनी जाती रही। सिर्फ दिखावे के लिए टीचर को सस्पेंड किया। जांच के आदेश भी दिए गए लेकिन उस बच्चे ने अपनी एक आंख जिंदगी भर के लिए गंवा दी।
इन बातों का कतई यह मतलब नहीं कि स्कूल के सभी टीचर ऐसे ही होते हैं। लेकिन चाहे वह निजी स्कूल हो या फिर सरकारी, ऐसी घटनाएं हमें यह सोचने को तो विवश करती है क्या बच्चों के साथ ऐसा बर्ताव जो उन्हें स्कूल से दूर भागने को मजबूर करता हो वह ठीक है। क्या पढ़ाई और सजा के बीच क्या कोई संतुलन तय किया जाना चाहिए ? अगर सजा पढ़ने के लिए जरुरी है तो फिर उसका पैमाना क्या है ?
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग यानी एनसीपीआर के एक सर्वे में चौंकाने वाले नतीजे सामने आए हैं। सर्वे के अनुसार देश के 80 प्रतिशत स्कूली बच्चों को उनके शिक्षक यह कहकर अपमानित करते हैं कि वे पढ़ने के काबिल नहीं हैं। आयोग ने स्कूलों में शारीरिक सजा पर सर्वे किया है। रिपोर्ट में स्कूलों में करंट लगाने जैसी क्रूर सजा देने का भी उल्लेख है जो बच्चे तो छोड़िए उनके अभिभावकों में दहशत पैदा करती है।
वर्ष 2009-10 में देश के सात राज्यों में 6,632 छात्रों का सर्वे किया गया। इनमें से मात्र 7 ने कहा कि उन्हें स्कूल में किसी भी प्रकार की सजा नहीं दी गई। सर्वे के अनुसार 99.86 फीसद छात्रों ने किसी न किसी प्रकार की सजा मिलने की बात मानी। 81.2 फीसदी छात्रों ने माना कि उन्हें स्कूलों में कहा जाता है कि वे पढ़ने के काबिल नहीं हैं और यह कहकर उनका बहिष्कार किया जाता है।
सर्वे के अनुसार गाल पर तमाचा मारना, बेंत से पिटाई, पीठ पर मारना और कान उमेठना चार अन्य प्रमुख सजा बच्चों को दी जाती है। 75 फीसद बच्चों ने स्कूल में बेंत से पिटाई और 69 प्रतिशत बच्चों ने गाल पर तमाचा खाने की बात स्वीकार की।
वर्ष 2009-10 में देश के सात राज्यों में 6,632 छात्रों का सर्वे किया गया। इनमें से मात्र 7 ने कहा कि उन्हें स्कूल में किसी भी प्रकार की सजा नहीं दी गई। सर्वे के अनुसार 99.86 फीसद छात्रों ने किसी न किसी प्रकार की सजा मिलने की बात स्वीकार की। 81.2 फीसदी छात्रों ने माना कि उन्हें स्कूलों में कहा जाता है कि वे पढ़ने के काबिल नहीं हैं और यह कहकर उनका बहिष्कार किया जाता है।
सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि सरकारी स्कूलों के मुकाबले निजी स्कूलों में क्रूरता ज्यादा है यानी वहां बच्चों को बिनावजह ज्यादा टॉर्चर किया जाता है। अमूमन यह माना जाता है कि देश के निजी स्कूल बच्चों के विकास और करियर को लेकर सरकारी स्कूलों से बेहतर होते हैं, लेकिन एक अध्ययन के अनुसार यह गलतफहमी है। इसमें कहा गया है कि निजी स्कूलों में बच्चों के साथ सरकारी स्कूलों के मुकाबले ज्यादा क्रूर व्यवहार होता है।
स्कूलों में शारीरिक सजा को खत्म करने के लिए गाइडलाइन पर चली बहस पुरातन काल की घटना लगती है। एक कमेटी बनती है। अमूमन किसी पूर्व न्यायाधीश को कमेटी का हेड बना दिया जाता है। हजार पन्नों की रिपोर्ट तैयार होती है। फिर उसपर हल्ला-हंगामा शुरू होता है। सरकार कहती है कि रिपोर्ट ठीक नहीं है। फिर दूसरी कमेटी संशोधन के नाम पर गठित हो जाती है। सिलसिला साल-दर-साल चलता रहता है। सरकार के शिक्षा संस्थान से जुड़े नुमाइंदों को भला इस बात की फुर्सत कहां है। गाइडलाइन की बात तो उन्हें माथापच्ची या सरदर्द के माफिक लगती है। यही वजह है कि एक तो गाइडलाइन बनती नहीं, अगर बन भी जाती है तो उसपर यह देखनेवाला कोई है ही नहीं कि उसका सख्ती से अमल हो भी रहा है या नहीं।
देश की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो नर्सरी स्कूलों के लिए हर साल गाइडलाइन बनाई जाती है लेकिन निजी स्कूल हर साल अपनी मनमानी करते हैं। मोटी फीस वसूलते हैं। अभिभावकों को अपने बच्चों का दाखिला सिरदर्द लगने लगता है। स्कूलों की तो चांदी होती है क्योंकि उनके पास सीटें कुछ सौ होती है जबकि आवेदक कई हजार। लिहाजा ज्यादातर निजी स्कूल जमकर मनमानी करते हैं और सिलसिला चलता रहता है। दाखिले पर जितनी मनमानियां हो सकती है, तकरीबन हर स्कूल हर साल करते है। सरकार इस बात को जानती भी है लेकिन नकेल कसने पर वह नाकाम रहती है।
सरकार ने कुछ कमिटियों की सिफारिशों के बाद स्कूल के बस्ते का बोझ तो कम किया है लेकिन ऐसा लगता है कि अब भी एक बच्चे को पढ़ाई-लिखाई के लिए माहौल, जो शुरुआती दिनों में जरुरी होता है वह शायद नहीं दे पाए है। बच्चे अबोध होते है, उन्हें दुनियादारी की समझ नहीं होती। टीचर उन्हें बेहतर तरीके से पढ़ा सकें इसके लिए एक बच्चे को बगैर समझे बिना यह काम मुश्किल है। हर बच्चे की प्रवृति, उसके सोचने समझने की शक्ति अलग होती है। जाहिर सी बात है कि हर बच्चे को एक ही मेथड के जरिए नहीं पढ़ाया जा सकता। सठ साठयम समाचरेत का सूत्र कम से कम स्कूलों में तो लागू नहीं होता है। शिक्षा से ताल्लुक रखनेवाले लोगों को यह बात समझनी चाहिए।
जानकारों का मानना है कि नर्सरी की शिक्षा में पढ़ाई से ज्यादा बच्चों को समझने और उन जैसा बन जाने की जरूरत होती है। मतलब यह कि एक बच्चे की मानसिकता को समझे बगैर आप उसे कैसे पढ़ा सकते है। बच्चे की जिद, उसकी नासमझी कभी-कभी कभार कुछ टीचर के लिए धैर्य खोने का सबब बन जाती है और उसके बाद जो कुछ होता है वह अखबारों की सुर्खियां और टीवी चैनलों की हेडलाइन बनकर हमें दुख देता है। नर्सरी के दाखिले की उम्र से ज्यादा माथापच्ची इस बात पर करने की जरूरत है कि नर्सरी स्कूलों में शारीरिक दंड का पैमाना क्या हो। सिर्फ गाइडलाइन और दिशानिर्देश जारी कर देने मात्र से ही कुछ नहीं होता। यह देखना भी जरूरी है कि उसका स्कूलों में कितना अमल हो रहा है।
First Published: Sunday, March 11, 2012, 15:15