Last Updated: Thursday, December 1, 2011, 08:34
संजीव कुमार दुबे कुछ साल पहले की बात है। जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा में आतंकवादी होने के शक में एक शख्स को हिरासत में लिया गया। उसे रात भर पुलिस लॉकअप में रखा गया, लेकिन अगले दिन उसके परिवारवालों को खबर दी गई कि उसकी मौत हो गई है। मौत किन वजहों से हुई इस पर कोई भी पुलिस अधिकारी कुछ भी साफ-साफ नहीं कह पाया। मृतक के परिजनों ने विरोध-प्रदर्शन शुरू किया। पुलिस और लोगों में झड़पें भी हुई और मामला गुजरते वक्त के साथ धुंध में खो गया। परिजनों का अब भी यही आरोप है कि पुलिस ने निर्दोष..... को इतना टॉर्चर किया कि उसकी मौत हो गई।
पुलिस या न्यायिक हिरासत में मौत यानी लॉकअप डेथ का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है जो चिंता का विषय है। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जम्मू कश्मीर में पिछले 10 साल में (वर्ष 2001 से वर्ष 2011) लगभग 14 हजार लॉकअप डेथ हुई है। उससे भी खतरनाक बात यह है कि पिछले 10 सालों में जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबल के जवान, नागरिक और आतंकवादियों की संख्या मिला दी जाए तो यह आंकड़ा लगभग 15 हजार के पार पहुंचता है। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, इन 14 हजार मौतों में 1504 मौतें पुलिस हिरासत और 12,727 मौतें न्यायिक हिरासत के मामले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजे जा चुके हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2011 में महाराष्ट्र में पुलिस कस्टडी में मरने वाले लोगों की संख्या सबसे ज्यादा 250 है। उसके बाद उत्तर प्रदेश (174), गुजरात (134),आंध्र प्रदेश (109),पश्चिम बंगाल (98) का स्थान आता है। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि 99 फीसदी मौतें पुलिस हिरासत में 48 घंटे के भीतर हुईं। न्यायिक हिरासत में मौतों की बात करें तो पिछले 10 सालों में 12727 मौतें हुई जिनमें सबसे ज्यादा मौतें यूपी में रिकॉर्ड की गई जहां कुल 2171 मौतें न्यायिक हिरासत में हुईं। साथ ही बिहार में (1512), महाराष्ट्र (1176), आंध्र प्रदेश (1037),तमिलनाडु में (744 ) मौतें हुई जो सिर्फ न्यायिक हिरासत में हुईं।
जम्मू-कश्मीर में पिछले दिनों हाजी यूसुफ की मौत से सियासत सुलग उठी थी। हाजी युसूफ जो नेशनल कांफ्रेंस का कार्यकर्ता था जिसकी मौत भी हिरासत में ही हुई थी, लेकिन इस मामले ने जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार को कटघरे में ला खड़ा किया है। मामले की जांच जरूर चल रही है, लेकिन मौत के कारणों का पर्दाफाश अभी तक नहीं हुआ है।
यकीनन पिछले कुछ सालों में लॉकअप डेथ की घटनाओं ने जहां पुलिस की कामकाज के तौर तरीकों पर सवाल उठाए हैं वहीं इस मसले ने एक नए सिरे से सोचने को विवश कर दिया है। ज्यादातर मामले तो यूं ही निपट जाते हैं कि लोग उसपर सवाल उठाते हैं, मानवाधिकार आयोग की टीम उस घटनास्थल पर जाती है, जांच की मांग करती है। जांच की टीम गठित भी हो जाती है और नतीजा सिफर होता है। छिटपुट मामलों में निर्दोष लोग भी पुलिस के हत्थे चढ़कर अपनी जवान गंवा बैठते हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि अमुक व्यक्ति निर्दोष था।
अब वक्त आ गया है इस मसले पर सरकार को गंभीरता से सोचना का। लॉकअप डेथ में अगर मृतक दोषी भी है, किसी साजिश का आरोपी है तब भी सजा की प्रक्रिया तो कानून के दायरे में तय की चाहिए वरना लोकतंत्र के अहम स्तंभ न्यायपालिका के क्या मायने रह जाएंगें?
First Published: Friday, December 2, 2011, 15:03