Last Updated: Monday, April 1, 2013, 15:43

नई दिल्ली : पशुओं के उपचार में डाइक्लोफेनेक दवाई के इस्तेमाल पर यूं तो प्रतिबंध लगा हुआ है, लेकिन आज भी मवेशियों के उपचार के लिए इसका उपयोग बददस्तूर जारी है। विशेषज्ञों का कहना है कि पहले से विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके गिद्धों के लिए यह दवा बेहद खतरनाक साबित हो रही है।
पर्यावरणविद् रवि अग्रवाल का कहना है कि 80 के दशक तक शहर के तालकटोरा उद्यान सहित विभिन्न स्थानों पर गिद्धों के झुंड दिख जाया करते थे। एक समय इनकी बढ़ती संख्या ने हमें चिंता में डाल रखा था। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। पिछले कुछ दशकों से इनकी संख्या में बेहद तेजी से गिरावट आई है।
‘बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसायटी’ (बीएनएचएस) की गिद्ध संरक्षण कार्यक्रम के प्रमुख विभु प्रकाश ने कहा कि लंबी उम्र और धीमे प्रजनन वाले इन पक्षियों की सलाना मृत्यु दर पांच फीसद से ज्यादा नहीं है। हालांकि, 1990 के दशक के मध्य से वर्ष 2000 के बीच गिद्धों की मृत्यु दर में बढ़ोतरी काफी बढ गयी और आज इनकी 90 फीसद आबादी खत्म हो चुकी है।
इन गिद्धों की मौत का सबसे बड़ा कारण डाइक्लोफेनेक नामक दवाई ही है। इससे उपचार किए गए मवेशियों के मांस को खाने से इन पक्षियों के शरीर में यूरिक अम्ल के सफेद क्रिस्टल का निर्माण होता है।
यूरिक अम्ल को उत्सर्ग करने में अक्षम इन पक्षियों के गुर्दे खराब हो जाते हो जाते हैं और अंत में इन पक्षियों की मौत हो जाती है।
प्रकाश कहते है कि भारत में मृत गिद्धों की जांच के बाद इनमें से 76 फीसद के शरीर में डाइक्लोफेनेक के अवशेष पाए गए। चूहों के लिए जितना जहरीला साइनाइड होता है, गिद्धों के लिए यह दवाई उससे भी 30 से 40 फीसद ज्यादा जहरीली होती है। (एजेंसी)
First Published: Monday, April 1, 2013, 15:43