Last Updated: Sunday, February 3, 2013, 19:36
नई दिल्ली : खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के सरकार के फैसले पर उच्चतम न्यायालय द्वारा सवाल उठाये जाने के कुछ ही दिनों बाद कानून मंत्री अश्विनी कुमार ने कहा है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका को एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र की सीमाओं का सम्मान करना चाहिए तथा एक दूसरे के साथ सामंजस्य के साथ काम करना चाहिए।
उन्होंने एक नये विधेयक के उस विवादास्पद उपबंध का बचाव किया जिसमें न्यायाधीशों को खुली अदालत में लोगों के खिलाफ मौखिक टिप्पणी करने से रोका गया है। कानून मंत्री ने कहा कि इस प्रावधान के पीछे मजबूत तर्क है क्योंकि न्यायाधीशों को टिप्पणी को संदर्भ से हटाकर पेश किया जाता है, जिससे लोगों की छवि प्रभावित होती है।
अश्विनी कुमार ने कहा, ‘‘मैं केवल यही कहना चाहता कि शासन के तीनों अंगों :कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं विधायिका: को आपसी सामंजस्य के साथ काम करना चाहिए तथा अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं का सम्मान करना चाहिए।’’ उन्होंने पीटीआई को दिये साक्षात्कार में कहा, ‘‘मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि प्रत्येक अंग को दिये गये अधिकार क्षेत्र के संवैधानिक मानकों ने संविधान की योजना के अनुरूप ही कमोबेश काम किया है। न्यायाधीशों ने भी स्वयं यह बात कई बार कही है कि वह नीति निर्माण के क्षेत्र में नहीं जाना चाहते।’’ उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही कि ऐसी धारणा है कि न्यायपालिका अपने कार्यक्षेत्र से बाहर आ रही है। इसी संबंध में उन्हें पिछले माह उच्चतम न्यायालय द्वारा खुदरा क्षेत्र एफडीआई को मंजूरी देने के सरकार के निर्णय पर उठाये सवाल का भी हवाला दिया गया।
उच्चतम न्यायालय ने सरकार से पूछा था कि क्या खुदरा क्षेत्र में एफडीआई एक ‘‘राजनीतिक तमाशा’’ है। शीर्ष न्यायालय ने सरकार से यह भी जानने का प्रयास किया है कि वह खुदरा क्षेत्र को खोलने के बाद छोटे व्यापारियों के हितों की रक्षा कैसे करेगी। उच्चतम न्यायालय के सवालों पर कोई टिप्पणी किये बिना अश्विनी कुमार ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले ‘‘न्यायिक अधिकार क्षेत्र के संबंध में संवैधानिक दायरों के उल्लेख के जरिये आये हैं।’’ शीर्ष न्यायालय के सवालों के मद्देनजर वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने हाल में कहा था, ‘‘सभी संस्थानों को कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका के बीच के संवैधानिक विभाजन का सम्मान करना चाहिए।’’ शर्मा कह चुके हैं, ‘‘यह महत्वपूर्ण है कि सभी संस्थान कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका के बीच संवैधानिक विभाजन का सम्मान करें। इस संतुलन में ऐसा कोई भी बदलाव जिससे भारत में निवेश करने को उत्सुक लोग भ्रमित हों, बचा जाना चाहिए। ऐसे निवेश से नौकरियों का सृजन, प्रौद्योगिकी उन्नयन तथा आधारभूत सुविधाओं का विकास होगा।’’ संसद में विचाराधीन न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक की चर्चा करते हुए कानून मंत्री ने उस विवादास्पद उपबंध का बचाव किया जो खुली अदालतों में लोगों के खिलाफ मौखिक टिप्पणियां करने से न्यायाधीशों को रोकता है। पिछले साल दिसंबर में सरकार ने न्यायिक मानकों संबंधी विधेयक पर इस उपबंध को बरकरार रखने का निर्णय किया था। उन्होंने कहा कि सरकार नहीं बल्कि स्वयं न्यायाधीशों को तय करना होगा कि अदालत में की गयी टिप्पणी अनिवार्य थी या नहीं।
अश्विनी कुमार ने कहा, ‘‘अंतत: न्यायिक प्रणाली के भीतर उनके वरिष्ठ न्यायाधीशों को ही यह निर्णय करना पड़ेगा कि कोई विशेष व्यवस्था या टिप्पणी जरूरी थी या नहीं..किसी भी तरह से निर्णय करने के न्याय क्षेत्र के अधिकार में घुसपैठ की कोई भी मंशा नहीं है।’’ उन्होंने कहा कि प्रावधान के पीछे एक मजबूत तर्क है क्योंकि कई अवसरों पर देखा गया है कि न्यायाधीशों की टिप्पणियों को संदर्भ से हटा दिया जाता है। इससे उनके समक्ष पेश कारण को नुकसान पहुंचता है या उनके समक्ष पेश व्यक्ति की छवि प्रभावित होती है।
केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने न्यायिक मानक एवं जवाबदेही कानून में संशोधनों को मंजूरी दी है। यह विधेयक लोकसभा में पारित हो चुका है और राज्यसभा में विचाराधीन है। सूत्रों ने बताया कि सरकार ने विवादास्पद उपबंध को बरकरार रखते हुए कुछ बदलाव किये हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 की भावना के अनुरूप हो। इस अनुच्छेद के अनुसार कानून के समक्ष सब समान हैं।
इससे पूर्व के अनुबंध में न्यायाधीशों को किसी संवैधानिक या सांविधिक प्राधिकार या सांविधिक निकाय या सांविधिक संस्थान या किसी अध्यक्ष या किसी सदस्य या किसी अधिकारी के आचरण, किसी लंबित मामले अथवा न्यायिक निर्धारण के लिए उठने वाले संभावित मामलों में अवांछित टिप्पणी करने से रोका गया था। संशोधित उपबंध में न्यायाधीशों को किसी संवैधानिक निकाय या अन्य व्यक्तियों के खिलाफ अवांछित टिप्पणी करने से रोका गया है।
अश्विनी कुमार ने इस बात पर बल दिया कि सरकार कानून के जरिये यह स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहती है कि ‘‘न्यायिक प्रणाली में आत्म अनुशासन का तत्व निहित है। लिहाजा किसी को भी, उच्च न्यायपालिका के सभी सदस्यों सहित, कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए।’’ उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही कि क्या उपबंध से न्यायापालिका अप्रसन्न हो सकती है। यह विधेयक पिछले साल लोकसभा में बजट सत्र के दौरान तेलंगाना मुद्दे पर हंगामे के बीच पारित हुआ था।
प्रख्यात न्यायविदों एवं उच्च न्यायपालिका के कड़े विरोध के बाद सरकार ने उपबंध पर पुनर्विचार करने पर सहमति जतायी और उसे मानसून सत्र में राज्यसभा में पारित होने के लिए नहीं रखा गया। विधेयक में नागरिकों को अधिकार दिया गया है कि वे भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं। विधेयक के इस उपबंध की आलोचना हो रही है कि इसमें खुली अदालत में न्यायाधीशों के बोलने पर पाबंदी लग जायेगी। उच्च सदन में पारित होने के बाद इस विधेयक को फिर से लोकसभा में मंजूरी के लिए भेजा जायेगा। (एजेंसी)
First Published: Sunday, February 3, 2013, 19:36