ममोनी की लेखनी में है लोगों का दर्द - Zee News हिंदी

ममोनी की लेखनी में है लोगों का दर्द

गुवाहाटी : असम में तीन दशक लंबे विद्रोह की छाया के बीच साहित्यकार इंदिरा आर. गोस्वामी ने न सिर्फ हिंसा के मुद्दे को उठाने के लिए अपनी कलम को उठाया बल्कि प्रतिबंधित उल्फा को बातचीत की मेज पर लाने के पहल भी की।

 

ममोनी रेसोम गोस्वामी के उपनाम से लिखना पसंद करने वाली इंदिरा गोस्वामी ने अनेक उपन्यास लघु कथा संग्रह और अध्ययनशील लेख लिखे जिनमें विभिन्न पृष्ठभूमियों के लोगों का दर्द झलकता है, जिनके दुखों ने उन्हें उस आधारभूत गरिमा और सम्मान से वंचित कर दिया है जिसके वे हकदार हैं।

 

उन्होंने प्रतिबंधित उल्फा को आगे की वार्ता के लिए तैयार करने और 2003 में पीपुल्स कंसल्टेटिव ग्रुप (पीसीजी) की स्थापना तथा उन्हें सलाहकार के रूप में नियुक्त करने की पहल भी की थी। गोस्वामी के प्रयासों के भले ही तत्काल नतीजे नहीं निकले हों लेकिन इन्होंने उल्फा नेताओं और सरकार के बीच जारी वार्ता के लिए निश्चित तौर पर मार्ग प्रशस्त किया। ‘ममोनी बाइदू’ के नाम से प्रसिद्ध गोस्वामी का जन्म 14 नवम्बर 1942 को एक पारंपरिक वैष्णव परिवार में हुआ था जो दक्षिणी कामरूप के अमरंगा में एक ‘सत्र’ (मठ) का मालिक था।

 

मठ के परिवेश इसके अपरिवर्तित धार्मिक सिद्धांतों और समाज में व्याप्त बुराइयों दोनों ने युवा इंदिरा गोस्वामी के मन पर गहरा प्रभाव डाला जिसे बाद में उन्होंने अपनी रचनाओं खासकर एक नए प्रकार के अपने उपन्यास ‘दाताल हातिर उने खोवा होवदाह’ में अभिव्यक्त किया। इस किताब पर बाद में राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म ‘अदाज्य’ बनी जिसे आधुनिक असमी साहित्य का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। इसमें असमी ब्राह्मण विधवाओं के भाग्य और सत्ता एवं रीति रिवाजों के पाखंडी तथा पतित संरक्षकों द्वारा उनके शोषण को दर्शाया गया है ।

 

गोस्वामी को वर्ष 2000 में साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ से नवाजा गया। उन्हें असम साहित्य सभा पुरस्कार भी मिला और उनकी किताब ‘रामायण गंगा टू ब्रह्मपुत्र’ के लिए फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी ने अंतरराष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार से सम्मानित किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा शिलांग के पाइन माउंट स्कूल में हुई लेकिन बाद में असमी में शिक्षा ग्रहण करने और राज्य की संस्कृति एवं रीति रिवाजों के बारे में खुद की जानकारी बढ़ाने के लिए वह गुवाहाटी के तारिणी चरण गर्ल्स हाईस्कूल आ गईं।

 

बाद में उन्होंने कॉटन कॉलेज में असमी का अध्ययन किया और इसी विषय में गुवाहाटी यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। गोस्वामी ने 1962 में लघु कथाओं का अपना पहला संग्रह ‘चिनाकी मोरोम’ प्रकाशित किया। उस समय वह छात्रा थीं। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह एक युवा इंजीनियर माधवन रेसोम अयंगर के संपर्क में आईं। उन्होंने माधवन से शादी की और अपने पति के साथ जम्मू कश्मीर चली गईं। शादी के 18 महीने बाद ही उनके साथ उन्हें तोड़कर रख देने वाला हादसा हो गया और माधवन की एक कार दुर्घटना में मौत हो गई। गहरे अवसाद से पीड़ित इंदिरा असम लौट आईं और गोलपाड़ा सैनिक स्कूल में शिक्षिका के रूप में काम करने लगीं।

 

गोस्वामी अपने शिक्षक उपेंद्र चंद्र लेखारू से परामर्श के लिए वृंदावन गईं और रामायण काल के साहित्य पर शोध शुरू किया। यह वृंदावन ही था जहां उनकी सामाजिक चेतना को उनकी रचनाओं में अभिव्यक्ति मिली और वह एक प्रतिष्ठित लेखिका के रूप में उभरकर सामने आईं। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘नीलकंठ ब्रज’ में वृंदावन की विधवाओं के शोषण से संबंधित मुद्दे को उठाया गया जबकि ‘रामायण फ्रॉम गंगा टू ब्रह्मपुत्र’ को भी उन्होंने यहीं लिखा। गोस्वामी की बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में नियुक्ति हुई और वह असमी विभाग की प्रमुख बनीं।

 

उन्हें अनेक पुरस्कार मिले। 2002 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया। राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म निर्माता जानू बरुआ ने उनके जीवन पर ‘वर्डस फ्रॉम द मिस्ट’ नाम की फिल्म बनाई। गोस्वामी को ‘ममोर धोरा तारोवल’ के लिए 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में ‘अहिरोन’ ‘चेनाबर स्रोत’ ‘दसारिथर खोज’ ‘तेज आरू धूलिरे धुसारिता पृश्ता’ तथा ‘उदयभानूर चरित्र’ शामिल हैं। उनकी किताब ‘छिन्नमस्तार मानुहतो’ प्रसिद्ध कामख्या देवी में पशु बलि के खिलाफ थी जबकि ‘जात्रा’ असम में विद्रोह के मद्देनजर लिखी गई। ‘आधा लिखा दस्तावेज’ उनकी आत्मकथा है। (एजेंसी)

First Published: Tuesday, November 29, 2011, 13:36

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