Last Updated: Saturday, December 15, 2012, 13:50
नई दिल्ली : दिल्ली वासियों को ‘आखि़री मुशायरा’ में मिर्जा ग़ालिब, इब्राहिम ज़ौक़, मोमिन ख़ान मोमिन और बहादुर शाह ज़फर जैसी उर्दू शायरी की मशहूर हस्तियों के सुनहरे दौर को महसूस करने का मौक़ा मिलेगा। शहर के पाइरट समूह का यह नाटक ‘लाल किले के आखिरी मुशायरा’ का कल पहला मंचन होगा।
नाटक के निर्देशक एम सईद आलम कहते हैं, ‘यह नाटक उस्ताद इब्राहिम ज़ौक़, मिर्जा असदउल्लाह ख़ान ग़ालिब, हकीम मोमिन ख़ान मोमिन, बहादुर शाह ज़फर, मुफ्ती सदर-उद-दीन अज़ुरदाह, आग़ा जान ऐश, नवाब मुस्तफा ख़ान शेफ्ताह, बालमुकुंद हुज़ूर, मुंशी तिश्नाह, नवाब दाग, हाफिज़ गुलाम रसूल शौक़, हकीम सखानंद रक़ाम और कई अन्य हस्तियों के समय में उर्दू शायरी के सुनहरे दौर को पेश करता है।’
मुहम्मद हुसैन आज़ाद के ‘आब-ए-हयात’ और फरहत-उल्लाह बेग के ‘देहली की आखि़री शमा’ से प्रेरित डेढ़ घंटे के इस नाटक में ज़फर की भूमिका मशहूर अभिनेता टॉम आल्टर निभाएंगे। ज़ौक़ की भूमिका में आलम और ग़ालिब की भूमिका में हरीश छाबड़ा नज़र आएंगे।
आलम कहते हैं, ‘यह नाटक अंतिम मुगल बादशाह और प्रसिद्ध शायर बहादुर शाह ज़फर के शासन काल में लालकि़ले में हुए आखि़री मुशायरे का पुनर्निर्माण है। यह ऐतिहासिक घटना इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि यह उर्दू ज़ुबान के दिग्गज शायरों को एक साथ एक मंच पर ले आती है।’ उनके अनुसार इसी नाटक के ज़रिए दर्शकों को उच्च स्तर की शायरी का लुत्फ उठाने का मौक़ा मिलेगा। इनमें ग़ालिब का ‘इब्ने मरयम हुआ करे कोई’, ज़ौक का ‘लाई हयात आए, क़ज़ा ले चली चले’, मोमिन का ‘रंज राहत फज़ा नहीं होता’ और ज़फर का ‘या मुझे अफसर-ए शाहाना बनाया होता’ शामिल हैं।
आलम के अनुसार, यह नाटक आज़ादी की पहली लड़ाई से पहले की दिल्ली की जिंदगी को दर्शाता है। 1857 के बाद यहां का राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल पूरी तरह से बदल गया था। (एजेंसी)
First Published: Saturday, December 15, 2012, 13:50