Last Updated: Wednesday, June 13, 2012, 21:02

कराची: गजल सम्राट मेहदी हसन का आज कराची के आगा खान अस्पताल में निधन हो गया । वह 85 वर्ष के थे । फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे हसन को 30 मई को कराची के आगा खान अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था। उन्होंने आज 12 बजकर 22 मिनट पर अंतिम सांस ली।
उनके बेटे का कहना है कि हसन की आखिरी रस्म शुक्रवार को होगी। हसन के बेटे आरिफ मेहदी ने कराची से फोन पर बताया कि मेरे वालिद की आखिरी रस्म जुम्मे को कराची में होगी। उन्होंने कहा कि जगह अभी तय की जानी है।
आरिफ ने कहा कि हमने हुकूमत से कराची के कैद-ए-आजम मजार के पास अपने वालिद को सुपुर्द-ए-खाक करने की इजाजत मांगी है, हम मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं। आरिफ ने बताया कि सांस लेने में तकलीफ के बाद उनके पिता को एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां उनका निधन हो गया। उन्होंने दोपहर 12.15 बजे आखिरी सांस ली। उनके अंतिम क्षणों में सभी बच्चे उनके पास मौजूद थे।
हसन को पिछले महीने ही आगा खान अस्पताल से छुट्टी दी गई थी। वह एक दिन बाद ही दोबारा अस्पताल पहुंच गए थे लेकिन उन्हें वेंटीलेटर पर नहीं रखा गया था।
पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि तीन दिन पहले हसन के कई अंगों में संक्रमण हो गया था । उनके पेशाब में खून आने लगा था और एक के बाद एक अंगों ने काम करना बंद कर दिया था ।
पिछले कुछ साल से फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे हसन की हालत में पिछले दिनों सुधार आने लगा था और उन्हें इलाज के लिये भारत लाये जाने की भी कवायद चल रही थी । पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि राजस्थान स्थित उनके पैतृक घर की कुछ पुरानी तस्वीरें दो दिन पहले ही भारत से उन्हें भेजी गई थी ।
‘रंजिशें सही’, ‘जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं‘, ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा’ जैसी बेहतरीन गजलों को अपनी मखमली आवाज से नवाजने वाले हसन का जन्म भारत में हुआ था । राजस्थान के लूना में 18 जुलाई 1927 को जन्मे हसन को संगीत विरासत में मिला था । वह कलावंत घराने के 16वीं पीढी के फनकार थे । उन्होंने अपने पिता आजम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की तालीम ली जो ध्रुपद गायक थे ।
हसन ने बेहद कम उम्र से ही गाना शुरू कर दिया और आठ बरस की उम्र में पहला कार्यक्रम पेश किया । भारत के विभाजन के बाद वह पाकिस्तान चले गए थे ।
पाकिस्तान में शुरूआती दिनों में उन्होंने मैकेनिक का काम किया लेकिन कठिन दौर में भी संगीत का उनका जुनून बरकरार रहा । उन्हें 1957 में पहली बार रेडियो पाकिस्तान के लिये गाने का मौका मिला । उन्होंने शुरूआत ठुमरी गायक के रूप में की क्योंकि उस दौर में गजल गायन में उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर और मुख्तार बेगम का नाम चलता था । धीरे धीरे वह गजल की ओर मुड़े और उनके फन की काबिलियत थी कि उन्हें शहंशाह ए गजल कहा जाने लगा । गंभीर रूप से बीमार होने के बाद उन्होंने 80 के दशक के आखिर में गाना छोड़ दिया । (एजेंसी)
First Published: Wednesday, June 13, 2012, 21:02