Last Updated: Friday, November 15, 2013, 15:33
इस्लामाबाद : गूगल के ताजातरीन विज्ञापन में दो बुजुर्गों को दिखाया गया है जो विभाजन के बाद पहली बार मिल रहे हैं और पुरी प्रक्रिया चार मिनट से भी कम वक्त में पूरी हो जाती है। काश, हकीकत में भी यह इतना ही आसान होता।
सरहद की दोनों तरफ रहने वाले लोगों के लिए देश के नक्शे पर कागज पर खिंची लकीरें किसी पहाड़ से कम नहीं है जिसे पार करना सपना ही रह सकता है और इसके पीछे वीजा के कठिन कठोर नियम कायदे हैं जो दोनों देशों ने एक दूसरे पर लाद रखे हैं।
कहने को तो दोनों देश उदार वीजा कानून बनाकर और बुजुर्गों के लिए ‘पहुंचने पर वीजा’ जैसे प्रावधान कर इस दिशा में अनेक कदम उठा चुके हैं, लेकिन हकीकत बिल्कुल उलटी है। आम अवाम के लिए वीजा अब भी एक टेढ़ी खीर ही है।
अब, मिसाल के तौर पर 98 साल के सरदार मोहम्मद हबीब खान का ही मामला लें। खान पाकिस्तान सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी रह चुके हैं। पाक अधिकृत कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले खान वन अधिकारी के रूप में 1940 दशक में जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर और बारामुला में काम कर चुके हैं। वह इन शहरों की यात्रा के लिए तीन बार आवेदन कर चुके हैं। लेकिन वह कामयाब नहीं हो सके।
हसरत भरी निगाहों से आकाश को ताकते हुए खान कहते हैं, ‘देहरादून की यादें हैं क्योंकि यह वह जगह है जहां मैंने वन अधिकारी के रूप में ट्रेनिंग ली थी।’ इसपर खान के बेटे कहते हैं, ‘98 की इस उम्र में अब अब्बू के लिये सफर करना लगभग नामुमकिन है।’ हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले.. और ये ख्वाहिशें महज सरहद के इस पार ही नहीं हैं। ऐसे बेशुमार हिंदुस्तानी हैं जिनके दिल में अब भी कहीं ना कहीं यह हसरत दबी है कि काश एक मौका मिले और वह उस शहर को देख सकें जहां वह पैदा हुए हैं और जहां उन्होंने अपने बचपन के कुछ साल गुजारे हैं।
विशारदा धवल ऐसे ही एक शख्स हैं। वह कहते हैं, ‘मुझे यह विडंबना ही लगता है कि मैं पूरी दुनिया का सफर कर सकता हूं, लेकिन तब तक लाहौर नहीं जा सकता हूं जब तक कोई मेरी जमानत नहीं ले।’ विभाजन के वक्त भारत आए धवल के लहजे में तल्खी साफ झलकती थी। वह कहते हें, ‘मैं पाकिस्तान में किसी को नहीं जानता, लेकिन मैं वहां की यात्रा करना चाहता हूं।’ भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अशरफ जे. काजी ने आसान वीजा नियमों की जरूरत पर जोर दिया। (एजेंसी)
First Published: Friday, November 15, 2013, 15:33