Last Updated: Friday, March 7, 2014, 15:50
ज़ी मीडिया ब्यूरोनई दिल्ली: गुलाब गैंग एक वास्तविक घटना पर आधारित बनी फिल्म है जो एक्शन से भरपूर महिला प्रधान फिल्म है। फिल्म के बॉक्स ऑफिस पर चलने की कोई गारंटी तो नहीं है लेकिन जूही का असरदार किरदार यकीनन टकटकी बांधकर फिल्म देखने को विवश करता है। ‘गुलाब गैंग’ कई मिथकों को तोड़ती है। यह फिल्म संपत पाल के जीवन पर आधारित है जिन्होंने महिलाओं की खातिर गुलाब गैंग को बनाया था और अब वह फिल्म के रूप में पर्दे पर आई है।
फिल्म महिलाओं और लड़कियों को अपने हक के लिए लड़ने की प्रेरणा देती है। गुलाब गैंग सिर्फ महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के अलावा भी समाज में राजनीति और जनता के बीच चल रहे गंदे खेलों को भी बड़ी खूबी के सिनेपर्दे पर साथ पेश करती है।
महिला प्रधान इस फिल्म में नायिकाएं लाठियां, खंजर और भाले चलाती हैं और दुश्मनों को उठा कर पटकती हुई नजर हैं। निर्देशक सौमिक सेन ने फिल्म पर अपनी पकड़ भी बनाए रखी है। वह जो फिल्म के जरिए कहना चाहते थे उसमें काफी हद तक कामयाब रहे हैं।
फिल्म की कहानी कूछ यूं है। उत्तर भारत के एक गांव माधवपुर में रज्जो देवी (माधुरी दीक्षित) महिलाओं का आश्रम चलाती हैं। यहां महिलाएं गुलाबी साड़ियां बुनती हैं और यही पहनती हैं। यह ‘गुलाब गैंग’ है। गांव की महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ कमर कसती हैं और ईंट का जवाब पत्थर से देती हैं। आश्रम रज्जो देवी के सपनों की नर्सरी भी है। वह महिलाओं और बच्चियों को पैरों पर खड़ा करना चाहती हैं। गांव में स्कूल खोलना चाहती हैं। लेकिन ‘गुलाब गैंग’ के सामने भी बड़ी चुनौती है। गांव का नेता पवन शंकर और उसकी लीडर सुमित्रा देवी (जूही चावला)। सुमित्रा देवी चालाक है। रज्जो की लोकप्रियता सुमित्रा देवी को हिला देती है और फिर उसके बाद...।
माधुरी और जूही फिल्म की जान हैं। फिल्म के संवाद अच्छे हैं। जूही चावला ने भी गुलाब गैंग में एक राजनेता का किरदार निभाया है और उस किरदार में जान डाल दी है। दूसरी तरफ माधुरी दीक्षित ने रज्जो किरदार में जान डालने की पूरी कोशिश की लेकिन जूही उनसे अदाकारी के मामले में आगे निकल गई है। हालाकि माधुरी इस फिल्म में काफी खूबसूरत लगी है। गुलाब गैंग के सदस्यों के बीच फिल्म में दिखाई जाने वाली नोंक झोंक, मस्ती भरी बातों वाले कुछ दृष्य वाकई बहुत ही मनोरंजक हैं। फिल्म देखने लायक है। ऐसी फिल्मी कमर्शियल तौर पर भले ही सफल न हो लेकिन किसी खास मसले पर कोई सामाजिक संदेश देने के मामले में भारत में ऐसी फिल्में बहुत कम बनती है।
First Published: Friday, March 7, 2014, 14:29