Last Updated: Thursday, December 12, 2013, 23:57
ज़ी मीडिया ब्यूरोनई दिल्ली : सरकार और कांग्रेस ने गुरुवार को समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में लाने संबंधी उच्चतम न्यायालय के फैसले को जी भर कोसा और इशारा दिया कि इस फैसले को नकारने के लिए अध्यादेश सहित कई विकल्प हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट के चार साल पुराने फैसले को बदलते हुए उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिकता को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत एक बार फिर अपराध की श्रेणी में ला दिया। न्यायालय के कल के इस फैसले पर उपचारात्मक याचिका अथवा समीक्षा याचिका दायर करने पर भी विचार किया जा रहा है।
सरकार की उच्चतम न्यायालय के फैसले को नकारने के लिए तुरंत कोई नीति बनाने की उत्सुकता उस समय साफ तौर पर सामने आई जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने शीर्ष अदालत के फैसले पर निराशा जाहिर की। विधि मंत्री कपिल सिब्बल ने इस फैसले को लेकर उपजे विवाद के बीच यहां संवाददाताओं से कहा कि हमें कानून को बदलना होगा। यदि उच्चतम न्यायालय ने इस कानून को सही ठहराया है तो निश्चित रूप से हमें मजबूत कदम उठाने होंगे। बदलाव तेजी से करना होगा और कोई देरी नहीं की जा सकती। हम जल्द से जल्द बदलाव करने के लिए सभी उपलब्ध उपायों का इस्तेमाल करेंगे।
यह पूछे जाने पर कि क्या सरकार भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में संशोधन करने के लिए विधेयक लाएगी, सिब्बल ने कहा कि यह कि समय महत्वपूर्ण है। हमें वयस्कों के सहमतिपूर्ण संबंधों को अपराध की श्रेणी से निकालना होगा। सरकार के पास उपलब्ध उपायों के बारे में पूछे जाने पर सिब्बल ने कहा कि एक विकल्प तो यह है कि जल्द से जल्द इसे संसद में लाया जाए। एक अन्य विकल्प है कि कोई अन्य रास्ता निकालने के लिए उच्चतम न्यायालय से संपर्क किया जाए। हम वो रास्ता अपनाएंगे जो हमें जल्द परिणाम दे।
वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा कि उच्चतम न्यायालय का फैसला ‘गलत’ है और शीर्ष अदालत के फैसले को सही करने के लिए सभी विकल्पों को देखा जाएगा। फैसले को ‘निराशाजनक’ बताते हुए उन्होंने कहा कि अदालत को इस मामले में ‘मौजूदा सामाजिक और नैतिक मूल्यों का ध्यान रखना चाहिए था। उन्होंने कहा कि सरकार को इस मामले में समीक्षा या उपचारात्मक याचिका दाखिल करनी चाहिए और मामले की सुनवाई पांच सदस्यीय पीठ द्वारा की जानी चाहिए। चिदम्बरम ने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला बहुत सोचा समझा और शोध पर आधारित था, जिसे केंद्र सरकार ने स्वीकार करते हुए उसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती नहीं दी थी। उन्होंने साथ ही कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती नहीं देने का सरकार का फैसला उनकी पार्टी का भी विचार है।
चिदम्बरम ने कहा कि फैसला देने वाली पीठ को मामले को एक पांच सदस्यीय पीठ को सौंपना चाहिए था और कानून की व्याख्या में जड़ता नहीं होनी चाहिए। चिदम्बरम ने कहा कि आपने किया क्या कि आप 1860 के समय में चले गए और इसलिए मैं इससे बेहद परेशान हूं। उन्होंने कहा कि मौजूदा धारा 377 को 1860 में बनाया गया था और यह उस समय के समाज और नैतिक मूल्यों का परिचायक है और उस युग में मनोविज्ञान, मानव विज्ञान, जेनेटिक्स आदि का ज्ञान बहुत कम था।
चिदम्बरम ने कहा कि लेकिन आज वर्ष 2013 में मानवीय मनोविज्ञान, मानवीय मनोचिकित्सा और मानवीय जेनेटिक्स के बारे में इतनी अधिक जानकारी है कि यह आज के सामाजिक और नैतिक मूल्य हैं। यह फैसला पूरी तरह दकियानूसी है। यह पूछे जाने पर कि सरकार ने 16 दिसंबर की सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद बलात्कार कानूनों में संशोधन करते समय धारा 377 में संशोधन क्यों नहीं किया, चिदम्बरम ने कहा कि उच्च न्यायालय का धारा 377 के संबंध में फैसला केवल एक सीमित मायने में था। वित्त मंत्री ने कहा कि उन्होंने केवल वयस्कों और निजता में समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर किया था। और इसलिए धारा 377 में संशोधन की जरूरत नहीं थी।
उधर, चेन्नई में कोरपोरेट मामलों के केन्द्रीय मंत्री सचिन पायलट ने आज कहा कि अदालतों को समलैंगिक अधिकारों जैसे मामलों में व्यक्तियों की स्वतंत्रता और पसंद का सम्मान करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय के फैसले पर उनकी प्रतिक्रिया मांगे जाने पर पायलट ने कहा कि मुझे लगता है कि बहुत से लोगों ने इस बारे में अपनी राय जाहिर की है। मैं उन लोगों में हूं जो यह मानते हैं कि अदालतों को कानूनी मामलों पर फैसला देना चाहिए। और यह खास मामला, मुझे लगता है कि पसंद पर छोड़ देना चाहिए। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने समलैंगिकों के अधिकारों पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर चिंता जताई और उम्मीद जाहिर की कि सरकार इस मामले को सुलझाएगी। दिल्ली में यौन कर्मियों, उभयलिंगियों और इस क्षेत्र से जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत में कुरैशी ने कहा कि मैं भी उच्चतम न्यायालय के कल के फैसले से चिंतित हूं। गेंद अब सरकार के पाले में है। यह उनपर है कि इस मामले को विधायी तरीकों से सुलझाएं या किसी अन्य तरह से। उन्होंने कहा कि यह फैसला एलजीबीटी समुदाय के लिए एक झटके की तरह है क्योंकि उन्हें अचानक उस मंच से वंचित कर दिया गया, जहां वह अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में बता सकते थे।
इस बीच प्रमुख महिला अधिकार संगठनों ने भी सरकार से कहा है कि वह उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल कर फैसले की समीक्षा की मांग करे और साथ ही एलजीबीटी समुदाय की शिकायतें दूर करने के लिए विधायी कदम भी उठाए।
First Published: Thursday, December 12, 2013, 16:57