Last Updated: Sunday, March 23, 2014, 14:06
लखनऊ : गाजर की तरह दिखने वाले खरपतवार गाजरघास सिर्फ फसलों के लिए ही नहीं, बल्कि मनुष्यों एवं जानवरों के लिए भी नुकसानदेह है। शहरों में मुख्यत: खुले स्थानों, औद्योगिक क्षेत्रों, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारों, नालियों एवं पड़ती भूमि आदि जगहों पर यह बहुतायत मात्रा में पाए जाते हैं।
अब हालांकि गांवों में भी इसकी बढ़त देखने को मिल रही है। इस नुकसानदेह घास के कारण स्थानीय वनस्पतियां उग नहीं पातीं और तो और, यह पर्यावरण एवं जैव विविधता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। साथ ही मनुष्यों में त्वचा रोग, बुखार और दमा जैसी बीमारियां उत्पन्न करती हैं।
रिसर्च एसोसिएट शालिनी श्रीवास्तव बताती हैं कि पूरे भारतवर्ष में तकरीबन 3.5 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हुई इस घास को कांग्रेस घास, छंतक चांदनी, गंधी बूटी आदि नामों से पुकारा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम पारथेनियम हिस्टोफोरस है। वह बताती हैं कि यह एक ऐसा पौधा है जो हर मौसम में और किसी भी वातावरण में उग सकता है। उन्होंने कहा कि अब गांवों व खेतों में भी यह बहुतायत में पाया जाने लगा है। इसके कारण बोई गई फसल नहीं उग पाती। उन्होंने कहा कि इस वजह से इसका नियंत्रण काफी मुश्किल है। लेकिन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की मदद से इसे बीटल कीट द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।
बीटल कीट अपना जीवनचक्र 25 से 30 दिन में पूरा कर लेता है। जून से अक्टूबर माह में यह अधिक सक्रिय रहता है। यह गाजरघास की पत्तियों को बुरी तरह खा जाता है, जिससे पौधा पत्ती विहीन होकर मर जाता है। बीटल सिर्फ गाजरघास की पत्तियों को ही खाता है। जहां गाजरघास की समस्या अधिक हो वहां कम से कम 500 से 1000 तक वयस्क बीटल छोड़ने चाहिए। बीटल से मनुष्यों, पर्यावरण एवं अन्य फसलों पर कोई बुरा प्रभाव उत्पन्न नहीं होता। इसके आलावा सड़कों, कार्यालयों, फार्म हाउसों आदि के किनारे मेड़ बनाकर गेंदे को रोपने या उसके बीजों के छिड़काव से भी गाजरघास को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। (एजेंसी)
First Published: Sunday, March 23, 2014, 14:06