Last Updated: Monday, December 2, 2013, 21:20
भोपाल पर कहने के लिए
लिखने के लिए
कुछ बचा है क्या,
आंसू तो बहुत पहले लिखे गए
मौत गैरों ने लिखी
सपने अपनों ने जला दिए
और उम्मीदें चिंदी-चिंदी कर लुटा दी गईं
फिर लिखा क्या जाए।
राजनीति की गड्डमड्ड भाषा
उलझे हुए राहत के सुर
छाले देता ढांढस
क्या?
कहें किससे लिखें किसके लिए
और कौन लिखे,
वो जिनके अपने 29 साल पहले
एक रात में घुल गए।
सर्द जमी आंखों में ख्वाब लिए
या वो लिखें
जो उस रात मरे नहीं
पर जलते रहे उसी चिता में
कतरा-कतरा
या कि दफ्न हो गए
क्या लिखें?
कि हुक्मरानों ने बड़ी चालाकी से आंसू पोंछे
ये लिखें कि आज भी
सर्द चेहरा लिए कोई बच्चा
अपने बर्फ के हाथों से मिट्टी कुरेदता है
अपनी ठहरी सांसों को
जमीन की तहों में टटोलता है
क्या लिखें?
कि आज भी पानी जहर है
आज भी वो तेजाबी दिन
आंखों को झुलसाता है
आज भी मौत का वो सौदागर याद आता है
बहुत लिख लिया,
हमारे हिस्से में यही दर्द है
यही तस्वीरें हैं
जिसमें नश्तर सी यादें हैं
तेजाब के छीटें हैं।
राकेश पाठकप्रोड्यूसर, ज़ी मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़
First Published: Monday, December 2, 2013, 21:20