Last Updated: Saturday, May 17, 2014, 16:27
अम्बुजेश कुमारकहते हैं कि किस्मत भी उसी का साथ देती है जो अपनी मदद खुद करता है, संघ और बीजेपी के साथ भी यही फैक्टर काम करता दिख रहा है। अपनी स्थापना के बाद बीजेपी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला है। इतना ही नहीं 30 साल बाद किसी गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला है। यकीनन यह सबकुछ एक दिन में नहीं हुआ बल्कि इसके पीछे हैं कड़ी मेहनत, संगठन का ढांचा और सबसे बेहतर प्रचार अभियान, और समझना मुश्किल नहीं कि इसके पीछे सिर्फ संघ है। वह संघ जिसने लम्बी खामोशी के बाद पलटवार किया, तो सारे समीकरण बिगाड़ दिए।
देश में नई सरकार की तस्वीर साफ हो चुकी है और पहली बार ऐसा हुआ है जब गैरकांग्रेसी गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला है। यह इतिहास अगर बना है तो इसके पीछे बड़ा श्रेय खुद नरेन्द्र मोदी को जाता है। कहने वाले यह कह सकते हैं कि महंगाई, भ्रष्टाचार से त्रस्त अवाम के गुस्से को मोदी ने हवा दे दी और जीत का रास्ता तय कर लिया लेकिन हकीकत ये नहीं बल्कि कुछ और है। यह हकीकत हिन्दुस्तान के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता से होकर आई है। इस हकीकत को समझने में बीजेपी के थिंक टैंक यानी संघ ने कई दशकों का दौर बिता दिया। इस हकीकत को समझने के बाद उसे अमलीजामा पहनाना इतना आसान नहीं था। अब मुश्किल खत्म हो चुकी हैं और संघ का एजेंडा कामयाब हो चुका है।
सवाल यह कि आखिर संघ का एजेंडा है क्या? आखिर संघ जो कि खुद को सांस्कृतिक संगठन कहता है, वह सियासत की चर्चा के केन्द्र में कैसे आ गया? तो इसका जवाब तलाशने के लिए लगभग ढाई दशक पीछे लौटना होगा। याद करना होगा उस सांस्कृतिक चेतना के नाम पर उपजी लहर के दौर को, जिसे राममंदिर आंदोलन के तौर पर जाना गया। ये दौर असल में दोहरी राजनीतिक चेतना का दौर था। जिसकी एक पटरी पर अगर राममंदिर यानी कमंडल का आंदोलन था तो दूसरी पटरी पर मंडल यानी सोशल इंजीनियरिंग का दौर, दोनों ही समानान्तर चाल से चले और तत्कालीन तौर पर दोनों ही फेल हुए। लेकिन इनका दूरगामी असर देखने को मिला। मंडल से अगर देश में क्षेत्रीय क्षत्रपों के वर्चस्व का दौर शुरू हुआ तो कमंडल से सियासत की एक ऐसी धारा का जिसके साथ बस कमी थी तो मंडल के दौर से उपजे भावनात्मक चेतना को जोड़ने की। जिसकी कोशिशें शुरू तो तभी हो गईं असर अभी दिखा है।
दरअसल, बीजेपी की सफलता संघ की उस सतत कोशिशों का नतीजा है जो सांस्कृतिक आवरण से कब राजनीतिक लहर में तब्दील हो गई विरोधियों को पता भी नहीं चला। संघ की अपनी संस्कृति के अपने अनुशासन में जातिगत उपनाम लगाने की परम्परा नहीं रही है। संघ ने अपने इस आंतरिक अनुशासन को देश के जनमानस में टटोलने की कोशिश की, और इसके लिए वनवासी कल्याण संघ, स्वदेशी जागरण मंच, आदिवासी कल्याण मंच, विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों को लगाया। जिनके जिम्मे अलग-अलग काम था। 1999 में एनडीए की सरकार के दौरान संघ को अटल प्रभाव के आगे अपने जिन तमाम एजेंडों से पीछे हटना पड़ा था, दरअसल संघ ने उसे ही अपना हथियार बना लिया। नरम हिन्दुत्व और सोशल इंजीनियरिंग का कॉकटेल। अब राममंदिर का मुद्दा अनिवार्य नहीं रहा था, अब धारा 370 के मुद्दे पर कोई अड़ता नहीं था और समान नागरिक संहिता का मुद्दा भविष्य के गर्भ में छोड़ दिया गया था।
संघ की तैयारी दरअसल उस समाज को जोड़ने की थी जो मंडल युग के प्रभाव में आकर क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ चला गया था। संघ का थिंक टैंक जानता था कि पिछड़ों, दलितों को साथ जोड़े बगैर दिल्ली का सपना पूरा नहीं होगा। क्योंकि यही किसी जमाने में कांग्रेस की ताकत रहे थे और ये जब क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ जुड़ने लगे तो कांग्रेस भी कमजोर हुई और बीजेपी भी। सोशल इंजीनियरिंग की इस बिसात को बिछाने के लिए संघ ने बड़े करीने से तैयारी की। पहले संगठन और सरकार के अहम पदों पर पिछड़ी जाति के लोगों को बिठाया और गुजरात के दरवाजे एक बड़ा विकल्प तैयार करना शुरू किया।
मोदी की नेतृत्व क्षमता और सांगठनिक क्षमता के साथ-साथ उनका पिछड़े वर्ग से होना एक बड़ी यूएसपी थी लिहाजा संघ ने अपनी तैयारी पूरी करने के बाद सीधे बीजेपी में दखल शुरू की। पहले महाराष्ट्र के लो प्रोफाइल नेता नितिन गडकरी को बीजेपी का अध्यक्ष बनाकर लिटमस टेस्ट किया और आखिर में अपना वीटो पावर इस्तेमाल करते हुए मोदी को आगे कर दिया। जाहिर है संघ का दांव कामयाब रहा, हिन्दुत्व, विकास और सोशल इंजीनियरिंग की तिकड़ी ने एक ऐसा चक्रव्यूह बनाया कि समूचा विपक्ष धराशाई हो गया, और नतीजा सामने है।
First Published: Saturday, May 17, 2014, 16:27