Last Updated: Monday, January 27, 2014, 22:43
वासिंद्र मिश्रसंपादक, ज़ी रीजनल चैनल्सनरेंद्र मोदी के शब्दों में कभी भावनाओं की आंधी होती है, कभी मुद्दों को धार देते हैं, कभी उनका अंदाज़ मखौल उड़ाने वाला होता है तो कभी उनकी बातों में देश बदलने का नजरिया होता है।
विरोधी हो, समर्थक हो या फिर तटस्थ सियासत के इस नए करिश्मे को नजरअंदाज करना अब किसी के लिए मुमकिन नहीं। गुजरात के दायरे कब के छोटे पड़ चुके हैं। जम्मू हो या गोरखपुर, भोपाल हो या हैदराबाद। ना तो भीड़ कम पड़ी और ना ही जोश। अतीत में ऐसी कितनी शख्सियतें हुई हैं जो पार्टी की ब्रांडिंग का मोहताज नहीं रहीं। 2014 में अपना जादू बिखेरने को बेताब ये शख्सियत भी उसी सिलसिले का हिस्सा है। वो सिलसिला जो पंडित नेहरू की माई ट्रस्ट विद डेस्टिनी के जुमले की ब्रांडेड एडिशन जैसा ही लगता है। हर एक हाव भाव विरोधियों के सीने छलनी कर देता है। मंचों से ली गई एक-एक चुटकी विरोधी खेमे में खलबली मचा देती है। अब तो चाय की चुस्की भी नमो ब्रांड तक पहुंच गई है।
नरेन्द्र मोदी, जिनके बीजेपी के पीएम उम्मीदवार तक पहुंचने का सफर ही विरोधों की बुनियाद पर रखा गया। पार्टी के भीतर विरोध, पार्टी के बाहर विरोध, मीडिया में विरोध, समाज के एक खास तबके में विरोध, और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर विरोध के बावजूद इसके उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है। ब्रिटेन वीजा नहीं देता लेकिन ब्रिटेन के सांसदों का प्रतिनिधिमंडल गुजरात की मेहमानवाजी से इनकार नहीं कर पाता। अमेरिका वीजा नहीं देता लेकिन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए मोदी की धमक वहां तक पहुंच जाती है।
नए गैजेट्स का इस्तेमाल कैसे किया जाए, कहां किया जाए और किस वक्त किया जाए, शायद मोदी से बेहतर कोई नहीं जानता। यू ट्यूब, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, थ्रीडी टेक्नोलॉजी, सोशल साइट्स, इन सबका राजनीतिक इस्तेमाल जिस तरह मोदी ने किया है वो अभी भी कितनों के लिए एक पहेली है।

देश की सियासत में ऐसे कई मौके आए हैं जब लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुंचने वाली शख्सियतों का नेतृत्व सामने आया है। फिर चाहे महात्मा गांधी हों, पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या फिर अटल बिहारी वाजपेयी, जिनके शिखर पर पहुंचने की वजह चाहे अलग-अलग हो लेकिन शिखर पर टिकने की कूबत भी अपने आप में एक करिश्मा ही है। ये शख्सियतें दलीय पहचान की मोहताज कभी नहीं रहीं, बल्कि इनके व्यक्तित्व से दलीय पहचान को ही श्रेष्ठता मिली।
पंडित जवाहरलाल नेहरूभाषा पर नियन्त्रण और भाषा की जादूगरी ने पंडित नेहरू को सियासत का मैजिकमैन बना दिया। बेहतरीन अंग्रेजी और शानदार उर्दू मिश्रित हिन्दी के जुमले जब-जब मंचीय संबोधन का हिस्सा बने, अवाम झूम उठी।
महात्मा गांधीदुबली पतली काया वाले इस करिश्माई नेता को दुनिया का बेहतरीन कम्युनिकेटर माना गया। उनके हर एक्शन में एक मैसेज होता था। उनके हाव भाव, उनका पहनावा उनका अंदाज सबमें एक संदेश था। एक ऐसा संदेश जिसे समझकर लाखों लोग बिना कुछ सोच समझे स़ड़कों पर उतर आते थे।
इंदिरा गांधी
ऑयरन लेडी इंदिरा गांधी की भाषा और पहनावा दोनों में ही मास अपील नजर आती थी। जैसा देश वैसा भेष, जिस राज्य में इंदिरा जी हों वहां के हिसाब से उनका पहनावा होता था। जिससे लोग जुड़ते चले जाते थे।
राजीव गांधीइंदिरा गांधी के निधन के बाद अचानक ही सियासी तस्वीर पर उभरे राजीव गांधी की मासूमियत ही अपने आप में लोगों को खींचने के लिए काफी थी, सीधे साधे शब्दों में अपनी बात कहने की कला राजीव गांधी ने सिखाई।
अटल बिहारी वाजपेयीभारत के संसदीय इतिहास में अटल जी खुद अपने आप में एक नए राजनैतिक अध्याय की कहानी हैं। सार्वजनिक जीवन में लंबे वक्त तक विपक्ष की राजनीति करने वाले अटल जी पहले स्वंयसेवक, फिर पत्रकार और फिर राजनीतिज्ञ। प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने वाले अटल जी की सहजता और काव्यात्मक भाषा लोगों को अपनी ओर खींच लेती थी। अटल जी उन गिने चुने नेताओं में हैं जिनकी तारीफ उनके विरोधी भी करते हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने व्यक्तित्व में संयम बनाकर चलने की कला ने अटल जी को खास बनाया और सियासत के लिए एक करिश्मा। यूं तो राजनीति करिश्मा नहीं होती लेकिन राजनीति का तरीका किसी करिश्मे से कम भी नहीं होता, हमारे लोकतन्त्र का इतिहास बताता है कि जब भी देश में राजनीतिक शख्सियत के करिश्मे का दौर चला है तब तब एक बड़े बदलाव की नींव रखी गई है। मौजूदा दौर भी कुछ ऐसे ही बदलावों के दायरे में नजर आ रहा है।
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First Published: Monday, January 27, 2014, 22:32