सच की कीमत कब तक चुकाएं

सच की कीमत कब तक चुकाएं

पत्रकारिता एक मिशन है और इस मिशन में मुश्किलें भी आती हैं। ये मुश्किले कई तरह की हो सकती हैं, कानूनी, मानसिक या फिर शारीरिक। ऐसे कितने ही मौके आए हैं जब खबर लिखने की कीमत पत्रकारों को जान देकर चुकानी पड़ी है। हैरानी की बात ये है कि बीते कुछ सालों में इसमें तेजी से इजाफा हुआ है। मीडिया मामलों की बेवसाइट द हूट की मानें तो सिर्फ 2013 में 19 पत्रकारों पर जानलेवा हमले किए गए।

अब सवाल ये कि आखिर मीडिया पर निशाना साधकर आवाज दबाने की कोशिश क्या फासीवादी मानसिकता को उजागर नहीं करती है। सत्ता और रसूख का बड़ा करीबी रिश्ता है। सत्ता के साथ रसूख खुद ब खुद आ जाता है तो वहीं अगर रसूख है तो सत्ता हमेशा मनमुताबिक रहती है। इस गठजोड़ की कीमत पर लोकतन्त्र कई बार लहूलुहान हुआ है और इसके जिम्मेदार वो लोग भी रहे हैं जो खुद को लोकतन्त्र का रक्षक बताते हैं। मीडिया मामलों की एक बेवसाइट की रिपोर्ट बताती है कि साल 2013 में भारत में 19 पत्रकारों पर जानलेवा हमले किए गए जिसमें से 4 हमले राजनीतिक दलों की ओर से किए गए। इन हमलों में 8 पत्रकार कवरेज के दौरान मारे गए।

अपने पेशे को निभाने में हुई ये मौतें सिर्फ एक हादसा या वारदात भर नहीं है बल्कि एक बदनुमा दाग हैं उन दावों पर जिनमें लोकतन्त्र की कसमे खाने वाले गला फाड़ फाड़ कर इसकी रक्षा करने का भरोसा देते हैं। एक शर्म हैं ऐसी व्यवस्था के लिए जिसमें सच कहना गुनाह हो जाता है। अब सवाल ये कि आखिर ये हालात क्यों पैदा हुए तो दरअसल इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है वो उदाहरण जो सियासत और सियासतदानों ने सामने रखी है। सरकारों और तन्त्र की पारदर्शिता की वकालत करने वाला पेशा अगर हिंसा का शिकार हो रहा है तो इसके लिए जिम्मेदारी उस सामाजिक सोच की है जो आज तक सामंती मानसिकता से ऊपर नहीं उठ पाया है। भले ही वो कितनी भी दलीलें दे कि उसका संघर्ष विचारधारा का है।

ज्यादा वक्त नहीं हुए जब दिसंबर 2013 में बीजापुर के पत्रकार साई रेड्डी की माओवादियों ने हत्या कर दी। आरोप लगाया कि साई रेड्डी पुलिस के मुखबिर हैं। इस मामले जब पत्रकारों ने एकजुट होकर पदयात्रा निकाली और विरोध प्रदर्शन किया तो नक्सलियों की ओर से माफी मांगी गई और साई रेड्डी की हत्या को गलती करार दिया गया।

साई रेड्डी की हत्या, विचारधारा की थोथी दलीलों के नाम पर सशस्त्र क्रांति करने का दावा करने वाले नक्सलियों का असली चेहरा सामने लाती है लेकिन यहां स्थिति थोड़ी अलग है। यहां तो व्यवस्था को ना मानने वालों ने ऐसी वारदात को अंजाम दिया। ये वो लोग हैं जिनकी विचारधारा कबकी गर्त में जा चुकी है और अब उन्हें ये पता ही नहीं है कि आखिर वो लड़ाई किसके लिए, किससे और क्यों लड़ रहे हैं। बस लड़े जा रहे हैं। खैर इन्हें मुख्यधारा से बाहर माना जाता है लेकिन उन्हें भी उनकी करतूतों का जवाब मिलना चाहिए जो व्यवस्था का हिस्सा रहते हुए ऐसी घटनाओं को अंजाम दे देते हैं।

7 मई 2007 तमिलनाडु में हुई घटना इसका उदाहरण है जब तमिलनाडु के एक दैनिक अखबार पर डीएमके के एक गुट ने हमला बोल दिया था। ये हमला अखबार में छपे एक चुनावी ओपिनियन पोल के विरोध में हुआ। इस हमले में अखबार के तीन कर्मचारी कम्प्टूयर इंजीनियर एम विनोद कुमार, जी गोपीनाथ और एक सिक्योरिटी गार्ड मारे गए। बाद में इस मामले में 12 लोगों की गिरफ्तारी हुई।

इन दोनों मामलों में हत्याओं की वजह सिर्फ ये रही कि ये लोग पत्रकार थे या पत्रकारिता के पेशे से जुड़े थे और अलग अलग वजहों से निशाने पर आ गए लेकिन बात इतनी भर ही नहीं है।

एक उदाहरण उत्तर प्रदेश के इटावा का है। घटना 23 अगस्त 2013 की है। जब यहां के दैनिक अखबार के पत्रकार राकेश शर्मा की अज्ञात हमलावरों ने बकेवर कस्बे में गोली मारकर हत्या कर दी। तफ्तीश शुरु हुई तो पता चला कि यहां के जुआ माफिया के खिलाफ लगातार खबरें लिखने के चलते राकेश शर्मा उनके निशाने पर थे। यानी सत्ता असंतुष्ट हो तो निशाने पर मीडिया, सियासत नाराज हो तो निशाने पर मीडिया, सिस्टम को मानने वाले हो या फिर ना मानने वाले सबके निशाने पर मीडिया। सवाल यही है कि फिर मीडिया कैसे काम करे। सच की कीमत कब तक चुकाए, आलोचना को ना मानने वाली सोच से कैसे निपटे और इन तमाम चुनौतियों से जूझते हुए अपनी कलम को धार कैसे दे। क्या वाकई हमारा दायरा इतना तंग हो चुका है और क्या इसके लिए कोई उपाय नहीं बचा है?

(ज़ी मीडिया/अम्बुजेश कुमार)

First Published: Wednesday, April 9, 2014, 13:21

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