
निर्वाचन प्रणाली में सुधार को लेकर विरोध और उदासीनता की स्थिति से देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी भी हैरान और परेशान हैं। कुरैशी का कहना है कि इलेक्शन रिफॉर्म्स के सुझाव पर एक्शन नहीं होता। सरकार से एक ही जवाब मिलता है कि आम सहमति नहीं बन पा रही है। चिंता की बात यह है कि इससे जनता की निगाह में नेताओं की इमेज निरंतर खराब होती जा रही है।
सियासत की बात में ज़ी रीजनल चैनल्स के संपादक
वासिंद्र मिश्र ने
एसवाई कुरैशी से चुनाव सुधार के तमाम पहलुओं पर लंबी बातचीत की। पेश हैं इसके कुछ महत्वपूर्ण अंश—
वासिंद्र मिश्र : एसवाई कुरैशी साहब देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे हैं और आज हम उनसे जानने की कोशिश कर रहे हैं कि निर्वाचन प्रणाली में किस तरह के सुधार की आवश्यकता है। देश के पांच राज्यों में जो चुनाव चल रहे हैं उसमें फ्री और फेयर इलेक्शन संपन्न हों उसके क्या और सावधानियां बरतनी चाहिए। समय-समय पर आवाजें उठती रही हैं कि जो मौजूदा चुनाव प्रणाली है जो पीपुल रिप्रजेंटेशन एक्ट है उसमें बदलाव की बहुत आवश्यकता है तो बदलाव क्यों नहीं हो पा रहा है। कुरैशी साहब बहुत बहुत स्वागत है आपका। आखिर क्या वजह है इतनी कोशिशों के बाद भी आज तक बदलाव नहीं हो पाया, परेशानी कहां है?
एसवाई कुरैशी : देखिए हमें भी ये हैरानी होती है कि इतना विरोध, इतनी उदासीनता क्यों है, 20 साल से इलेक्शन रिफॉर्म्स के लिए जो हमारे सुझाव हैं, पहले से दिए गए प्रपोजल्स भी हैं, हर साल दो साल में कुछ न कुछ नए प्रपोजल्स आते हैं, हम सरकार को लिख-लिख कर थक गए हैं, लेकिन उस पर कुछ एक्शन नहीं होता, एक ही जवाब मिलता है कि आम सहमति नहीं बन पा रही इसकी वजह से चुनाव सुधार में देरी होती जा रही है, लेकिन इस दौरान आप देखेंगे कि जनता की निगाह में नेताओं की इमेज बड़ी खराब होती जा रही है। ये देश की डेमोक्रेसी के लिए अच्छी चीज नहीं है। अब तक हमारे 25 प्रपोजल्स पेंडिंग हैं इनमें से 2 काफी Important हैं, पहला मसला है क्रिमिनल्स इन पॉलिटिक्स का, इन्हें कैसे राजनीति से दूर रखा जाए, दूसरा है पॉलिटिकल फंडिंग की ट्रांसपेरेंसी। मतलब ये कि सबको पता हो कि राजनीतिक पार्टियों के पास पैसा कहां से आया, किस तरह खर्च हो रहा है। ताकि किसी किस्म का पीछे से कोई लेन देन ना हो। हमारा कहना है कि रेप, डकैती, मर्डर, किडनैपिंग जैसे गंभीर अपराध करने वाले जिसके लिए पांच साल से ज्यादा की सजा होती हो, उन्हें आप इलेक्शन लड़ने से रोकिए। इस पर जवाब ये आता है कि साहब ये तो कानून के खिलाफ होगा, जब तक कोई दोषी करार नहीं दिया जाता तब तक वो इनोसेंट है। हम कहते हैं कि इनोसेंट तो 2 लाख 68 हजार वो लोग भी हैं जो आज जेलों में हैं। 4 लाख में से 2 लाख 68 हजार हिंदुस्तान की जेलों में मौजूद लोग आज तक दोषी करार नहीं दिए गए। हमने इसके लिए तीन सेफगार्ड्स का सुझाव दिया, हम ने ही नहीं लॉ कमीशन ने भी। पहला छोटे-मोटे अपराध छोड़ दीजिए, गंभीर अपराध करने वालों को रोकिए, दूसरा ये कि केस इलेक्शन से कम से कम 6 महीने पहले फाइल हो गया हो, तीसरा अदालत ने उनके खिलाफ चार्जेज फ्रेम कर लिए हों। अब अदालत तो इंडिपेंडेंट अथॉरिटी है। अगर उन्होंने माइंड बना लिया और ये कहा कि ये चार्जेज बनते हैं, शुरुआत ही सही तो उस हालत में अपराधियों को चुनाव लड़ने से वंचित कर देना चाहिए। इन सबको लागू करने को लेकर जो सुस्ती हो रही है वो नुकसानदेह है।
वासिंद्र मिश्र : इलेक्शन भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा जरिया है, चुनाव के दौरान तमाम तरह के अवैध पैसों का लोग चुनाव में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन साथ में महंगाई को देखते हुए ये भी आलोचना होती रहती है कि खर्च की लिमिट बढ़ाई जानी चाहिए, अगर आप उस भ्रष्टाचार को रोकना चाहते हैं कि कालेधन का प्रयोग ना हो तो आपको एक रैशनल तरीके से सोचना पड़ेगा, एक तालमेल बनाकर चलना पड़ेगा, इस पर आपका क्या नज़रिया है?
एसवाई कुरैशी : अब आपने बिल्कुल वही कहा है जो मैंने कहा था। ये ठीक है कि इलेक्शन करप्शन का सबसे बड़ा सोर्स बन चुका है। ऐसा कहने के पीछे मेरा मतलब ये था कि इलेक्शन में जितना पैसा खर्च होता है, लोग पांच-पांच, दस-दस करोड़ रुपए खर्च करते हैं, अब 10 करोड़ रूपये खर्च करके जो आदमी जीत के आता है, वो आते ही अपने अफसरों को बुलाएगा कि इलेक्शन में मेरे 10 करोड़ खर्च हो गए या 15 हो गए मुझे आप मंथली पैसा देना शुरू कर दो, मुझे पैसे लौटाने हैं, अब पॉलिटिशियन और ब्यूरोक्रैसी में सांठ-गांठ हो गई है, पॉलिटिशियन ने करप्शन की इज़ाजत दे दी बल्कि इन्वाइट कर लिया कि मुझे पैसे चाहिए, ऐसे में अफसर को मौका मिल जाता है भ्रष्टाचार का, इसीलिए ज़रूरी है कि इलेक्शन में पैसे के खर्च की रोकथाम की जाए। यही वजह है कि कानून ने एक लिमिट तय की है, वरना कानून कहता कि जितना भी पैसा खर्च करना है कर लो, ताकि एक ही स्तर पर मुकाबला हो दूसरा अगर ज्यादा धन जुटाने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल होगा तो नेता फिर किसी ना किसी से तो पैसा लेंगे, किसी क्रिमिनल से लेंगे, कोई पैसा मुफ्त में तो मिलेगा नहीं, वो अगर आपको पैसा देगा तो वो बाद में फायदा उठाएगा, इसीलिए कानूनी तौर पर एक खर्च की एक लिमिट तय की गई है। आपने जो दूसरा इश्यू उठाया है कि लिमिट कितनी होनी चाहिए, इस पर बहस होती रहती है और होनी चाहिए। एक तो इसका निर्धारण इलेक्शन कमीशन नहीं करती, ये मिनिस्ट्री तय करती है, सरकार करती है । पिछली बार हमारे सुझाव पर इन्होंने लिमिट 10 लाख से बढ़ाकर 16 लाख कर दी थी विधानसभा के लिए और पार्लियामेंट के लिए 25 से बढ़ाकर 40 लाख। कई पार्टीज़ को इस पर भी ऐतराज होता है कि लिमिट क्यों बढ़ाई गई, लेफ्ट पार्टीज़ खासतौर पर कहती हैं कि इससे नुकसान होता है, इससे तो सिर्फ अमीर लोग ही चुनाव लड़ पाएंगे, इसलिए लिमिट तय करने का कोई साइंटीफिक फिगर नहीं है, इसलिए ये याद रखिए जितनी हायर लिमिट होगी उतना ही अमीर आदमी इलेक्शन लड़ पाएगा और गरीब आदमी इलेक्शन नहीं लड़ पाएगा, ये हमारी दुविधा है।
वासिंद्र मिश्र : पिछले चुनाव में पेड न्यूज को लेकर बहुत सख्त विचार थे, उस पर आपने तमाम तरह की कार्रवाई भी करने की कोशिश की थी, फिर चुनाव हो रहा है, जगह जगह से खबरें आने लगीं हैं कि पेड न्यूज चल रहा है, कुछ लोग कह रहे हैं कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग हो रहा है, तो इसको किस तरह से रेग्युलेट किया जा सकता है ।
एसवाई कुरैशी : देखिए आपने दो महत्वपूर्ण बातें कहीं, एक तो पेड न्यूज, पेड न्यूज हमारे लिए, देश के लिए एक कलंक है, बहुत खतरनाक हालात हैं, डेमोक्रेसी में मीडिया का बहुत बड़ा रोल है, इसको तो फोर्थ पिलर ऑफ डिमोक्रेसी कहते है, अगर वो पिलर ही ढीला हो जाए या यूं कहें कि नुकसान पहुंचाने लगे, पैसे लेकर खबरें दिखाने लगे, ये जनता के साथ विश्वासघात है । इसके खिलाफ हमने अभियान चलाया था और करीब दो-ढाई हजार के करीब नोटिस भी दिए और मजे की बात ये है कि ज्यादातर लोगों ने उसको एडमिट किया, उन लोगों ने ये भी माना कि उन्होंने उस पेड न्यूज़ का खर्चा अपने खाते में नहीं दिखाया था और नोटिस के बाद उसे अपने खाते में दिखाया। ये मामला केवल एकाउंटिंग में दिखाने का या खाते में दिखाने का मामला ही नहीं था, धोखेबाजी का था। फ्री एंड फेयर इलेक्शन के साथ ये धोखेबाजी है, रूकावट है, ये अन फेयर प्रैक्टिस है तो इसे रोका जाना जरूरी है। दूसरी चीज, आपने सोशल मीडिया की बात कही, सोशल मीडिया की इंपोर्टेंस दो कंटेक्स्ट में है, एक तो इस पर होने वाला खर्च, जिसकी हम अभी बात कर रहे थे, एसएमएस भी सोशल मीडिया में गिना जाता है, बाकी ट्विटर है, फेसबुक है, यू-ट्यूब वगैरह, सोशल मीडिया भी तो मीडिया ही है। इसलिए इस पर आप खर्च करते हैं तो इस खर्चे को भी एकाउंट में दिखाइए। इस पर इलेक्शन कमीशन ने जब ऑर्डर दिया तो उसपर बड़ा जनता में एक रोष शुरू हो गया कि साहब इलेक्शन कमीशन सेंसरशिप करने जा रही है। ये बिल्कुल गलत धारणा है, आम लोगों से इलेक्शन कमीशन का इसमें कोई लेना-देना ही नहीं था, ये तो उनका रिट चलता है सिर्फ पॉलिटिकल पार्टीज पर, कैंडिडेट पर, पॉलिटिकल पार्टीज और कैंडिडेट को अगर ये कहा जाता है कि वो मीडिया पर, सोशल मीडिया पर जो खर्चा करते हैं उसको अकाउंट में दिखाएं तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । दूसरा इसमें मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट है कि किसी भी पॉलिटिकल पार्टी का कैंडिडेट हेट स्पीच, किसी को भड़काने की बात, किसी मजहब के नाम पर, जाति के नाम पर अपील करने लग जाएं, तो इसकी इजाज़त नहीं है, ये भी एक अजीब बात है कि कि अगर अखबार में, टीवी चैनल में, पब्लिक प्लेस पर गाली दूं तो आप कानूनी कार्रवाई करेंगे, मगर सोशल मीडिया पर मैं जरूर गाली दे सकता हूं आपको, इसका क्या मतलब है ? कानून तो सब पर लागू होता है। इसलिए सोशल मीडिया पर कंट्रोल जरूरी है कि कोई भी नेता, कोई पॉलिटिकल पार्टी भड़काने वाली बातें नहीं करेगी, पर्सनल अटैक नहीं करेगी तो ये तो राजनीति को साफ सुथरा करने के लिए, और इलेक्शन को साफ सुथरा करने के लिए है।
वासिंद्र मिश्र : जो मौजूदा कानून है उसमें किसी फुलप्रूफ एक्शन का प्रावधान नहीं है । खास तौर से सोशल मीडिया को लेकर साइबर क्राइम के तहत मुकदमे दर्ज होते हैं, लेकिन अपराधी तुरंत छूट भी जाते हैं । हाल के दिनों में देश की जनता को दो तरह का आंदोलन देखने को मिला है, एक अन्ना हजारे का आंदोलन था, जिसके बारे में बाद में पता चला कि वो पूरी तरह प्रायोजित था, पेड था । उस आंदोलन के कर्णधार लोगों ने एजेंसीज हायर कीं थीं, बकायदा पैसे देकर मैसेजेज डाले जाते थे । आम नागरिक शुरू में इसे समझ नहीं पाया, आंदोलन जब खत्म हुआ तब पता चला । दूसरा, अब बीजेपी की तरफ से कैंपेन चल रहा ह, उनके प्राइमिनिस्ट्रीयल कैंडिडेट नरेंद्र मोदी जी की तरफ से, अभी हाल में आपने देखा होगा कि नरेंद्र मोदी जी ने सोशल मीडिया और अखबारों के जरिए एक बयान दे दिया कि सरदार पटेल की शवयात्रा में पंडित जवाहर लाल नेहरू नहीं गए थे, इतिहास को इतने गलत तरीके से पेश करना वो भी उस शख्स की तरफ से जो प्रधानमंत्री पद का दावेदार है, अगर इस तरह तथ्यों से खिलवाड़ करने वाले बयान दिए जा रहे हैं सोशल मीडिया के जरिए, संचार माध्यमों के जरिए तो आपको नहीं लगता है कि इसके लिए सख्त से सख्त कानून बनना चाहिए?
एसवाई कुरैशी : देखिए पॉलिटिकल चीजों पर तो मैं कमेंट नहीं करता हूं, लेकिन सोशल मीडिया बहुत पावरफुल मीडियम है, इसके जरिए देश में आग भी लगाई जा सकती है । आपने देखा कि किस तरह असम के बारे में एक सोशल मीडिया कैंपेन हुआ और सारे आसामी लोग, बैंगलोर समेत कई जगहों से हजारों की तादाद में वापस चले गए, इससे सोशल मीडिया की पावर का अंदाजा होता है। अब ये निर्भर करता है कि आप पावर का पॉजिटिव इस्तेमाल करते हैं या निगेटिव, इसलिए मीडिया में जो कहना होता है उसपर लगाम लगाने के लिए देश में बहुत सारे कानून हैं, जैसे आप किसी की मानहानि करें या देश विरोधी बातें करें, तो कानून काम करेगा। बेशक जंतर-मंतर पर बैठ कर आपको फ्रीडम ऑफ एक्प्रेशसन है, आपको जो कहना है आप कहिए। लेकिन जिस कानून ने फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन दिया है, उसी कानून ने, उसी आर्टिकल 19 में फ्रीडन ऑफ एक्सप्रेशन पर कई रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन भी लगाए हैं, मसलन, आप देश विरोधी बातें नहीं कर सकते, भड़कावे वाली बात नहीं कर सकते। लेकिन लोग फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बातें करते वक्त उस रीजनेबल रेस्ट्रिक्शन की बात करना भूल जाते हैं।
वासिंद्र मिश्र : इलेक्शन फंडिंग स्टेट के जरिए होनी चाहिए, आपको लगता है कि अगर स्टेट के जरिए इलेक्शन फंडिग की व्यवस्था हो जाए तो जो ब्लैक मनी का इस्तेमाल होता है चुनावों में जो करप्शन आप भी मानते हैं। इलेक्शन के जरिए बहुत ज्यादा करप्शन को बढ़ावा मिलता है। उस पर काफी हद तक रोक लगाई जा लकती है।
एसवाई कुरैशी : जी नहीं मैं इसके बिल्कुल खिलाफ हूं और जब भी किसी नेता ने या किसी ने भी इसका जिक्र किया है तो मैंने उनका पुरज़ोर विरोध किया है। इसके पीछे वजह ये है कि इलेक्शन में होने वाली बेइमानी खत्म होनी चाहिए। लेकिन स्टेट फंडिंग से सुधार हो जाय तो जरूर कर लीजिए, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पाएगा। ये मान कर चलिए कि जो 16 लाख रूपये विधानसभा में खर्च होते हैं या 40 लाख लोकसभा में, तो उसमें एक प्याली चाय का हिसाब भी होता है। हमारी समस्या तो ब्लैक में खर्च होने वाले 4-5 करोड़ या 10 करोड़ रुपए है। स्टेट फंडिग तो वो ही होगी ना कि जो 40 लाख आप खर्च कर रहे हैं चलिए सरकार से ले लीजिए, ये तो नहीं होगा कि जो 5 करोड़ रूपये आप बेइमानी के लिए, रिश्वत के लिए खर्च कर रहे हैं वो भी हमसे ले लीजिए। पांच करोड़ की जो बेइमानी है, वो चलती रहेगी बल्कि वो पांच करोड़ 40 लाख हो जाएगी, जो 40 लाख आपने बचाए, सरकार से लिए वो भी इसमें डाल दीजिए, तोस्टे ट फंडिंग ऑफ इलेक्शन गलत है। ऑफ्टर ऑल पॉलिटिकल पार्टीज चंदा लेती हैं, किससे लेती हैं, कुछ पता नहीं, किसी बड़े बिजनेस हाउस से ले लेंगी तो उसको फायदा पहुंचाने की कोशिश रहेगी, ब्लैक मनी या टेंटेड मनी लेंगे तो उसका उल्टा असर होगा, हम लोगों को पार्टी को ऐसे अंकुश से निकालना होगा। हर वोट जो पार्टी को मिले उसके बदले में पार्टी को सौ रूपये स्टेट से मिल जाएगा। पांच-सात सौ करोड़ रूपये जो हर साल हर पार्टी रेज़ करती है वो उसको ऑन द बेसिस ऑफ परफॉर्मेंस कि जितने वोट आए थे उसके मुताबिक आपको कैश मिल जाए, 5-7 सौ करोड़ रूपये कोई पार्टी अगर रेज़ कर लेती है तो क्रिमिनल पर डिपेंडेंसी उसकी खत्म हो जाएगी, बिजनेस हाउस पर उसकी डिपेंडेस खत्म हो जाएगी, वो एक सिस्टम ऐसा है जिस पर जरूर गौर करना चाहिए।
वासिंद्र मिश्र : लेकिन अभी हॉल में सजेशन कहें या रूलिंग कहें आया था चीफ इलेक्शन कमिश्नर का और उसमें उन्होंने बोला था कि जो आरटीआई में सवाल पूछे जाते हैं, कि पॉलिटिकल पार्टीज को फंडिंग कहां से आ रही है तो इसको सार्वजनिक करना चाहिए, इसका लगभग सबने विरोध कर दिया था । क्या अगर इस बात को ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो भ्रष्टाचार कम करने में कुछ मदद मिल सकती है?
एसवाई कुरैशी : इलेक्शन कमीशन के कई प्रपोजल में एक प्रपोजल ये भी था कि पॉलिटिकल फंडिंग ट्रांसपेरेंट होनी चाहि, यानि पैसा कहां से आया, किन चीजों पर खर्च हुआ ये सब जनता को पता होना चाहिए, हमारी एक एक सिंपल सी डिमांड रही कि आप सारे ट्रांजेक्शन चेक से कीजिए, फिर आपने सुना होगा कि सारी पार्टियां कहने लगीं कि ये आरटीआई कहां से आ गया हम तो इलेक्शन कमीशन के अंडर में हैं । हम जब कहते थे तो आपने सुनी नहीं, अब आपको इलेक्शन कमीशन बचाने वाला दिख रहा है । हम तो ये भी नहीं कहते थे कि हम सुबह शाम आपसे सवाल जवाब करेंगे, हमें कोई सवाल जवाब का शौक नहीं है, आप साल में एक बार ऑडिट कराके पब्लिक डोमेन में डाल दीजिए, चाहे तो चुनाव आयोग से बात तक मत करिए । अब आरटीआई में सुबह से शाम तक रोजाना 200 सवाल आ जाया करेंगे । लोग इसका गलत इस्तेमाल भी करने लगे हैं । बहुत अच्छी चीज है आरटीआई लेकिन इसका एक डार्क साइड है। एक टीवी चैनल पर डिस्कशन चल रहा था, सुभाष अग्रवाल जिन्होंने ये याचिका दी थी, वो भी थे और मैं भी था, उन्होंने कहा कि पॉलिटिकल पार्टीज ने अगर इलेक्शन कमीशन की बात मान ली होती तो मेरे दिमाग में तो ये पीटीशन डालने का ख्याल भी नहीं आता।
वासिंद्र मिश्र : आप हरियाणा कैडर के सिविल सर्वेंट रहे, हरियाणा और खास तौर से उत्तर प्रदेश, बिहार में एक आम राय है कि यहां के नेता अपने हिसाब से पूरी ब्यूरोक्रैसी को चलाना चाहते है, अगर वो कई बात कहते हैं तो सिविल सर्वेंट को ये काम करना होता है और अगर कोई भी सिविल सर्वेंट नहीं करना चाहता तो बहुत बुरा मान जाते हैं । आपने वहां रहते हुए किस तरह से बैलेंस किया ? हरियाणा में अलग अलग टेंपरामेंट और अलग अलग पर्सनैलिटी नेता थे, आपने लगभग सबके साथ काम किया, आप कैसे उस काम को बैलेंस कर पाए ?
एसवाई कुरैशी : बड़ा दिलचस्प सवाल है आपका, ये फैक्ट है कि जब मैं हरियाणा में आया तो बंसीलाल जी की सरकार थी उसके बाद देवीलाल जी आ गए, उनके साथ बीजेपी भी शामिल थी, चौटाला साहब की सरकार आई फिर भजनलाल की सरकार बनी, इन सबके साथ मेरे ताल्लुकात अच्छे रहे, इसका मतलब ये नहीं है कि वो जो चाहते थे मैं कर देता था, इसके बावजूद मैं रहा मेरी ये इमेज बन गई कि ये आदमी ठीक काम करेगा, गलत हमारे लिए भी नहीं करेगा और हमारे दुश्मनों के साथ मिलकर भी गलत नहीं करेगा । मेरा अनुभव है, कि नेता को ये चिंता तो होती है कि ये अफसर मेरे कितना काम आ सकता है लेकिन उससे ज्यादा ये फिक्र होती है कि कहीं मेरे किसी विरोधी से तो नहीं मिल जाएगा, उसके कहने से मेरी जड़ तो नहीं काटेगा, इसकी चिंता इन्हें ज्यादा होती है। तो ऐसे अफसर जिनकी रेप्युटेशन ये हो जाए कि ये फेयर है, तो बीच-बीच में उसको किसी अच्छी पोस्ट पर न लगा कर, दांए-बाएं भी लगाते हैं, लेकिन उससे घबरा कर आदमी माथा टेक दे तो वो गलत होगा। मेरी साथ भी ऐसा हुआ लेकिन बजाय हताश होने के मैं उन पोस्टिंग्स से भी मैं खुश होता था कि चलो अब मुझे वो काम करने का मौका मिल गया जो नहीं कर पाता था, जैसे लिखने-पढ़ने का, कुछ और सुधार करने का। मेहनत करने के बाद कुछ वैसा भी तो चाहिए होता है कि आपको रेस्ट मिल जाए। और एक जो सबसे दिलचस्प बात है, जिसका कभी किसी के सामने जिक्र नहीं आया, मैं मिस्टर चौटाला का प्रिंसिपल सेकेट्री था, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी की किन हालात में मैं उनका प्रिंसिपल सेक्रेट्री बना। क्योंकि, देवीलाल जी के जमाने में मैं हरियाणा का डायरेक्टर पब्लिक रिलेशन था, चौटाला साहब की फैमिली से, पूरे परिवार से जान-पहचान अच्छी थी । इस परिवार से मेरे अच्छे ताल्लुकात रहे, लेकिन जब उन्होंने मुझे प्रिंसिपल सेक्रेट्री बनाया, उस जमाने में उनसे बातचीत भी नहीं थी । उन्होंने मेरा सलाम लेना भी बंद कर रखा था, क्योंकि एक आध कोई ऐसे डिसिजन, असल में ब्यूरोक्रैट्स ही होते हैं जो गलत काम कराते हैं, कि किसी से ये करा लो, वो करा लो तो वो मैंने नहीं किया, बार-बार कहने पर नहीं किया तो नाराज़गी हो गई । लेकिन मुझे उससे कोई परेशानी नहीं हुई क्योंकि मैं तो इस किस्म के मौके की तलाश में रहता था कि सरकार मुझसे नाराज हों और मुझे साईडलाउन करें ताकि मैं रेस्ट कर लूं, कुछ अपनी लिखाई-पढ़ाई कर लूं, तो उस हालात में जब मेरे पास चौटाला साहब का फोन आया कि मैं आपको अपना प्रिसिपल सेक्रेट्री बनाना चाहता हूं, मैंने कहा साहब सोच लीजिए, तो उन्होंने कहा कि कोई चीफ मिनिस्टर अपना प्रिंसिपल सेक्रेट्री बगैर सोचे समझे बनाएगा क्या । इसके बाद मैंने उन्हें अपनी स्ट्रेंथ और वीकनेस बता दीं तो उन्होंने कहा कि यही चीजें मुझे पसंद हैं तुम्हारी और ये कि तुम साफ बात करते हो, इसलिए मैंने ये देखा की नेता भी इन द हार्ट ऑफ हार्ट, ईमानदार अफसर को, फ्री एंड फेयर डिसिजन देने वाले को ही पसंद करता है।
वासिंद्र मिश्र : सर हमारे चैनल से बात करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
एसवाई कुरैशी : बहुत बहुत धन्यवाद।
First Published: Thursday, October 31, 2013, 21:41