Last Updated: Tuesday, December 10, 2013, 21:27
मधुसूदन आनंदभारतीय राजनीति और राजनैतिक दलों को अपने पुराने चश्मे से देखने वाले राजनैतिक विश्लेषकों ने शायद ही ऐसे अचरज भरे नजारे की कल्पना की होगी। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दलों की नजर में तो आम आदमी पार्टी की कोई औकात ही नहीं थी जबकि ज्यादातर विश्लेषक भी उसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में दो-चार सीटें ही दे रहे थे। लेकिन इस पार्टी ने अचानक शून्य से अवतरित होकर सभी को स्तब्ध कर दिया है और लोग दांतों में उंगली दबाए 2013 की इस अभूतपूर्व राजनैतिक घटना को देख रहे हैं।
गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोख से उपजी इस एक साल पुरानी पार्टी ने दिल्ली में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया है जबकि नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ को रोक डाला है। चुनाव अभियान के बीचोंबीच आम आदमी पार्टी के नेता और अपने पुराने शिष्य अरविंद केजरीवाल की ईमानदार छवि को बचाने की बजाय उसे संदेहास्पद बनाने का काम करने वाले अण्णा हजारे आज कह रहे हैं कि अगर उन्होंने केजरीवाल का समर्थन किया होता तो दिल्ली में ‘आप’ की सरकार बन सकती थी।
व्यवस्था परिवर्तन की बात करने वाले अण्णा हजारे, जो एक बार फिर अपने जन लोकपाल बिल को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गए हैं, मौजूदा दलीय लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते। इसलिए उनके ‘आप’ के समर्थन में खड़ा न होने पर क्या विलाप करना, लेकिन इतिहास उनकी इस भूमिका पर जरूर सवाल करेगा। ‘आप’ को 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में 28 सीटें मिली हैं और आज ऐसा लगता है कि यदि ‘आप’ के उम्मीदवारों के विरुद्ध कुछ विघ्नसंतोषी तत्वों ने षडयंत्र न किया होता, एग्जिट पोल के नतीजों के मद्देनजर भाजपा और कांग्रेस विरोधी वोटरों ने नोटा (नन ऑफ द अबब) का बटन न दबाया होता और अण्णा हजारे चुनाव अभियान के दौरान सिर्फ चुप ही रह गए होते तो दिल्ली में ‘आप’ की सरकार बन सकती थी। लेकिन जो भी हुआ है, वह देश के लिए अन्तत: शुभ ही साबित होना चाहिए। ‘आप’ ने अपनी नैतिक आभा से आज की दलगत राजनीति को भले ही न बदला हो, मगर निश्चय ही झिंझोड़ तो डाला ही है।
कल्पना कीजिए कि यदि साफ-सुथरी राजनीति के प्रतिमान बनाने वाली ‘आप’ आज दिल्ली के राजनैतिक पटल पर इस तरह से उदित न हुई होती क्या 32 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने वाली भाजपा सत्ता के इतने करीब आकर भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहती? कांग्रेस की तरह भाजपा का इतिहास भी सत्ता के लिए दूसरे दलों में तोड़फोड़ कराने या दूसरी पार्टियों के लोगों की राजनैतिक निष्ठा खरीदने से मुक्त नहीं रहा है। 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार मायावती की बहुजन समाज पार्टी में विभाजन कराकर प्रतिष्ठित हुई थी। लेकिन अगर आज दिल्ली में हर्षवर्धन की सरकार बनवाने के लिए भाजपा कोई राजनैतिक मोल-तोल या खरीद-फरोख्त करती नजर आए तो 2014 में दिल्ली फतह करने के लिए बढ़ता नरेंद्र मोदी का विजय रथ धाराशायी हो सकता है। यही कारण है कि भाजपा के नेता बड़े मायूसी के साथ कह रहे हैं कि दिल्ली की जनता का जनादेश हमारे पक्ष में नहीं है, इसलिए हम सरकार नहीं बनाएंगे और अपनी तरफ से कोई पहल भी नहीं करेंगे।
दूसरी तरफ कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस की शर्मनाक पराजय से सन्न रह गए हैं और कह रहे हैं कि आम आदमी पार्टी की तरह वे भी आम आदमी से जुड़ेंगे और सचमुच की भागीदारी की राजनीति करेंगे। इस पर अरविंद केजरीवाल ने चुटकी ली है कि या तो वे ऐसा करके दिखाएं या फिर उनकी पार्टी में शामिल हो जाएं। सवाल यह है कि दागी प्रत्याशियों और धन कुबेरों को खुलेआम अपनी पार्टियों का टिकट देकर उन्हें जनता को लूटने का अवसर देने वाले तमाम बड़े-बड़े नेता क्या अब वाकई साफ-सुथरी राजनीति करने लगेंगे या कि उन्होंने मात्र ऐसी मुद्रा अपना ली है और वे सिर्फ बदलने का नाटक कर रहे हैं?

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दरअसल कुछ राजनीतिक विश्लेषक आम आदमी पार्टी के उदय को दिल्ली में तीसरी शक्ति के लिए बनी जगह के रूप में देख रहे हैं। यह तो हम जानते ही हैं कि अनेक राज्यों में तीसरी ताकत के लिए जगह बनी है जैसे कि उत्तर प्रदेश और बिहार। दूसरी ओर कुछ राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस की जगह ले ली है, जैसे कि पश्चिम बंगाल। तीसरी तरफ ऐसे राज्य भी हैं जहां न तो कांग्रेस के लिए और न ही भाजपा के लिए फिलहाल कोई राजनैतिक जमीन बची है, जैसे कि तमिलनाडु। यानी यह बात भी अपनी जगह सही है कि तीसरी शक्ति के लिए जगह बन रही है। बेशक भारत अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों-उपसंस्कृतियों वाला देश है और हरेक प्रदेश की समस्याएं भी अलग-अलग हैं। लेकिन इस बात से कौन इनकार करेगा कि बिजली, पानी, सड़क, रोजगार, महंगाई और भ्रष्टाचार सभी की समस्या है।
दूसरी पार्टियां भी ये मुद्दे उठाती हैं पर भ्रष्टाचार से लड़ने वाली आम आदमी पार्टी ने इन सभी मुद्दों को अपना राजनैतिक सरोकार बनाया है और ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ अत्यंत सीमित साधनों में चुनाव लड़कर एक मिसाल कायम की है। इससे पहली बार जनता के बीच यह संदेश गया है कि हमारे बीच से ही उठकर आए कुछ ऐसे खरे और जुनूनी लोग हैं जो सचमुच जनता की सेवा करना चाहते हैं। उनके लिए राजनीति कोई व्यापार नहीं है बल्कि वे तो अपना बंधा बंधाया रोजगार छोड़कर राजनीति में आए हैं। वे अपनी लगन और निष्ठा से सचमुच असंभव को संभव बना सकते हैं। इसलिए क्षेत्रीय पार्टियों के बावजूद `आप` के लिए देश में जगह है।
दिल्ली में कोई सरकार बने या न बने और दिल्लीवासियों को भले ही फिर से अपना वोट देना पड़े, अंतत: फायदा `आप` का ही होगा। अरविंद केजरीवाल `आप` के अपने प्रयोग को लोकसभा चुनाव में भी दोहराना चाहते हैं। देश के करीब 350 जिलों में `आप` ने अपना बुनियादी संगठन खड़ा कर लिया है और उसके साथ झुग्गी बस्तियों में रहने वालों लोगों के साथ-साथ, मध्यवर्गीय लोगों, नौजवानों और प्रोफेशनल लोगों की फौज है। इसलिए इस पार्टी ने अगर लोकसभा में 25 सीटें भी पा लीं तो यह नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोक सकती है। हालांकि तब जो गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई सरकार बनेगी वह अपने भीषण अंतर्विरोधों के कारण अल्पजीवी साबित होगी। जो भी हो आने वाले समय में `आप` की चुनौती बनी रहेगी। हालांकि आज ये कहना मुश्किल है कि `आप` सचमुच में नई राजनीति की लिपि और व्याकरण को गढ़ पाएगी या नहीं। अभी `आप` के पास केवल शुद्ध सरोकार हैं, उसके विचार और विचारधारा सामने आना बाकी हैं या फिर यह मानें कि कहीं हमारे चश्मे ही तो पुराने नहीं हैं?
(लेखक ज़ी मीडिया के सम्पादकीय सलाहकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)
First Published: Tuesday, December 10, 2013, 21:18