आम आदमी पार्टी से जन उम्‍मीदें

आम आदमी पार्टी से जन उम्‍मीदें

आम आदमी पार्टी से जन उम्‍मीदेंशेखर त्रिवेदी

याद कीजिए इससे पहले आपको आप में इतनी दिलचस्पी कब पैदा हुई थी। कुछ लोग कह सकते हैं हमेशा से, कुछ वक्त मांग सकते हैं और कुछ कनफ्यूज हैं क्योंकि आप के बीच से अपने आप को तलाश लाना मुश्किल भले ना रहा हो लेकिन कभी इतना वक्त ना तो आप को दिया और ना मिला।

दिल्ली में भी आपने आप को जो वक्त दिया वो वक्त यूं ही था। चलते फिरते, उठते बैठते बस मन के किसी कोने से ही तो दिया था वक्त आप को दिए उस थोड़े से वक्त ने दरअसल वक्त को बदल दिया है। ना भी बदला हो तो भी वक्त बदलने की आहट जरूर है क्योंकि बदलाव सब चाहते थे चाहते हैं, लेकिन उसे बदलने का बस वक्त नहीं था और बदलने से वक्त बदल जाएगा ये जकड़न भी वक्त ने मन में पैदा कर रखी थी।

सिर्फ दिल्ली ही नहीं, हिन्दुस्तान के बहुत सारे लोग केजरीवाल या टीम केजरीवाल से ना सिर्फ अनजान हैं बल्कि उनसे ऐसा कोई अपनापन भी नहीं जैसा कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी है। ये वो पार्टियां है जिन्होंने सियासत को इतना घिसा है, ऐसा घिसा है कि सियासी राह पर खुद इनका पैर कब फिसल जाए ना ये जानते हैं, ना ही इनके अपनेपन का शिकार हुए आप। शिकार इसलिए क्योंकि अब तक वोटों के लिए जनता का शिकार ही तो हुआ है। पिंजरा कभी जाति का लगा, कभी धर्म का, कभी रामनाम का तो कभी कर्जमाफी का, कभी बेरोजगारी भत्ते में चली गई तो कभी लैपटाप ने लालच को बढ़ाया। मूर्ति, स्मारक, पार्क और ना जाने क्या क्या। कैसे कैसे पिंजरे आपको फंसाने के लिए लगाए गए अब ये मत कहियेगा कि आप फंसे नहीं।

आप फंसे हैं पहले भी और आज भी लेकिन इस बार आप फंसे हैं आप के फेर में क्योंकि जो आसमान आप छूना चाहते हैं उसका ना आदि है ना अंत है। इसलिए आप ने बड़ी समझदारी से पुराने पिंजरों के दरवाजे खोल दिए और उड़ने को दिया सारा आसमान। जिसमें दम होगा, जितना दम होगा जब तक दम होगा वो उड़ेगा और उड़ते हुए जमीन पर पड़े उन पिंजरों को देख कर एक आजाद एहसास के साथ, बिजली, पानी, सड़क, रोजगार, वगैरह वगैरह फिर मांगेगा। रोजाना की जद्दोजहद से फिर जूझेगा क्योंकि आप का सबसे बड़ा फलसफा ही ये है कि आप अपनी उन सच्चाईयों से भाग नहीं सकते जिन्हें कभी आप ने ही तैयार किया है और आप के साथ साथ आप के अपने भी उसका शिकार होते रहे हैं लेकिन इस बार जो फर्क है वो आप का आप से वास्ता है। थोड़ा जाना पहचाना सा थोड़ा अनजाना सा, थोड़ा सयाना थोड़ा बेगाना सा, आप जीतने से पहले भी आप से मिलते रहे, जीतने के लिए आप उस दिन भी आप के ही साथ थे जिस दिन सब कुछ आप को तय करना था और आप जीतने के बाद भी आप से मिलते रहे क्योंकि मिलना-मिलाना, कहना-सुनना, शिकवा-शिकायत, अच्छाई-बुराई, आप की फितरत है।

दरअसल आज आपको देखने में लोगों की खुशी या नाराजगी से ज्यादा कौतुहल है एक ऐसा कौतुहल जो पिछले छह दशक में उन्ही सियासी दलों ने तैयार किया है जो आजादी के बाद अपनी तरह से मुल्क में अपनी हिस्सेदारी तलाशते हुए आए और फिर सियासी रंग में ही रंग गए। जाहिर है ये रंग सबसे पहले उसके पास था जो सबसे पुराना है। उसने अपने ही रंग में हर नए आने वाले को रंगने की ना सिर्फ कोशिश की बल्कि मौके पर उड़ाने के लिए वो रंग भी दिया जो दरअसल आसमान की तरफ उछालने पर बाद में अपने दामन के साथ साथ आपको को भी रंगता हुआ चला गया ये रंग भ्रष्टाचार का था, ये रंग मंहगाई का था, ये रंग बेरोजगारी का था, ये रंग विकास का भी था, ये रंग तरक्की और खुशहाली का भी था और ये रंग सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई आबादी का भी था।

इसमें दोराय नहीं कि देश को खुशहाल, सम्पन्न और अमीरी गरीबी के फर्क से बहुत आगे ले जाने का सपना हर सियासी पार्टी ने संजोया जो तरीका उसे समझ आया उसने आजमाया और ना सिर्फ आजमाया बल्कि उसमें जीत भी हासिल की लेकिन वो रंग जो किसी दंश की तरह अपना डंक जमाने को चुभोते रहे। सियासत उसी कांटों की सेज बनती चली गई आज सब चाहते हैं कि वो कांटे। सियासत से दूर हो जाएं, समाज से दूर हो जाएं, एक ईमानदार सुबह का नया सूरज खुशियों की किरणों को बिखेर दे लेकिन वैसी हिम्मत, वैसा जस्बा, वैसी ताकत वैसी महत्वाकांक्षा चाह कर भी सियासी दल हासिल नहीं कर पाए जो दरअसल ईमानदार कही जाती।

अरसे से एक ही रंग में रंगी जा रही जनता इस बार रंग में रंगने के बजाय पुराने रंगों को छुड़ाने में दिलचस्पी दिखा गई। नतीजा आप का चेहरा निकल कर सामने आ गया। ये सच है कि आप से आप को बहुत उम्मीदें है सिर्फ आप को ही नहीं उन तमाम सियासी दलों को भी उम्मीदें है जो चाह कर भी वो नहीं कर पाईं जिसे अब आप करने का दम भर रहे हो।

अब आपके बीच कुछ ऐसे हैं जो आपको कामयाबी की दुआ दे रहे हैं, कुछ ऐसे है जो आप को जिज्ञासा से देख रहे हैं। कुछ को आप के फेल होने का पूरा भरोसा है, कुछ आप को औसत और कुछ औसत से ज्यादा आंक रहे हैं। जो कुछ नहीं कर रहे हैं वो भी आप की तरफ देख रहे हैं।

दरअसल एक असल लोकतंत्र का पहिया वक्त की सड़क पर ऐसे ही आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ता है उसमें आप पैदा भी होते हैं, आप लड़ते हैं, आप ही जूझते हैं और एक दिन आप ही खत्म हो जाते हैं लेकिन फिर भी लोकतंत्र बचा रहता है। वो उम्मीद बची रहती है जिसमें आसमान पर चमकने वाले सितारे की रौशनी मुल्क के आखिरी आदमी को भी राह दिखाने का माद्दा रखती है।

(लेखक ज़ी उत्‍तर प्रदेश/उत्‍तराखंड में सीनियर प्रोड्यूसर हैं और लेख में व्‍यक्‍त विचार उनके निजी हैं)

First Published: Monday, December 23, 2013, 14:11

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