Last Updated: Thursday, April 10, 2014, 00:20
संजीव कुमार दुबेजगजीत सिंह की गाई एक गजल कभी-कभार जेहन में गूंजती है। गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला...। मशहूर शायर निदा फाजली के लिखे इस गजल के कई मायने हैं जिसे दिमाग पर जोर देने से समझा जा सकता है। गजल के बोल में ईश्वर से यह गुहार की जा रही है कि पानी बरसे क्योंकि धरती पर सब कुछ सूख रहा है। आसमान से पानी की आस में यह इबादत की जा रही है। धरती पर पानी के बगैर स्थिति त्राहि-माम की स्थिति है। यानी सबकुछ बर्बादी और तबाही के कगार पर जा पहुंचा है जो पर्यावरण और प्रकृति की तबाही का संदेश दे रहा है।
बड़ा सवाल यह उठता है कि यह नौबत आई ही क्यों ? पर्यावरण से छेड़छाड़ और कुदरत के संसाधनों के अप्राकृतिक दोहन की गूंज इस गजल में समझी , सुनी और स्पर्श की जा सकती है। आसमान बरसात की बूंदों से धरती को तर करे इन्हीं दुआओं के साथ अब हम जमीन की तरफ रूख कर रहे हैं।
हमने ऊपर आसमान में पानी के लिए हाहाकार का भयावह नजारा देखा जहां उदासी और मायूसी है। अब धरती पर हम पानी की बर्बादी का नजारा देख रहे हैं। रविवार की हर सुबह मैं यह देखता हूं कि रईस लोगों की चमचमाती गाड़ियां एक से डेढ घंटे तक पानी में धुलती है। जो व्यक्ति गाड़ियों की धुलाई कर रहा होता है उसके हाथ में पाइप होता है। पानी की सप्लाई अच्छी है, मोटर चल रहा है लिहाजा पानी के मोटे धार से गाड़ियों की धुलाई हो रही है जो पानी के ज्यादा बर्बाद होने का सबब भी बन रहा है। सबसे हैरानी की बात यह होती है कि गाड़ियों के धुल जाने के बाद भी ना जाने कौन सी ऐसी सफाई होती है जिसके लिए सैकड़ों लीटर पानी यूं ही बहता रहता है। आसमान से तो पानी नहीं बरसा लेकिन पाइप से पानी बेतहाशा बरस रहा है। इतना कि एक घंटे बाद वह पानी गाड़ी को चमचमाकर सड़कों पर आ गया होता है। पानी की बर्बादी की इससे दुखद मिसाल और कोई नहीं हो सकती जहां पीने का पानी सिर्फ आलीशान गाड़ियों की सफाई के नाम पर बहाया जाता है। देश में करोड़ों गैलन पानी इसी कवायद में बर्बाद हो जाते हैं।

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पानी के संरक्षण और उसके सहेजने की कई पहल हमारे देश में की जा रही है। कुछ पहल के परिणाम उम्मीद के माफिक रहे तो कुछ वक्त से पहले दम तोड़ गए। लेकिन हाल ही में एक अनोखी पहल जिसकी सुगबुगाहट धान का कटोरा कहे जानेवाले छत्तीसगढ़ से हुई। पानी की पहल का यह यह अंकुर एक फिल्म के रूप में अंकुरित हुआ जिसका नाम `जल चित्र` है। दिल्ली में रहनेवाले देश के जानेमाने पर्यावरणविद राकेश खत्री की पानी पर बनाई फिल्म `जल चित्र` कुछ हफ्ते पहले लॉन्च हुई। जल की अनोखी इस गाथा को केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा छत्तीसगढ़ में लॉन्च किया गया किया और इस मौके पर देश के जानेमाने पर्यावरणविदों ने भी शिरकत की। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित पानी पर उल्लेखनीय कार्य करनेवाली फूलवासन बाई यादव के हाथों यह `जल चित्र` फिल्म को लॉन्च किया गया। `जल चित्र` की यह अनोखी गाथा को साकार होने में कुछ वक्त जरूर लगा लेकिन अब इससे देशभर के लोग बिल्कुल नए अंदाज में रूबरू हो सकेंगे। और समझेंगे कि पानी को बचाना जरूरी क्यों है?
लंबे समय से पर्यावरण संरक्षण की मुहिम से जुड़े राकेश खत्री के जेहन में पानी को लेकर कुछ नया करने का विचार आया। उन्होंने सोचा कि जल जीवन है लेकिन इसे असरदार और नए तरीके से कैसे हर तबके के लोगों तक पहुंचाया जाए जो जागरूकता के साथ कुछ कर गुजरने को भी प्रेरित भी करे। फिर क्या था वह जल में जीवन को सहेजते और संजोने की कोशिशों के बीच गुजरे जमाने के बाइस्कोप तक जा पहुंचे। फिर जन्म हो गया एक ऐसे बाइस्कोप का जो जल चित्र की गाथा एक फिल्म के जरिए कहता और सुनाता है। बाइस्कोप की इस कहानी की पटकथा तो उन्होंने बुन ली और पूरी रुपरेखा भी तैयार कर डाली कि क्या, कहां और कैसे प्रेजेंट करना है। लेकिन बाइस्कोप बनाने की चुनौती अब भी बड़ी थी जो उन्हें थोड़ा विचलित कर रही थी। इस काम में हाथ बंटाने को आगे आई उनकी पत्नी मोनिका कपूर। मोनिका ने बेहद कम वक्त में ना सिर्फ बाइस्कोप को खूबसूरत आकार दिया बल्कि उसमें इतने रंग-बिरंगे रंग भर दिए जैसे लगा कि जल की अविरल कथा को बाइस्कोप बस अब बोल उठेगा। ये दो ऐसे विचारों का मिलन था जहां जल `चित्र` बनकर उभरते हुए साकार हो रहा था। यह `चित्र` पर्यावरण की उस बानगी का है जिसकी शुरुआत संरक्षण से शुरू होती है।

इको रूट फाउंडेशन के संस्थापक राकेश खत्री ने बताया कि हम सबने प्रकृति और पर्यावरण को समझने और सहेजने के मामले में सिर्फ लापरवाही ही बरती है। उन्होंने कहा कि हम जब भी पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण की बात करते हैं तो जल संरक्षण सबसे ऊपर शुमार होता है। अगर जल को सहेजना और संरक्षित करना है तो उसके मर्म को स्पर्श करना यानी समझना जरूरी है। इसलिए मेरे दिमाग में ये विचार आया कि क्यों ना कुछ रोचक अंदाज में इन बातों को पिराया और समझाया जाए ताकि ये सर के ऊपर से नहीं गुजरे बल्कि दिलोदिमाग में समा कर सामनेवाले को जल संरक्षण का अमिट भाव पैदा करे। फिर मेरे दिमाग में फिल्म बनाने का आइडिया आया। लेकिन फिर मैंने सोचा कि इस फिल्म को दिखाने के लिए एक ऐसा उपकरण होना चाहिए जो लोगों को बांधकर रखे और उनमें कौतूहल पैदा करे।
राकेश खत्री कहते हैं कि 5 मिनट 11 सेकेंड के जल चित्र में मैंने ताना बाना बुना। उन सबका समावेश किया जो जरूरी था जिसकी शुरुआत सभ्यता के जन्म से होती है। यानी इस पूरी अवधि में जल अपने जन्म से लेकर दोहन की कथा सुनाता नजर आता है। इसमें जल की शुरूआत से लेकर उसकी कमी के सिलसिले को पिरोया गया।
इस कहानी की शुरूआत शानदार अंदाज में एक बूंद से होती है जो धरती पर गिरकर अपने जन्म और महत्ता की सार्थकता को चित्रों, शब्दों से बयां करता है। फिर उसे सभ्यता के विकास के साथ जोड़ा गया है। सभ्यता विकसित होती गई और जल की जरूरत भी बढ़ती चली गई जो उसकी कमी का सबब भी बनता गया । इस जरूरत में दोहन शामिल हो गया जिसने पानी पर निर्ममता से प्रहार करना शुरू किया। इस कमी को कुछ पुरानी फिल्मों के गाने के जरिए दर्शाया गया है जो बड़े ही रोचक बन पड़े हैं। ये गाने पानी की कमी और उसके महत्व को बड़े ही प्रभावशाली तरीके से बताते हैं। यह दिखाया गया है कि 19वीं शताब्दी तक देश के गांव कितने खुशहाल थे लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की प्रवृति, औद्योगिकरण की रफ्तार से प्राकृतिक जल स्रोत सूखता चला गया। भूजल में गिरावट आ गई। देश के कई हिस्सों में अकाल जैसी आपदाओं ने तबाही मचाई। फिल्म के आखिरी हिस्से में भावी पीढ़ी को पुरखों के दिए जल को सहेजने और संरक्षित करने का संदेश दिया गया है। इसमें संदेश के बीच एक चेतावनी भी है कि अगर अब नहीं तो कभी नहीं।
पानी बचाने के लिए किस सोच के साथ युवा और समाज के लोगों को आगे आना होगा, इसपर राकेश कहते हैं कि एक बैंक एकाउंट को लेकर एक व्यक्ति कितना जागरूक रहता है। उसकी कोशिश होती है कि उसके एकाउंट में ज्यादा से ज्यादा पैसे जमा हो और वह पैसे को कम से कम निकाले। यानी एक एकाउंट को ओपन करने से उसकी बचत की मानसिकता जागरूक होती है और वह रूपये खर्च करने से बचना चाहता है। यही बचत यानी संरक्षण का भाव हमें पानी को लेकर पैदा करना होगा। अगर हम यह सोचेंगे कि भला पानी की कोई किल्लत नहीं होनेवाली है तो उन्हें यह समझना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर पानी को भी हमने खतरनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है । और अगर हम अब सचेत नहीं हुए तो फिर जल के बगैर सही मायने में हम `जल` जाएंगे और वह स्थिति ऐसी होगी जब पानी के बगैर इंसान अपने वजूद को खो देगा।
राकेश चेतावनी भरे लहजे में कहते हैं कि इस वक्त दुनिया में 1.5 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। 2025 में यह संख्या 1 अरब 84 लाख को पार कर जाएगी। वह कहते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है।
उनका कहना है कि भयावह आंकड़े हमें हर पल सजग करते हैं लेकिन हम सभी इस हर पल खारिज और दरकिनार करते हैं। उनका कहना है कि मुंबई में रोज़ वाहन धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइप लाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण प्रतिदिन 22 से 46 फीसदी पानी बेकार बह जाता है। प्रतिदिन 30 से 50 लीटर स्वच्छ तथा सुरक्षित जल की आवश्यकता होती है और इसके बावजूद 884 मिलियन लोगों को सुरक्षित जल उपलब्ध नहीं है।
राकेश के मुताबिक हम अपनी दैनिक दिनचर्या में ही पानी को निर्ममता से बर्बाद करते हैं। मिसाल के तौर पर यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है, तो पांच मिनट में क़रीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है। बाथ टब में नहाते समय 300 से 500 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि सामान्य रूप से नहाने में 100 से 150 लीटर पानी खर्च होता है।
कारवां बढ़ता रहा और उनकी मेहनत रंग लाई और `जल चित्र` तो बन गई और अब उसे नए तरीके और संसाधनों के जरिए और जीवंत करना था। बाइस्कोप को संजाने-संवारने और उसके हर तकनीकी पहलू को निखारने का काम उनकी पत्नी मोनिका कपूर ने बखूबी निभाया।
मोनिका कपूर कहती हैं कि अब जल की निगरानी करने की जरूरत है। क्योंकि जल संकट बढ़ता जा रहा है और हम हैं कि पानी को न केवल बर्बाद कर रहे हैं बल्कि उसे अपने स्वार्थ के चलते और प्रदूषित करते चले जा रहे हैं। यह सोचने वाली बात है कि देश में सभी जगह पानी के लिए हाहाकार मचा है। कहीं धरने, प्रदर्शन और सत्याग्रह हो रहे हैं तो कहीं प्रदर्शनकारियों पर पुलिस लाठी-डंडे बरसा रही है। जरा सोचिए कि कि 2030 में जब लगभग देश की आबादी का आंकड़ा दो अरब के करीब हो जायेगा, तब भला क्या होगा?
उनकी चिंता जल के जीवन को लेकर ही है और वह कहती हैं कि वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, भूजल विज्ञानी बरसों से चेतावनी दे रहे हैं लेकिन उनकी सुनता कौन है। आजादी के सिर्फ दस साल बाद ही 1957 में योजना आयोग ने कहा था, देश में 240 गांवों में पानी नहीं है और आज यह संख्या दो लाख से भी ऊपर चली गई है। नदियों को गंदलाने के हालात यह है कि हमारे देश की किसी भी नदी का जल आज पीने तो क्या, आचमन के लायक भी नहीं बचा है।
मोनिका इसके लिए अपने आसपास के जुड़े मिसाल को बताती हुए कहती है कि देश में बिना किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से सर्विस सेंटर व वाहन धुलाई सेंटर की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है जहां बीस से दो सौ रुपये के लिए गाड़ी धोने के नाम पर हजारों लीटर पानी व्यर्थ में बहा दिया जाता है। शहरों और महानगरों में बने दोपहिया और चार पहिया वाहनों के सर्विस सेन्टर और धुलाई सेंटरों में प्रतिदिन पीने योग्य पानी का जमकर दुरूपयोग और अपव्यय वाहन धुलने जैसे बेकार के काम में खर्च होता है।
एक अनुमान के मुताबिक सर्विस सेंटर में कार धुलाई में 300 से 500 लीटर और दोपहिया वाहन पर 100 से 150 लीटर तक साफ पानी बहाया जाता है। सर्विस सेंटर के अलावा घरों में रोजना वाहन धोने वालों की बड़ी तादाद है जो गाड़ी चमकाने के नाम पर अमूल्य पानी बेकार बहाते हैं। पिछले दो दशकों में पानी के बढ़ते व्यावसायिक, अंधाधुंध दोहन एवं प्रयोग से जलस्तर तेजी से गिर रहा है। जिसके चलते देशभर में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है।
बस इन्हीं बातों के मद्देनजर यह पहल राकेश और मोनिका ने साथ मिलकर की। इस बाइस्कोप के जरिए एक साथ छह लोग फिल्म को देख सकेंगे और इसका निर्माण शुरू हो गया है। मोनिका के मुताबिक उनकी योजना अगले छह महीने में पूरे देशभर में इस बाइस्कोप के जरिए लोगों को जल संरक्षण के पहलुओं से इस अनोखे अंदाज में रूबरू कराने की है। इसके लिए उनकी योजना वर्कशॉप करने की है ताकि लोग जल संरक्षण को इस कदर समझे की इस अभियान से प्रेरित होकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे।
हमारे लोक कवियों ने अपने गीतों में जल के महत्व को स्वीकारा है। गीतों, गाथाओं, लोकोक्तियों, मुहावरों, कथा-कहानियों में जल के महत्व का वर्णन मिलता है। कहीं ऐसा ना हो कि पानी सिर्फ इतिहास बनकर रह जाएं जो धरती की तबाही की ऐसी पटकथा लिखे जहां सर्वनाश के सिवा कोई अस्तित्व का अंकुर नहीं बचेगा। ।
राकेश कहते हैं - मानव जीवन और प्रकृति के बीच के संबंध भी अस्तित्व का परिचायक है जिसे नकारा नहीं जा सकता है। प्रकृति का दिया पर्यावरण एक ऐसा आवरण है जो समस्त जीवों के जीवन का केंद्रबिंदु है। हर जीवन में गति प्रकृति पर्यावरण की वजह से ही है। इस नाते हमारी दायित्व बनता है कि हम पर्यावरण के इस अटूट श्रृंखला को प्रदूषित ना होने दें। अगर हमने इन्हें संजोने की ठानी तो प्रकृति हम पर और मेहरबान होगी। हम प्रकृति से प्रेम करें और पर्यावरण की सार्थक भूमिका को समझते हुए उसे यथासंभव सहेजे। इसे याद रखे- अगर जीवन अनमोल है तो पानी भी अनमोल है।
(इस विषय पर और जानकारी हासिल करने के लिए आप राकेश खत्री को मेल भेज सकते हैं। kraakesh@gmail.com)
First Published: Wednesday, April 9, 2014, 18:21