Last Updated: Sunday, December 8, 2013, 18:07
बिमल कुमार राजस्थान चुनावों में जिस बात की संभावना पहले से व्यक्त की जा रही थी, परिणाम आखिरकार वैसा ही आया। वसुंधरा राजे का जादू इस बार राजस्थान के लोगों के सिर चढ़कर बोला। जनता ने राजे के `राज` को पूरी तरह स्वीकार कर लिया और उन्हें सूबाई सत्ता की चाभी फिर से सौंप दी।
पांच साल पहले बीजेपी में भितरघात के कारण निराशा झेलने वाली वसुंधरा राजे ने इस बार अपनी पार्टी को राजस्थान में शानदार वापसी दिलवाई और उनकी इस भारी सफलता से न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बहुत बढ़ा बल्कि पार्टी संगठन में उनका कद भी बढ़ गया।
राजस्थान विधानसभा की 199 सीटों के लिए बीते एक दिसंबर को हुए चुनाव के लिए रविवार को आए नतीजों में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलना इस बात को दर्शाता है कि जनता किस हद तक सूबे की सरकार में बदलाव देखना चाहती थी। हालांकि इस बदलाव के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, पर वसुंधरा राजे को उनकी लोकप्रियता का लाभ जरूर मिला। सत्ता विरोधी लहर के चलते सूबे के अंदरुनी इलाकों में भी बीजेपी का इस बार बेहतर प्रदर्शन रहा। कांग्रेस के दामन पर लगे भ्रष्टाचार के छींटे, कई कांग्रेसी मंत्रियों के ऊपर गलत आचरण का कलंक, महंगाई, बेरोजगारी आदि गंभीर मुद्दे इस बार पार्टी के खिलाफ गए। वहीं, कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस पार्टी के भीतर अंतर्कलह से भी पार्टी को खासा नुकसान उठाना पड़ा। अशोक गहलोत इसे पाटने में विफल साबित हुए और साथ ही जनता को महंगाई, भ्रष्टाचार आदि को लेकर कोई समुचित जवाब नहीं दे पाए। जिसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा।
भितरघात के चलते उन्होंने पूर्व में एक बार पार्टी से इस्तीफा देने तक की घोषणा कर दी थी। लेकिन बाद में पार्टी आलाकमान ने उनके नेतृत्व को पूरी तरह समर्थन देते हुए गहलोत सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए राज्य में उन्हें अपना मुख्य चेहरा बनाया। राजस्थान में इस बार वसुंधरा को जीत दिलवाने के लिए लिए नरेन्द्र मोदी ने भी राज्य के कई बार दौरे किए और कई चुनावी रैलियों को संबोधित किया। इसके चलते निश्चित तौर पर हवा बीजेपी के पक्ष में चली और मोदी फैक्टर का लाभ वसुंधरा को मिला।
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से उठकर राजस्थान की सबसे शक्तिशाली नेता बनने के पीछे उनके करिश्माई व्यक्तित्व और दृढ़ इच्छाशक्ति की भी बड़ी भूमिका मानी जाती है। इसके चलते ही उन्होंने अपने 30 वर्ष के लंबे राजनीतिक जीवन में पार्टी के भीतर और बाहर अपने विरोधियों से जमकर संघर्ष किया। राजस्थान में जब 2008 के विधानसभा चुनाव और बाद के लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन आशाजनक नहीं रहा था तो उनके विरोधियों ने इसके लिए वसुंधरा के नेतत्व को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया था। लेकिन ऐसी विफलताएं वसुंधरा के हौसलों को पस्त नहीं कर पाई।
झालावाड़ के झालरापाटन सीट से वसुंधरा राजे इस बार भी चुनाव जीत गईं। उनके लिए झालरापाटन सीट काफी भाग्यशाली रही। 2003 में भी इसी सीट से जीत दर्ज कर वसुंधरा मुख्यमंत्री बनीं थीं। जिक्र योग्य है कि राजे झालवाड़ में 1989 से काफी सक्रिय हैं। बीजेपी की इस परंपरागत सीट झालरापाटन से राजे दो बार विधानसभा चुनाव जीत चुकी हैं। इस सीट पर ग्वालियर के पूर्व राजघराने का असर रहा है। वैसे भी वसुंधरा राजे की जीत पहले से तय थी। मध्य प्रदेश से सटे इस इलाके में ग्वालियर राजपरिवार का काफी प्रभाव रहा है। इसके अलावा, कांग्रेसियों की भितरघात का फायदा भी वसुंधरा को मिला।
विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत इस बात का संकेत है कि राजे का करिश्माई व्यक्तित्व लोगों को खूब भाया। वैसे इस जीत में बीजेपी के कद्दावर नेता नरेंद्र मोदी की भूमिका को कतई कम करके नहीं आंका जा सकता है। प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने मैराथन रैलियां की थी और सभी रैलियों में जनता का जबरदस्त उत्साह देखने को मिला था। शुरुआती संकेत तो उसी समय से मिलने लगे थे कि राजस्थान में बीजेपी की वापसी तय है। जोकि आखिरकार सौ फीसदी सच साबित हुआ। बीजेपी केवल सत्ता में ही नहीं लौटी बल्कि उसे जनता जनार्दन ने भारी बहुमत से नवाज दिया।
मुख्यमंत्री पद की दावेदार वसुंधरा राजे ने जीत के बाद यह माना कि प्रदेश में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन के पीछे प्रधानमंत्री पद के भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी एक ‘बड़ा कारक’ हैं। राजे ने कहा कि मोदी एक बहुत बड़ा कारक है क्योंकि लोगों ने उनके द्वारा गुजरात में किया गया विकास देखा है। यह तो सेमीफाइनल है, फाइनल कुछ महीने में होगा और मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे। राजे के इस बयान से समझा जा सकता है कि मोदी इस चुनाव में कितने प्रभावी रहे और जनता को कितना अपने पाले में कर पाए।
कांग्रेस के करारी शिकस्त के बाद गहलोत का यह कहना कि यह कांग्रेस के खिलाफ कुप्रचार का परिणाम है, दिखाता है कि वो कितने हताश हैं और पराजय को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाए।
वहीं, राजे के लिए सूबाई राजनीति की राह कोई आसान नहीं रही। जिक्र योग्य है कि भितरघात के चलते उन्होंने पूर्व में पार्टी से इस्तीफा देने तक की घोषणा कर दी थी। परंतु बाद में पार्टी आलाकमान ने उनके नेतृत्व को पूरी तरह समर्थन देते हुए अशोक गहलोत सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए राज्य में उन्हें अपना मुख्य चेहरा बनाया। चूंकि पार्टी को यह मानना पड़ा कि सूबे में वसुंधरा राजे के सरीखा और कोई दूसरा कद्दावर चेहरा नहीं है।
राजस्थान की सबसे शक्तिशाली नेता बनने के पीछे उनके करिश्माई व्यक्तित्व और दृढ़ इच्छाशक्ति की भी बड़ी भूमिका मानी जाती है। इसके चलते ही उन्होंने अपने 30 वर्ष के लंबे राजनीतिक जीवन में पार्टी के भीतर और बाहर अपने विरोधियों से जमकर संघर्ष किया। राजस्थान में जब 2008 के विधानसभा चुनाव और बाद के लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन आशाजनक नहीं रहा था तो उनके विरोधियों ने इसके लिए वसुंधरा के नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया था, लेकिन ऐसी विफलताएं वसुंधरा के हौसलों को पस्त नहीं कर पाई। राजनीतिक संघर्ष के बीच वसुंधरा अब तक पांच बार लोकसभा चुनाव और तीन बार विधानसभा चुनाव जीत चुकी हैं। राजे और पार्टी की जीत की खूशबू फैलते ही प्रदेश में भाजपा के कार्यालयों के बाहर जश्न का माहौल छा गया।
साल 1984 में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में अपने राजनीतिक जीवन में कदम रखने वाली सिधिंया राज घराने की सदस्य वसुंधरा राजे लगातार इस पथ पर आगे बढ़ती रहीं और कभी पीछे मुड़कर कर नहीं देखा। भाजपा युवा मोर्चा की उपाध्यक्ष रहीं राजे ने संगठनात्मक ढांचे को करीब से देखा और अपनी मंजिल की ओर बढ़ती गईं। राजे को वर्ष 1987 में भाजपा की प्रदेश इकाई का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। राजे ने 2002 में राजस्थान में एक बार फिर पर्दापण कर भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाली। वर्ष 2003 में हुए राजस्थान विधान सभा चुनाव में अपनी पार्टी को शानदार जीत दर्ज करवा कर दिसंबर, 2003 में वह मुख्यमंत्री बनीं। अगले विधानसभा चुनाव में राजे को हार का सामना करना पडा और प्रतिपक्ष में बैठना पड़ा। उनके विरोधियों ने उन्हें ‘अंग्रेजी बोलने वाली महारानी’ का तमगा देकर उनका उपहास भी किया।
बता दें कि वसुंधरा के नेतृत्व में भगवा पार्टी ने 2003 में 200 में से 120 सीटें जीती थीं। इससे पहले राज्य में भाजपा को इतनी बड़ी सफलता पूर्व मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत के काल में भी नहीं मिल पाई थी। नौकरशाही पर मजबूत पकड़ रखने के कारण जहां वसुंधरा को एक योग्य प्रशासक माना जाता है वहीं कुछ लोग उन पर तानाशाही रवैया चलाने का आरोप लगाते हैं। कुछ शक्तिशाली जातीय गुटों के रुठने का खामियाजा बीजेपी को 2008 के चुनाव में भुगतना पड़ा था। संघ के करीबी समझे जाने वाले गुलाब चंद कटारिया की पिछले साल राज्य व्यापी यात्रा रद्द करवा कर अपनी मजबूती का संकेत दिया था। राजस्थान में अधिकतर विधायक जानते हैं कि वसुंधरा का व्यक्तितत्व कटारिया से अधिक करिश्माई है। यही कारण है कि अधिकतर विधायक अपने को वसुंधरा खेमे में रखना पसंद करते हैं। उन्हें बाद में पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया औॅर बाद में उन्हें पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया।
वसुंधरा की एक सबसे बड़ी खूबी यह भी है कि व्यक्तिगत तौर पर एक आधुनिक नेता होने के बावजूद ग्रामीण इलाकों में जाने और उनके पारंपरिक परिधान पहनने और उनके साथ आसानी से घुलने मिलने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। इस बार की भारी जीत में भी वसुंधरा के बदले अंदाज का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। अब वसुंधरा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि जिस तरह विधानसभा चुनावों में जनता ने उन्हें ताज सौंपा, क्या उसी तरह 2014 में लोकसभा चुनाव में भी ये वोट `मोदी के लिए वोट` में तब्दील हो पाएंगे।
First Published: Sunday, December 8, 2013, 18:07