बीजेपी का ये कौन सा चेहरा है?

बीजेपी का ये कौन सा चेहरा है?

बीजेपी का ये कौन सा चेहरा है?वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी अपने कौन से चेहरे के साथ वोटरों के बीच जाना चाहती है, इसकी एक बानगी आगरा की रैली में साफ तौर पर देखने को मिली। बीजेपी के पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह आखिर इस रैली में देर से क्यों पहुंचे और इसके पहले मंच पर बीजेपी ने अपने वोटों के गणित का हिसाब किताब किस तरह बिठाने की कोशिश की, इसे भी आसानी से समझा जा सकता है। इस पूरी पटकथा में बीजेपी की कार्यशैली के बारे में ये कहावत फिट बैठती है कि गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज़ करें। कैसे...इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है।

आगरा की इस रैली में बीजेपी के दावे के मुताबिक लाखों की भीड़ थी और इस भीड़ के बीच पार्टी ने जिन दो विधायकों को जिस अफरा तफरी में सम्मानित करवाया और मंच से फटाफट विदा कर दिया, इससे पार्टी की राजनीति समझी जा सकती है। मोदी और पार्टी अध्यक्ष के आने से पहले उन्हें रैली स्थल से विदा करके बीजेपी दरअसल पश्चिमी यूपी की राजनीति में मजबूत दखल रखने वाली एक जाति विशेष को संदेश देना चाहती थी, कि बीजेपी उनकी रहनुमा है। यहां ये बताना ज़रूरी है कि संगीत सोम और सुरेश राणा मुज़फ्फरनगर में हुई हिंसा मामले में आरोपी है और हाल ही में जमानत पर जेल से रिहा हुए हैं।

इस हिंसा के बाद से प्रदेश सरकार के रवैये को लेकर एक जाति विशेष में नाराजगी है और बीजेपी इस नाराजगी को अपने पक्ष में भुनाना चाहती है। सवाल ये कि क्यों उस वक्त तक का भी इंतज़ार नहीं किया गया कि मोदी रैली स्थल पर आ जाएं? ऐसा इसीलिए कि पार्टी अच्छी तरह जानती है कि आगरा में भीड़ नरेंद्र मोदी की रैली के लिए इकट्ठा हुई थी। लिहाजा नरेंद्र मोदी के आने से पहले आनन-फानन में आरोपी विधायकों को सम्मानित कर विदाई दे दी गई ताकि नरेंद्र मोदी ताल ठोंक कर विकास की राजनीति की बात कर सकें, ये कह सकें कि बीजेपी धर्म और जाति की राजनीति नहीं करती। इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि जब तक आरोपी विधायक रैली स्थल से नहीं गए ना तो मोदी ने रैली में आना उचित समझा ना हीं पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने। राजनाथ सिंह भी रैली में तब आए जब मोदी का भाषण शुरू हो चुका था। दरअसल ये दोनों नेता प्रांत या क्षेत्र विशेष की राजनीति करने से बचना चाह रहे थे।

आरोपी विधायकों सुरेश राणा और संगीत सोम को सम्मानित कराने के लिए जिन नेताओं का चुनाव किया गया उसके पीछे भी राजनीति ही थी। लक्ष्मीकांत वाजपेयी के हाथों सम्मानित किए जाने की चर्चा के बीच मंच पर सुरेश राणा और संगीत सोम को सम्मानित करने पहुंचे लालजी टंडन और कलराज मिश्र। लालजी टंडन लखनऊ से सांसद हैं वहीं कलराज मिश्र लखनऊ पूर्वी से विधायक। इन दोनों ही क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों की आबादी ज्यादा है, यानि यहां जीत अल्पसंख्यकों के समर्थन के बिना हासिल नहीं की जा सकती। तो क्या इसे बीजेपी के अंतर्कलह की एक मिसाल नहीं माना जाए? ये सब जानते हैं कि लालजी टंडन बीजेपी के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लोकसभा क्षेत्र से ही चुनाव लड़ते हैं। ये शिया बहुल इलाका है और जाति, संप्रदाय से ऊपर उठकर लोकप्रियता हासिल करने वाले अटल जी को शिया समुदाय का समर्थन हासिल था।बीजेपी का ये कौन सा चेहरा है?

अटल जी के व्यक्तित्व के इसी जादू का फायदा यहां से उनके शिष्य माने जाने वाले लालजी टंडन को भी मिला है। वहीं, कमोबेश यही हाल कलराज मिश्र का भी है जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में पहली बार चुनाव लड़ा और लखनऊ पूर्वी सीट से जीत हासिल की। लेकिन सवाल ये उठते हैं कि ऐसे प्रदेश में जहां जाति संप्रदाय के आधार पर ही चुनाव लड़ा जाता रहा है वहां आगरा की रैली में लाखों लोगों के सामने आरोपी विधायकों को सम्मानित कर बीजेपी ने एक संप्रदाय विशेष के जिस आक्रोश को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की है, उससे दूसरे संप्रदाय विशेष में नाराजगी नहीं फैलेगी?

दरअसल राजनीति की बिसात पर बीजेपी जो चालें चल रही है वो नई नहीं हैं। पहले भी इन्हीं चालों के बूते बीजेपी ने अपने विरोधी पार्टियों को मात देने की कोशिश की है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से तुरंत पहले बाबू सिंह कुशवाहा को बीजेपी में शामिल करने की तस्वीरें आपको याद होंगी, एनआरएचएम घोटाले में करोड़ों के वारे न्यारे करने के आरोप में बीएसपी से बाहर हुए कुशवाहा को बीजेपी ने बड़े धूमधाम से माला पहनाकर गले लगाया था, उस वक्त भी मकसद सिर्फ कुछ जाति विशेष के लोगों को बीजेपी से जोड़ना था लेकिन जैसे ही कुशवाहा को लेकर बीजेपी में अंतर्कलह शुरू हुआ चुपके से कुशवाहा को किनारे लगाने में भी बीजेपी ने देर नहीं की।

कल्याण सिंह और उमा भारती के साथ बीजेपी के रिश्ते तो जगज़ाहिर हैं। कभी इन नेताओं की कट्टर हिंदुत्व की छवि का फायदा उठाने के लिए तो कभी लोध जाति के वोटबैंक को साधने के लिए बीजेपी जरूरत के मुताबिक इन्हें अंदर बाहर करती रही है। अतीत में ऐसे ना जाने कई मौके आए हैं जब बीजेपी ने नफे नुकसान का हिसाब लगाकर ना केवल अपने बुनियादी उसूलों को ताक पर रखा है बल्कि मौका मिलने पर ये जाहिर करने से भी नहीं चूकी है कि उसने समझौते की कीमत चुकाई है। लेकिन बीजेपी को ये नहीं भूलना चाहिए कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।

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First Published: Friday, November 22, 2013, 22:52

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