अधर देवी: यहां विराजती हैं मां कात्यायनी

अधर देवी: यहां विराजती हैं मां कात्यायनी

अधर देवी: यहां विराजती हैं मां कात्यायनी अनिल कुनार ऐरन

राजस्थान के माउंटआबू का अर्बुदा देवी मंदिर, अधर देवी शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यता के मुताबिक यहां मां पार्वती के होठ गिरे थे। उसके बाद यह स्थान 51 शक्तिपीठों में शुमार होता है।

अर्बुदा देवी की पूजा मां कात्यायनी के रूप में होती है क्योंकि मां अर्बुदा मां कात्यायनी का ही रुप मानी जाती है और देवी दुर्गा के छठे स्वरूप के रुप में इनकी पूजा होती है। अर्बुदा देवी का मंदिर मां कात्यायनी के शक्तिपीठ के रुप में भी जाना जाता है ।

माउंटआबू से 3 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर स्थित है-अर्बुदा देवी मंदिर। अर्बुदा देवी, अधर देवी और अम्बिका देवी के नाम से प्रसिद्द है। यह मंदिर यहाँ के लोकप्रिय तीर्थ स्थलों में से एक है । यह मंदिर एक प्राकृतिक गुफा में प्रतिष्ठित है। साढ़े पांच हजार साल पहले इस मंदिर की स्थापना हुई थी।

पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक जब भगवान शंकर ने पार्वती के शरीर के साथ तांडव शुरू किया था तो माता पार्वती के होठ यही गिरे थे। तभी से ये जगह अधर देवी (अधर मतलब होठ) यानी अधर देवी के नाम से प्रसिद्ध है। अर्बुदा देवी की पूजा छठे दिन मां दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की होती है।

अर्बुदा देवी मंदिर तक जाने के लिए 365 सीढ़ियों का रास्ता है । रास्ते में सुंदर नजारों की भरमार है। जिसकी वजह से सीढियां कब खत्म हो जाती हैं पता ही नही चलता। ऊपर पहुंचने के बाद यहां के सुंदर दृश्य और शान्ति मन मोह लेती है और सारी थकान पल भर में ही दूर हो जाती है ।

ऐसी पौराणिक मान्यता है कि नवरात्र के दिनों में माता के दर्शन मात्र से सभी दुखों से मुक्ति मिल जाती है,श्रद्धालुओं की मुराद पूरी हो जाती है और उसे मोक्ष मिल जाता है। पूरे नवरात्र में यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ दर्शन के लिए उमड़ती है। नवरात्र के छठे दिन मां अर्बुदा यानि कात्यायनी के दर्शन के लिए सुबह से ही श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा होने लगती है। नवरात्र के बाद भी मां अर्बुदा की पूजा कई दिनों तक चलती रहती है। इस मौके पर श्रद्धालुओं का भारी जमावड़ा रहता है।

माता अर्बुदा देवी का यहां चरण पादुका मंदिर भी स्थित है जो श्रद्धालुओं की आकर्षण का केंद्र होता है। यहां माता अर्बुदा देवी की पादुका है जिसके नीचे उन्होने बासकली राक्षस का संहार किया था। मां कात्यायनी के बासकली वध की कथा पुराणों में भी मिलती है।

इस पादुका के पीछे पौराणिक कथा ये है कि दानव राजा कली जिसे बासकली के नाम से भी जाना जाता था,उसने जंगल में हजार सालों से तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न कर दिया। भगवान शिव ने उसे अजेय होने का वरदान दिया। बासकली इस वरदान को पाकर घमंड से चूर चूर हो गया। उसने वरदान हासिल करने के बाद देवलोक में इंद्र सहित सभी देवताओँ को कब्जे में कर लिया। देवता उसके उत्पात से दुखी होकर जंगलों में छिप गए।

देवताओ ने कई सालों तक अर्बुदा देवी को प्रसन्न करने के लिए हजार सालों तक तपस्या की। उसके बाद अर्बुदा देवी तीन रूपों में प्रकट हुई और उन्होने देवताओं से उन्हें प्रसन्न् करने का कारण पूछा। देवताओँ ने माता अर्बुदा से बासकली से मुक्ति का वर मांगा। माता ने देवताओं और ऋषियों से तथास्तु कहा। भगवान शंकर का वरदान पाकर शक्तिशाली हुए बासकली राक्षस को मां ने अपने चरण से दबा कर उसे मुक्ति दी। मां की जय-जयकार होने लगी और उसी के बाद से माता की चरण पादुका की यहां पूजा होने लगी।
अधर देवी: यहां विराजती हैं मां कात्यायनी

स्कंद पुराण के अर्बुद खंड में माता के चरण पादुका की महिमा खूब गायी गई है। पादुका के दर्शन मात्र से ही मोक्ष यानि सदगति मिलने की बात भी कही गई है। एक ऋषि ने मां भगवती की कठोर तपस्या की थी। जब दानव महिषासुर का संहार करने के लिये, त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ने अपने तेज का एक-एक अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था तब महर्षि कात्यायन ने ही सर्वप्रथम इनकी पूजा की थी। इसी वजह से ये कात्यायनी कहलायीं।

दुर्गा के छठे स्वरूप को कात्यायनी कहते हैं। यह महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। इस जन्म का उद्देश्य ऋषियों के कार्य को सिद्ध करना था। महर्षि ने इनका पालन-पोषण अपनी कन्या के रूप में किया। महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण इन देवी का नाम कात्यायनी पड़ा।

मां कात्यायनी के विषय में एक कथा प्रचलित है। प्रसंग सती के आत्माहुति से जुड़ा हुआ है। अपने पिता दक्ष की बातों से दुखी होकर सती यज्ञ की अग्नि में कूद गई थीं। क्रोधित महादेव सती के शरीर को लेकर जगह-जगह घूमने लगे। शिव के क्रोध की वजह से संसार में जन्म-मृत्यु की प्रक्रिया रुक गई। चिंतित देवता भगवान विष्णु के पास गए और उनसे कुछ उपाय करने को कहा। उसके बाद चक्रधारी भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के अंगों का विच्छेद कर दिया। इससे शिव का मोह भंग हो गया। प्रत्येक अंग अलग-अलग स्थान पर गिरे। जिस स्थान पर सती के बाल (कात्या) गिरे, वहां देवी कात्यायनी की पूजा की जाने लगी।

First Published: Tuesday, April 16, 2013, 17:42

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