Last Updated: Tuesday, August 21, 2012, 08:36
आलोक कुमार रावहर एक देश को कठिन दौर से गुजरना पड़ता है। कभी ऐसा वक्त भी आता है जब अपनों के बीच रहते हुए भी लोग उजड़ा और सहमा हुआ महसूस करते हैं। एक पल लगता है सभी साथ हैं और दूसरे पल किसी अनहोनी की आशंका उन्हें सैकड़ों मील पलायन करने के लिए मजबूर कर देती है। पूर्वोत्तर के लोग यह त्रासदी झेल रहे हैं।
असम हिंसा के बाद धमकी भरे एसएमएस, एमएमएस और कथित ब्लॉग्स ने पूर्वोत्तर के लोगों को इस कदर डरा दिया है कि वे देश भर से अपने मूल प्रदेशों में पलायन कर गए हैं या कर रहे हैं।
असम में जुलाई के महीने में बोडो और कथित बांग्लादेशी मुस्लिमों के बीच शुरू हुए संघर्ष और उसके दुष्परिणामों को एकबारगी समग्रता में देखने से पहले तोड़ कर भी देखा जा सकता है। एक स्थिति असम में हिंसा भड़कने से लेकर मुम्बई के आजाद मैदान में उपद्रव होने से पहले की हो सकती है और दूसरी उसके बाद की।
थोड़ा पीछे चलते हुए, असम के जिलों (मूल रूप से कोकराझार में) बोडो और कथित बांग्लादेशी मुस्लिमों के बीच भड़की हिंसा में आठ अगस्त तक 77 लोग मारे गए और करीब 400 गांवों से तकरीबन पांच लाख लोग विस्थापित हुए। हिंसा के विकराल रूप धारण करने और स्थितियों के नियंत्रण से बाहर जाने पर राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने केंद्र सरकार से गुहार लगाई और अर्धसैनिक बलों की मांग करते हुए यह आरोप भी मढ़ा कि केंद्र की सुस्ती के चलते स्थितियां गम्भीर हुईं।
अर्धसैनिक बलों की तैनाती के बाद स्थितियों के थोड़ा सुधरने पर प्रधानमंत्री ने हिंसा ग्रस्त इलाकों का दौरा किया और इस हिंसा को देश के माथे पर कलंक करार दिया। प्रधानमंत्री ने राहत पैकेज की भी घोषणा की। मनमोहन सिंह के बाद असम दौरे पर पहुंचे तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने वहां राहत, पुनर्वास एवं सुरक्षा स्थितियों का जायजा लिया।
प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के दौरे और व्यवस्था के सक्रिय होने के बाद ऐसा लगा कि स्थितियां 1994 एवं 2008 की तरह व्यवस्थित हो जाएंगी और जनजीवन पटरी पर लौट आएगा। वक्त बीतने के साथ हिंसा से मिले घाव भी भर जाएंगे और राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखी तो विवाद भी देर-सबेर सुलझ जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
असम की हिंसा से देश का ध्यान धीरे-धीरे हट ही रहा था कि 11 अगस्त को मुम्बई के आजाद मैदान में असम हिंसा के खिलाफ हुए हिंसक उपद्रव और प्रदर्शन ने सबको चौकन्ना कर दिया। असम हिंसा की आंच इस रूप में और मुम्बई में महसूस की जाएगी इसके लिए शायद कोई तैयार नहीं था। उन्मादी हुई भीड़ ने वाहनों में आगजनी की और मीडिया को भी निशाने पर लिया। पुलिस के साथ संघर्ष में दो लोगों की जान गई और दर्जनों घायल हुए। घायलों में पुलिसकर्मियों की संख्या ज्यादा थी।
इसके बाद सोशल नेटवर्किंग साइट्स और ब्लॉग पर हिंसा की तस्वीरें और फिर धमकी भरे एसएमएस-एमएमएस के जरिए मजहबी भावनाओं को उभार कर सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करने की जो घिनौनी चाल चली गई उसके दुष्परिणाम सामने हैं। पूर्वोत्तर के लोगों को निशाना बनाया जाने लगा। पुणे, बेंगलुरू और हैदराबाद में पूर्वोत्तर के लोगों पर हमले होने शुरू हुए। यही नहीं देश के कई हिस्सों में सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिशें की गईं।
मतलब साफ है कि दो समुदायों के बीच नफरत फैलाने वाले शरारती तत्व असम हिंसा के तुरंत बाद सक्रिय हो गए। मौके की नजाकत को देखते हुए सरकार और उसकी एजेंसियां भी सक्रिय हुईं और जांच-पड़ताल के बाद जो तथ्य सामने आए उससे पता चला कि सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट के जरिए उन्माद फैलाने की साजिश पड़ोसी देश पाकिस्तान में रची गई।
इस संबंध में केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह का बयान महत्वपूर्ण है। सिंह के मुताबिक चक्रवाती तूफान और अन्य हादसों में बोडोलैंड एवं म्यांमार में मारे गए लोगों की तस्वीरों को तोड़-मरोड़ कर और इसे असम हिंसा में मारे गए लोगों के रूप में सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट के जरिए फैलाया गया। सिंह ने कहा कि यह काम पाकिस्तान में किया गया।
सिंह के अनुसार ऐसी 76 वेबसाइटों को पता चला जिन पर विकृत तस्वीरें लगाई गईं और इनमें से ज्यादातर तस्वीरें पहली बार पाकिस्तान में अपलोड की गईं।
जाहिर है कि असम हिंसा के तुरंत बाद से ही भारत विरोधी तत्व सक्रिय हो उठे। उन्होंने इसके लिए आधुनिक मीडिया तकनीकों का सहारा लिया। उनकी साजिश पूर्वोत्तर के लोगों और अल्पसंख्यकों को हिंसा की जद में लेना और फिर पूरे देश में अराजक स्थितियां उत्पन्न करना हो सकता है।
यह दीगर बात है कि शरारती तत्व अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाए। उनके नापाक मंसूबों को भांप भारत सरकार ने कदम उठाने शुरू कर दिए। हालांकि सरकार के सुरक्षा आश्वासन के बाद पूर्वोत्तर के लोगों का पलायन कम हुआ है लेकिन थमा नहीं है।
देश के नागरिक कहीं भी खुद को असुरक्षित महसूस न करें और देश के किसी भी हिस्से में बिना भय के जीवन-बसर कर सकें, इसे सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी सरकारों की होती है। पूर्वोत्तर के हजारों लोग जो दहशत के माहौल में पुणे, हैदराबाद और बेंगलुरू से पलायन कर अपने मूल प्रदेशों में गए हैं। उनमें छात्रों से लेकर नौकरी-पेशे के लोग हैं।
ये वे लोग हैं जिनकी आंखों में भविष्य के सपने हैं या जिनका जीवन पटरी पर था। इनमें फिर से भरोसा पैदा करने की जरूरत है कि पूरा देश उनके साथ है और वे असुरक्षित नहीं हैं क्योंकि शरीर पर लगी चोट वक्त गुजरने के साथ भर जाती है लेकिन दिल में बनी गांठ बार-बार हूक जगाती है।
First Published: Monday, August 20, 2012, 18:11