आजाद हिन्दुस्तान में ‘आजादी’ की तलाश। Pravin Kumar

आजाद हिन्दुस्तान में ‘आजादी’ की तलाश

आजाद हिन्दुस्तान में ‘आजादी’ की तलाशप्रवीण कुमार

कांग्रेसी नेतृत्व के हाथों में राजनीतिक सत्ता आने के रूप में देश को जो आजादी मिली थी, उसके बाद 66 साल का समय बीत चुका है। सच्चाई को जानने और फैसला लेने के लिए साढ़े छह दशक से अधिक का समय बहुत होता है। इन साढ़े छह दशकों में हिन्दुस्तान में बहुत कुछ बदला, लेकिन अगर कुछ नहीं बदली तो वो है ‘गुलामी की मानसिकता’। 1947 का दाग-दाग उजाला आज संगीन अंधेरी रात की शक्ल ले चुका है। साम्राज्यवाद और देशी पूंजीवाद के राहु-केतु ने हिन्दुस्तान के विकास के सूरज को पूरी तरह से ग्रस लिया है। 66 साल पहले जो सवाल मशहूर शायर अली सरदार जाफरी ने पूछा था, वो आज भी पूरे देश की जनमानस का सवाल है-

कौन आज़ाद हुआ
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
मादरे-हिन्द के चेहरे पे उदासी वही।
कौन आज़ाद हुआ...

खंजर आज़ाद है सीनों में उतरने के लिए
मौत आज़ाद है लाशों पे गुज़रने के लिए
कौन आज़ाद हुआ...

दरअलस आजादी का झंडा बुलंद करने वाले राजनेताओं की बातों पर भरोसा करें तो विदेशी पूंजी निवेश के बिना न तो देश का विकास संभव है और न ही देश में रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। सच्चाई यह है कि यह एक प्रायोजित झूठ है। हकीकत यह है कि देश की पूंजी, अगर भ्रष्टाचार में बर्बाद नहीं हो तो देश का एक भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं रहेगा और यदि बेईमान लोगों के पास पूंजी जमा न होकर जब देश के ढांचागत विकास एवं व्यवसाय में लगे तो देश में इतनी समृद्धि आ जाएगी कि हम दूसरे देशों को पैसा ब्याज पर देने की स्थिति में होंगे।

जरा सोचिए, भारत इतना गरीब देश है कि सवा लाख करोड़ के नए-नए घोटाले आम हो गए हैं। क्या गरीब देश भारत से सारी दुनिया के लुटेरे व्यापार के नाम पर 20 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष ले जा सकते हैं? विदेशी बेंकों में जमा धन कितना हो सकता है? एक अनुमान के तहत करीब 280 लाख करोड़ कहा जाता है? पर यह सिर्फ स्विट्जरलैंड के कुछ बैंकों की ही रिपोर्ट है। समस्त बैंकों कि नहीं, इसके अलावा दुनिया भर के और भी देशों में भारतीयों का काला धन जमा है?

शहीदे आजम भगत सिंह ने हालांकि राष्ट्रीय आंदोलन के पूंजीवादी नेतृत्व (कांग्रेस) के बारे में काफी पहले आगाह करते हुए कहा था कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते में ही होगा। भगत सिंह और उनके साथियों ने अपने बयानों, पर्चों और लेखों में साफ तौर पर बताया था कि कांग्रेस के नेतृत्व में जो लड़ाई लड़ी जा रही है उसका लक्ष्य व्यापक जनता की शक्ति का इस्तेमाल करके देशी पूंजीपति वर्ग के लिए सत्ता हासिल करना है।

ये कैसी आजादी की बात हम कर रहे हैं जिसमें अरबों-खरबों के घोटाले, बुर्जुआ जातिवादी और कट्टरपंथी धार्मिक राजनीतिक के हथकंडे, सांप्रदायिक दंगे, दलित उत्पीड़न, महिलाओं के खिलाफ हिंसा का प्रकोप के बीच पूरा हिन्दुस्तान अपने होने के अस्तित्व से जूझ रहा है। जरा इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं- 15 अगस्त 1947 को भारत न सिर्फ विदेशी कर्जों से मुक्त था, बल्कि उल्टे ब्रिटेन पर भारत का 16.62 करोड़ रुपए का कर्ज था। आज देश पर 50 अरब रुपए से भी ज्यादा का विदेशी कर्ज है। आजादी के समय जहां एक रुपए के बराबर एक डॉलर होता था, आज एक डॉलर की कीमत 61 रुपए है। महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। प्याज 80 से 100 रुपए प्रति किलो इसी आजाद हिन्दुस्तान में बिक रहा है। पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। जल्द ही ये स्थित नहीं सुधरी तो हम मानसिक गुलामी से तो उबर नहीं पाए और आर्थिक गुलामी के चंगुल में फंस जाएंगे।

आजाद हिन्दुस्तान में आम आदमी को ना तो भूख से आजादी है और ना ही बीमारी से। शिक्षा के अभाव में वह अंधविश्वास का गुलाम बना हुआ है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी कन्या भ्रूण हत्याएं समाप्त नहीं हो सकी हैं और ना ही बाल विवाह और दहेज को लेकर महिलाओं का उत्पीड़न। इससे पूरा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का सवाल है, इसके लिए दिखाने को कानून बहुत से हैं पर यहां भी इन तबकों की आजादी पूरी नहीं समझी जा सकती।

विडंबना यह भी है कि सरकार आंकड़ों की भूल-भुलैया में आलोचकों को उलझाकर गद्दी पर बने रहना ही अपना कर्तव्य समझती है। बंधुआ मजदूर हो अथवा कर्ज में डूबे खुदकुशी करने वाले किसान या फिर गरीबी की सीमा रेखा के नीचे 20 रुपये रोज पर जिंदगी बसर करने वाले दिहाड़ी मजदूर, खुद को आजाद कैसे समझ सकते हैं भला? आजाद हिन्दुस्तान के 66वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर `आजादी की तलाश` एक बड़ा मुद्दा है। आइए, हम सब मिलकर गुम हुए ‘आजाद’ हिन्दुस्तान की तलाश करें।

First Published: Thursday, August 15, 2013, 10:30

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