Last Updated: Thursday, March 1, 2012, 06:18
दीप उपाध्याय ‘बनने वाला’ बड़ा है या ‘बनाने वाला’- उत्तर प्रदेश के नतीजों के बाद राष्ट्रीय राजनीति में इसी पर मोलभाव होने वाला है। 6 मार्च के बाद यूपी में कौन होगा औऱ यूपीए में कौन कौन होगा? -इसका जवाब इसी मोलभाव से निकलेगा। लेकिन बनने-बनाने के इस खेल में देश की तकदीर और तस्वीर बदलना तय है।
आजादी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश में इतने वोट पड़ रहे हैं। सुना है लड़कपन का पहला वोट ही इस बार लखनऊ की बागडोर का फैसला करने वाला है। इस बार यहां लैपटॉप है, इंडस्ट्री की उम्मीद है, एफडीआई का झगड़ा है। यहां ‘नखलऊ’ नहीं माया का पेरिस है। इस बार यहां रोम नहीं, राम नहीं...फिर भी साध्वी है। इस बार यहां राहुल का गुस्सा है…अमिताभ नहीं..अखिलेश है..ये नया उत्तर प्रदेश है..
इस नए उत्तर प्रेदश में वोट चाहे जितने पड़ें, लेकिन इनका हकदार एक नेता..एक पार्टी..या एक आंदोलन नहीं हो सकता। ये पक्की बात है कि 60, 70, 80 फीसदी वोट सिर्फ एक पार्टी या नेता के लिए नहीं पड़े हैं। इसी को दिमाग में रखते हुए एक नतीजा भी आउट हो चुका है- 50, 75, 125 और 150 यानी नए उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी को 150 (कुछ ज्यादा या कम) सीटें मिलने जा रही हैं। तो फिर दिक्कत किस बात की। 150 वाला 50 वाले से मिल जाएगा या 125 वाला 75 वाले से मिल जाएगा या फिर इसका उल्टा हो जाएगा और उस नए उत्तर प्रदेश की सरकार बन जाएगी जहां लाइनें लगा लगा के नए वोटरों ने जमकर वोट डाला है।
लेकिन इस बार खेल इतना आसान नहीं। 6 मार्च के जश्न या मातम का असर जाने कहां तक होगा, ये भविष्यवाणी करना किसी भी पंडित के बस का नहीं है। हो सकता है इस बार की होली का रंग अब लोकसभा चुनावों के बाद ही उतरे। चुनाव उत्तर प्रदेश के हैं, लेकिन लहरें दक्षिण से पूरब के प्रदेशों तक उठ रही हैं। ट्रेड यूनियनें हड़ताल कर रही हैं, संघ पर राज्य हावी हैं, सरकार छोटी और विपक्ष बड़ा हो रहा है, जीडीपी, सब्सिडी के माहिरों को नींद नहीं आ रही, तेल के दाम बेलगाम होने को बेकरार हैं, महंगाई पर लगी चुनावी लगाम कभी भी छूट सकती है। यानी देश की राजनीति में हाल के वर्षों का सबसे ज्यादा अनिश्चितता का वक्त दस्तक दे रहा है।
अनिश्चितता का आलम ये है कि पंजाब , उत्तराखंड और गोवा जैसे छोटे राज्यों की आवाज भी साफ नहीं सुनाई दे रही है। कहीं ऐसा ना हो कि देहरादून से लखनऊ औऱ दिल्ली तक ‘बनने’ और ‘बनाने वाले’ एक हो जाएं। इशारा बीएसपी की तरफ है। देहरादून में अगर वो कुछ उधार दे पाई तो लखनऊ में सत्ता तक पहुंचने के लिए अपना हिस्सा जरूर मांगेगी। इस गणित में ये भी याद रखना है कि राष्ट्रपति औऱ उपराष्ट्रपति ‘बनाने वालों’ में बीएसपी का रोल काफी अहम होने वाला है। ऐसे में हो सकता है हाथी को लेकर राहुल का गुस्सा धरा का धरा ही रह जाए औऱ आखिरकार हाथी की पूंछ पकड़ कर ही कांग्रेस को आगे की चुनावी वैतरणी पार करनी पड़े।
असल में इन चुनावों में सबसे बड़ा संकट कांग्रेस के लिए ही है। वो 50 रहे चाहे 75, यूपी में ‘बनाने वाले’ की भूमिका निभाना उसकी मजबूरी हो गई है। उसे एक तरफ ममता को साधना है तो दूसरी तरफ राज्य सभा में अपने नंबर ठीक करने हैं। राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति की गद्दी के लिए क्षत्रपों की ताकत का जुगाड़ करना है तो आने वाले लोकसभा चुनाव में अपनी राजनीति का रास्ता भी चुनना है। कांग्रेस अगर सपा या बसपा के साथ जाती है तो यूपी में राहुल ने जितनी मेहनत की है वो सब पानी में जाएगी औऱ नहीं जाती है तो फिर दिल्ली में उसे कौन बचाएगा औऱ खुदा ना खास्ता इस चुनाव से कुछ नहीं बन पाया तो राष्ट्रपति शासन का पाप भी उसी के माथे मढ़ा जाएगा।
बीजेपी को फिलहाल यूपी में किसी का पिछलग्गू बनने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। उस पर कांग्रेस जैसा कोई दबाव नहीं है। उसे जरूरत है तो सिर्फ अपना घर संभालने की औऱ अगर उत्तराखंड औऱ पंजाब में उसका खेल जम जाए तो यूपी में वो बाहर खड़े होकर ‘बनने’ और ‘बनाने वालों’ के तमाशे का मजा लेगी। बड़ा फायदा भी इसी में है। लेकिन अगर यूपी में वो नंबर-4 रह गई, उत्तराखंड औऱ पंजाब में भी लुटिया डूब गई तो संकट कांग्रेस से बीजेपी में शिफ्ट हो सकता है। तब उसके सामने पहली चुनौती होगी कर्नाटक में अपनी सरकार बचाने की। पार्टी को आंख दिखा रहे येदियुरप्पा को संभालना फिर बेहद मुश्किल हो जाएगा। गडकरी की कमान पर सवाल उठाने वालों की आवाज़ में खनक आ जाएगी। ऐसी सूरत में बीजेपी भी नहीं चाहेगी कि समय से पहले ही लोकसभा चुनाव हो जाएं।
लेकिन बड़ी बात ये है कि फिलहाल बीजेपी या कांग्रेस के चाहने ना चाहने से बहुत कुछ होने वाला नहीं है। असल में एफडीआई औऱ एनसीटीसी जैसे मुश्किल लफ्जों को देसी राजनीति का हथियार बना रहे क्षत्रप कांग्रेस-बीजेपी से ज्यादा धारदार नजर आने लगे हैं। इनमें से एक के पास यूपीए सरकार की धड़कनें हैं तो बाकी दिल्ली पर दबदबा बनाने को बेकरार हैं। अनिश्चितता के इस माहौल में पटनायक-ममता औऱ जया की चिट्ठी-पत्री सबसे ‘इंपॉर्टेंट’ हो गई है। दीवार पर साफ-साफ लिखा दिख रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति की पिच पर ‘तीसरा’ अपना करतब दिखाने को मचल रहा है। इमेज की मारी कांग्रेस को मिस्टर क्लीन पटनायक की चिट्ठी यूपी के नतीजों से ज्यादा डरा रहा है। कहीं राष्ट्रीय राजनीति के अगले नायक के बीज उड़ीसा में तो नहीं पड़ गए हैं? कहीं बीजू पटनायाक का मलाल उनके पुत्र तो खत्म नहीं करेंगे ? क्या राजनीतिक स्थिरता का रास्ता तीसरे दरवाजे से होकर ही निकलेगा ? उस वक्त फिर वैसा ही होगा जैसा अभी उत्तर प्रदेश में होने की संभावना है। शायद उस वक्त भी कांग्रेस को मजबूरन ‘बनाने वाले’ का रोल ही निभाना पड़े।
(लेखक ज़ी न्यूज में एडिटर, आउटपुट हैं।)
First Published: Monday, March 5, 2012, 11:43