एक आन्दोलन की मौत - Zee News हिंदी

एक आन्दोलन की मौत

 



संजय पाण्डेय

 

12 फरवरी 1922 गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया, अंग्रेज़ो के दांत खट्टे करने वाले इस आन्दोलन के अचानक खत्म होने से पूरा देश हतप्रभ था। साल 1920-असहयोग आन्दोलन की शुरुआत- गाँधी जी की एक आवाज़ पर भारत उठ खड़ा हुआ। आजादी का सपना सजोंए युवाओ ने जेले भर दीं, सरकारी नौकरियों पर लात मार कर युवा सड़कों पर उतर आए। भविष्य की परवाह न कर, माँ बाप ने सरकारी अंग्रेजी स्कूलों से अपने बच्चो को निकाल लिया। भारतीयों को बड़ी आस थी इस आन्दोलन और महात्मा से लेकिन गाँधी जी ने आन्दोलन से हाथ वापस खींच लिया और बड़ी सख्या मे नौकरियों और पढ़ाई से मरहूम युवा सड़क पर हाथ में आजादी की तख्तियां लिए ठगा सा खड़ा रह गया।

 

आज भी इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है कि जिस भारतीय ने अपने और परिवार के सपने गिरवी रख कर, आजादी का सपना देखा था उस पर क्या बीती होगी, आखिर उनकी गलती क्या थी। चौरा-चौरी में पुलिस स्टेशन पर हुआ हमला इतना बड़ा भी नहीं था कि पूरा आन्दोलन ही खत्म कर दिया जाता फिर क्यों महात्मा ने लगभग सभी सहयोगियों की राय से अलग फैसला लिया। गांधी जी पर देश की जनता को धोखा देने के आरोप लगाए जाने लगे, उनकी साख को भारी खतरा पैदा हो गया, फिर भी उन्होंने अपनी इज्‍जत से ज़्यादा आन्दोलन की साख बचाने की हरभरसक कोशिश की, और जब आन्दोलन की साख बचाई न जा सकी तो उसे खत्म कर दिया। महात्मा जानते थे कि व्यक्ति और आन्दोलन से ज्यादा महत्वपूर्ण लक्ष्य है और लक्ष्य को पाने के लिए ‘लोगों को’ और ‘लोगों की’ कुर्बानी देनी ही पड़ती है, फिर चाहे वो खुद ही क्यों न हो।

 

सन् 2011, असयोग आन्दोलन के 91 बरस बाद- भारत में फिर एक नया आन्दोलन उभरा। भष्ट्राचार से आजादी का आन्दोलन, समय अलग, मुद्दे, नेता और कलेवर भी अलग, लेकिन छटपटाहट वही। लड़ाई का तीखापन और संघर्ष का भाव भी वही। सुबह-सुबह प्रभातफेरियों में नारे लगाते बुजु़र्ग। हाथों मे तिरंगा थामे, सीने पर गोली झेलने की कसमें खाते युवा। छोटे- छोटे हाथों में मोमबत्ती थामे बच्चे, महिलाएं सब के सब जैसे भष्ट्राचार के विरोध मे उठ खड़े हुए। जोश इतना अधिक कि नारे लगाने वालों के गले रुंधने लगते और आँखे डबडबा जाती। लोग अन्ना में महात्मा की छवि देखने लगे। राजघाट से शुरु हुआ ये आन्दोलन तिहाड़ जेल होते हुए रामलीला मैदान पहुँच गया। लगा दिल्ली की सड़कें रामलीला मैदान की ओर मुड़ गई। दूसरे शहरों से भी समर्थक पहुंचे। मी़डिया का सहयोग भरपूर रहा। जबर्दस्त जनआक्रोश के आगे सरकार झुकी ओर लगा जंग जीत ली गई।

 

आमरण अनशन तोड़ अन्ना ने मंच से हुंकार भरी की आधी लड़ाई जीत ली गई है, बाकि की लड़ाई जारी रहेगी। अनशन तुड़वाने के नाम पर हुई अनगिनत बैठकों, सरकारी मंत्रियों और टीम अन्ना की हठों और खीज के बीच भष्ट्राचार का मुद्दा कहां गायब हो गया पता ही नहीं राजनीति और धर्म से कोसों दूर रहने की कोशिशें भी धरी रह गई, रामलीला मैदान पर जन्माष्टमी और रोज़ा इफ्तार दिखावा लगने लगा, रही सही कसर, अन्ना को जूस पिलाने आए बच्चिओं का धर्म और जाति बता कर पूरा कर दी गई। आनन-फानन में जीत के नारों के बीच रामलीला मैदान खाली हो गया और छोड़ गया अनमनी सरकार, बौखलाई कांग्रेस, मुसकराती बीजेपी, मूछों पर ताव देती आरएसएस और अन्ना टीम के नाम से मशहूर हुए चंद नए तथाकथित नेता।

 

अन्ना की चमक और जन भावनाओ का ज्वार इतना ज्यादा था कि किसी ने आन्दोलन की कमियों पर खा़स ध्यान ही नहीं दिया। अन्ना टीम के रुतबे में जबर्दस्त इज़ाफा हुआ, लगा आज़ादी के बाद से जो काम कोई राजनेता न कर सका वो टीम अन्ना के नेता कर दिखाएंगे। भष्ट्राचार से छुटकारा बस अब मिलने को है। पर ये चमकीले नक्षत्र, चालीस-पचास दिन भी अपनी चमक कायम नही रख सके। अनर्गल बयानबाज़ी, राजनीति करने के आरोप पर टीम से त्यागपत्र, चंदे के हिसाब को लेकर एक दूसरे को गरियाते और ऊपर से नित नए घपलो के आरोप, टीम अन्ना ने आन्दोलन के नेतृत्व का नैतिक अधिकार बस कुछ ही दिनों में खो दिया। यहां सवाल टीम अन्ना का नहीं बल्कि भ्रष्‍टाचार के खात्‍मे के इरादे से उभरे आन्दोलन की साख का है। इतिहास गवाह है कि जो आन्दोलन अपनी साख और शुचिता कायम नहीं रख पाता वो या तो भटक जाता या जल्दी ही दम तोड़ देता है। महात्मा गांधी ने भी यही राह चुनी थी, जब उन्हें लगा कि असयोग आन्दोलन भटक रहा है तो उन्होंने खुद ही उसे खत्‍म कर दिया। आज अन्ना के सामने भी ठीक वैसा ही सवाल है जो कभी गांधी जी के सामने था, कि जनता का विश्वास खो चुके, इस भ्रष्‍टाचार विरोधी आन्दोलन को चलाएं या समाप्त कर दें।

 

 

इस ऐतिहासिक समय में अन्ना ने गांधी की परिपाटी से अलग, भ्रष्‍टाचार विरोधी आन्दोलन को आगे बढ़ाने का रास्ता चुना, बल्कि एक कदम ओर आगे बढ़ कर टीम अन्ना पर लगे आरोपों को सरकारी षड़यंत्र का हिस्सा तक बता डाला। अपनों को बचाने का चलन भारतीय राजनीति में नया नहीं हैं। अन्ना भी उसी का एक हिस्सा भर नजर आते हैं। संसद और सांसदों का मज़ाक बनाने वाली किरण बेदी यात्रा के नाम पर वसूले गए अवैध पैसे को वापस लौटाने की बात कर रही है। उन्हें लगता है कि इतना भर कर देने से सारे पाप धुल जाएंगे। होना तो यह चाहिए था कि किरण बेदी को खुद को आन्दोलन से अलग कर लेना चाहिए था, इससे आन्दोलन को ताकत ही मिलती लेकिन जब टीम अन्ना की राजनीतिक महत्वकांक्षा चरम पर हो तब ऐसी आशा बेमानी है। तर्क पुराने हैं, विरोधियों की कारगुज़ारी है, मैनें कोई गलत काम नहीं किया, मेरी जांच करा लो, मैं लाभार्थी नहीं हूँ वगैरह वगैरह। सुन सुनकर कान पक चुके हैं लेकिन राजनीतिक शुचिता की कमान संभाले अन्ना का आंकलन चौंकाने वाला है, उन्हें किरण की कारगुज़ारियो में अपराध नहीं राजनीतिक पीड़िता दिखाई देती हैं। अन्ना का किरण सरीखे लोगों के कारनामों को समर्थन, भ्रष्‍टाचार आन्दोलन के ताबूत मे आखिरी कील साबित होगा।

 

ये ठीक है कि लोग भष्ट्राचार से तंग आ चुके थे और उससे निजात चाहते थे, इसके लिए उन्होंने किसी राजनेता की जगह अन्ना को अपना नेता चुना वजह साफ थी, जनता एक ऐसा लीडर चाहती थी जो हर तरह से निश्कलंक हो और अपनी पाक साफ छवि के लिए जाना जाता हो। भ्रष्‍टाचार विरोधी आन्दोलन को मिला भारी जन-समर्थन, अन्ना की समाजसेवी और संत जैसी छवि की वजह से ही था। उधर, टीम अन्ना के एक प्रमुख सिपहसालार, केजरीवाल साहब के हाल ही में दिए इस बयान पर गौर फरमाइए- इस देश में क्या केवल संत ही सवाल पूछ सकते हैं क्या टैक्स चोरों को सवाल पूछने का कोई हक नहीं। वे शायद भूल रहे हैं कि असयोग आन्दोलन से लेकर भ्रष्‍टाचार विरोधी आन्दोलन तक, जन-समर्थन गांधी और अन्ना जैसे नायकों की वजह से ही मिला था न कि केजरीवाल और किरण बेदी जैसे लोगों की वजह से। आडवाणी भी तो भष्ट्राचार के खात्‍मे के लिए रथ लेकर देश भर घूम रहे हैं, मगर येद्दियुरप्पा और पोखरियाल की वजह से उनका दम फूला हुआ है। उधर कांग्रेस, भष्ट्राचार के खात्‍मे के लाख नारे लगाती रहे पर 2जी और कॉमनवेल्‍थ की तलवार उनके सिर पर लटकी रहती है। देश असमंजस की स्थिति में है, वो विश्वास ही नहीं कर पा रहा कि जिस अन्ना टीम के नेताओं के पीछे वो कतार बना कर खड़ा था, वे नेता भी दरअसल उसी भष्ट्र तंत्र का हिस्सा हैं, जिसके खिलाफ वो लड़ाई लड़ रहा था। ऊधर, अन्ना का अपनी टीम को आंख मूंद कर समर्थन भी उसकी समझ से परे है।

 

तो क्या भष्ट्राचार विरोधी आन्दोलन यूं ही दम तोड़ देगा, क्या ये देश भष्ट्राचार के शिकंजे मे हमेशा फंसा रहेगा। क्या आगे कोई रास्ता नहीं बचा। इतना निराश होने की भी जरूरत नहीं, असहयोग आन्दोलन के 27 बरस बाद हमें आजादी नसीब हुई थी और भ्रष्‍टाचार की जड़ें तो सैकड़ों साल पुरानी हैं। आजादी के आन्दोलनों से मिला सबक हमें बताता है कि प्राप्त किए जाने वाला लक्ष्य, आन्दोलनों से बड़ा होता है और इसे पाने के लिए चाहे कितने ही आन्दोलन क्यों न चलाने पड़े। ये लंबी लड़ाई हैं, देश को सब्र से काम लेना होगा, साथ ही ये सुनिश्चित करना होगा की आन्दोलन कहीं गलत हाथों में न पड़ जाए। आगे और बड़े आन्दोलन खड़े होंगे जो लोकपाल बिल पास कराने से कहीं बड़े टारगेट यानि सीधे भष्ट्राचार पर निशाना साधेंगे। गांधी जी की ही तरह, अन्ना को भी, इस भटके हुए और अपनी मौत मर रहे आन्दोलन को खत्म कर देना चाहिए। अन्ना का ये फैसला, भष्ट्राचार से लड़ाई में मील का पत्थर साबित होगा और देश को भष्ट्राचार उन्मूलन की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाएगा।

 

(लेखक ज़ी न्‍यूज में एक्‍जीक्‍यूटीव प्रोड्यूसर हैं)

 

First Published: Friday, October 28, 2011, 14:03

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