कश्मीर और आतंक पर प्रधानमंत्री की हुंकार

कश्मीर और आतंक पर प्रधानमंत्री की हुंकार

कश्मीर और आतंक पर प्रधानमंत्री की हुंकार वीरेन्द्र सिंह चौहान

दुनिया की सबसे बड़ी मगर सबसे कमजोर पंचायत अर्थात संयुक्त राष्ट्र महासभा में में दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन शनिवार को कुछ विषयों पर दो टूक बोलते सुने गए। पहला विषय यह कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और यह बात सबको साफ साफ समझनी होगी। दूसरा यह कि किसी भी सूरत में भारत की क्षेत्रीय अखंडता से समझौता नहीं किया जाएगा। और तीसरा यह कि पाकिस्तान हमारे पड़ौस में आतंकवाद का एपिसेंटर है और उसे अपनी भूमि से आतंका का कारोबार समेटना होगा।

तीनों ही बातें जिस ढंग से कही गई उन्हें सुन कर आम भारतीयों को खासा सुकून मिला होगा। खासकर युवा पीढ़ी को जो इन सवालों पर दिल्ली के आचरण ही नहीं खोखले वचनों से भी बहुत आहत और परेशान है। विदेशी भूमि पर जाकर ही सही, देश की इस शाब्दिक-सेवा के लिए प्रधानमंत्री महोदय को प्रथम दृष्टया साधुवाद दिया जा सकता है। मगर वे जिन्हें इस वाक्य-विलास से बाहर की जमीनी स्थिति का एहसास है, पल भर से अधिक डा. मनमोहन सिंह के अभिनंदन-वंदन में खड़े नहीं रह सकते। ऐसा इसलिए चूंकि जमीनी तथ्य और घरेलू सियासी सच्चाई भारत सरकार के इन तेवरों की कतई गवाही नहीं देती।

सबसे पहले जम्मू कश्मीर की भारत के साथ अभिन्नता के सवाल को ही लीजिए। संवैधानिक और कानूनी रूप में गिलगित-बाल्टिस्तान व पाक अधिकृत दूसरे क्षेत्र ही नहीं पाकिस्तान द्वारा चीन को सौंपे गए बड़े भूखंड तक सब भारत के अभिन्न अंग हैं। महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय पत्र पर दस्तखत किए जाने के बाद से उनकी पूरी रियासत की एक-एक इंच भूमि भारत है और उसमें बसने वाले लोग भारतीय। याद रहे कि भारत में राज्य के विलय को वहां की संविधान सभा ने भी अंतिम और अपरिवर्तनीय करार दिया था। भारत की संसद भी एक सुर में 1994 में इस बात को दोहरा चुकी है। मगर महासभा में क्षेत्रीय अखंडता को अक्षुण्ण रखने का दम भरने वाले प्रधानमंत्री के मुख से इस संबंध में एक भी शब्द नहीं फूटा। पाकिस्तान और चीन अधिकृत जम्मू कश्मीर की जमीन खाली हुए बगैर क्या अखंडता के साथ समझौता न करने की बात के कोई अर्थ शेष रह जाते हैं?

इस प्रश्न पर चौकन्ने देशवासियों की पीड़ा महज इतनी नहीं है कि हमारे प्रधानमंत्री इस जमीनी सच्चाई से मुंह मोड़ कर अखंडता की खोखली हुंकार भर आए हैं। इससे गहरा दर्द तो उनकी विदेश यात्रा के दौरान उनकी पीठ के पीछे जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला दे गए। यूरोपियन यूनियन के एक प्रतिनिधिमंडल के सामने उमर ने तो भारत में रियासत के विलय पर ही सवाल उठा दिया।

यदि विलय नहीं हुआ था तो प्रधानमंत्री किस अभिन्नता की बात कर रहे हैं। फिर संसद के तमाम प्रस्ताव भी निरर्थक हैं। मगर चूंकि राज्य सरकार में कांग्रेस उमर की भागीदार है, शायद इसलिए उमर अब्दुल्ला को तुरंत राजनीतिक-झिड़क लगाने का काम डा. सिंह या उनके किसी वरिष्ठ सहयोगी ने नहीं किया।

इससे अधिक पीड़ादायक बात और क्या होगी कि भारत की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा महज भाषणों और वक्तव्यों में हो रही है और वह भी आधी अधूरी। धरातल पर देखिए तो कहीं हमारी धरती पर पाकिस्तान काबिज है और कहीं चीन। इतना ही नहीं हमारी जमीन को लेकर लेन-देन और समझौते इन देशों के बीच में हो रहे हैं और हम हैं कि मौन तोडऩे तक का साहस नहीं जुटाते। सच बात तो यह है कि देश की क्षेत्रीय अखंडता एक से अधिक मोर्चों पर न केवल पहले से चकनाचूर है बल्कि उस पर अब भी लगातार आघात हो रहे हैं।

अंत में आइए बात आतंक की जननी या गढ़ या उसके सरकारी ठेकेदार बताए जा रहे पाकिस्तान की कर ली जाए। प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि जिस पाकिस्तान को वे आतंक का ऐपिसेंटर कह रहे हैं उसके प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से बतियाने को वे लालालियत क्‍यों दिखे? बातचीत भी उन परिस्थितियों में जबकि वहां की फौज आए दिन सीमा पर युद्ध विराम का उल्लंघन कर रही है। जिस देश से घुस आए आतंकियों ने चंद रोज पहले ही नागरिकों, पुलिस कर्मचारियों, सैनिकों और सेनाधिकारियों को मौत के घाट उतारा हो, उनके मातम के परिवेश में हत्यारों के देश के प्रधानमंत्री के साथ नाश्ते की मेज पर बैठने का क्या अर्थ है? इसे शायद कुछ लोग शायद कूटनीति कहेंगे। मगर इसमें न कहीं नीति है और न ही कहीं कूटत्व। यहां सब कुछ शीशे की तरह साफ है और वह है विदेश नीति और सीमाओं के सवाल पर दिशाहीनता।

(इस आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी हैं)
(लेखक जम्मू-कश्मीर मामलों के अध्येता और शिक्षाविद हैं)

First Published: Monday, September 30, 2013, 21:07

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