Last Updated: Sunday, November 20, 2011, 06:59
इन्द्रमोहन कुमार भारत में क्रिकेट खेल से बढ़कर एक जुनून है। इसे एक धर्म तक की संज्ञा दे दी गई। अब सभी कोशिश कर रहे हैं कि यह आलम बना रहे। बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब भारत में क्रिकेट विश्वकप 2011 का मैच खेला गया। इस दौरान भी कई मैचों में खाली स्टेडियम को देखकर लगा कि इस खेल से लोग दूरी बना रहे हैं। क्रिकेट विश्वकप शुरू होने से पहले लोग कहने लगे थे कि टी-20 के आने के बाद अब एकदिवसीय क्रिकेट के दिन खत्म हो गए हैं। मगर क्रिकेट के आला अधिकारियों और खिलाड़ियों को उम्मीद थी कि अगर भारत यह खिताब जीत जाता है तो यह खतरा भी खत्म हो सकता है।
अब जाने कब दिखेगा ऐसा नजारा: यह तस्वीर है ईडेन गार्डेन में 1996 विश्वकप का, जब भारत सेमीफाइनल में बाहर हो गया था।
फिर भी भारत के लीग मैचों के अलावा अन्य किसी भी टीम के मैच के दिन स्टेडियम पूरा भरा नहीं दिखा। हालांकि भारत जैसे-जैसे श्रृंखला में आगे बढ़ता रहा, रोमांच बढ़ता गया। फिर भी कहना होगा कि विश्वकप के बाद क्रिकेट में फिर वैसी भीड़ नहीं दिखी। पिछले दिनों इंग्लैंड और वेस्टइंडीज के साथ हुए मैच इस बात के गवाह हैं।
अब आइए इसके कुछ कारण खोजते हैं। जो सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है वो है अत्यधिक क्रिकेट खेला जाना। खिलाड़ी, अधिकारी, बोर्ड और पूर्व दिग्गज भी मान रहे हैं कि हाल के दिनों में कुछ ज्यादा क्रिकेट खेली जा रही है। खिलाड़ियों के फिटनेस से लेकर उनके खेल और प्रदर्शन पर भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। निरंतर खेल में निरंतर अच्छा प्रदर्शन देखने को नहीं मिलता है। युवराज सिंह से लेकर सचिन तेंदुलकर तक इसके उदाहरण हैं। ये बात अलग है कि सचिन आज जो भी खेल रहें है वो रिकॉर्ड ही बन रहा है।
हाल ही में भारत-वेस्टइंडीज कोलकाता टेस्ट के पहले दिन तक मात्र 98 टिकट की बुकिंग हुई थी। घरेलू मैदान पर भारत के मैच में ऐसी दिलचस्पी चिंताजनक है। एक समय था जब भारत में रणजी ट्राफी मैच देखने के लिए भी दर्शकों की भारी भीड़ जुटती थी। तब दर्शक टीवी पर अपना चेहरा दिखाने के लिए अपने चेहरे पर तिरंगा नहीं बनवाते थे और न ही अजीबो-गरीब हरकतें करते थे। राजधानी के फिरोजशाह कोटला मैदान और कानपुर के ग्रीन पार्क में 70 के दशक के मैच देखने के लिए भारी भीड़ जुटती थी। वह जुनून तो अब खत्म ही हो गया है। अब दिलीप और देवधर ट्राफी क्या टेस्ट के मैच देखने के लिए गिनती के दर्शक जुट पाते हैं।
एक सच यह है कि अब खिलाड़ी खेलने से बचने के तमाम बहाने खोजते हैं। मगर ये चोटिल होने पर भी आइपीएल में खेलने से परहेज नहीं करते, क्योंकि हमें आपको सब को पता है कि वहां पैसा बोलता है।
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि क्रिकेटरों के काम का बोझ बढ़ाकर हर तरह के संस्करण के रूप में और हर मौसम में खेलने को क्रिकेट की राशि से जोड़ा गया है। टेस्ट क्रिकेट व एकदिवसीय प्रारूप के शुरूआत के साथ भी यही काम किया गया। मगर दूसरा तथ्य यह है कि इस खेल को जिंदा रखने की भी जरूरत थी, जिसे लोग धीरे- धीरे मानने लगे।
अभी क्रिकेट को एक और क्रांति की अवधि में देखा जा रहा है। सन् 2000 के बाद खेल का एक फटाफट संस्करण टी-20 की शुरुआत की गई। फुटबॉल और रग्बी की तरह कम अवधी का यह प्रारूप काफी लोकप्रिय हुआ। मगर इस रोमांच का एक दूसरा पक्ष भी देखने को मिला। क्रिकेटरों को इससे अतिरिक्त कमाई हो रहे हैं। हर किसी को अब डर है कि ज्यादातर क्रिकेटरों का भविष्य या करियर कम हो रहा है। शांत क्रिकेट कौशल के दिखावे के लिए अनुमति नहीं देता है, अधिक जोखिम और दिन ज्यादा मायने रखता है। मगर सवाल है कि दर्शक इन सबके बीच है कहां?
आईसीसी दिन-रात टेस्ट शुरू करने की सोच रही है, मगर व्यस्त लोग सारा दिन काम करते हुए रात में देखने बैठेंगे या नहीं, यही डर है। जो भविष्य में इस प्रारूप खेलेंगे, वे भी आश्वस्त नहीं है कि कोई भी इसे पूरा कर सकते हैं या नहीं ? पाकिस्तान के पूर्व कप्तान वसीम अकरम की राय है कि भारत के तेज गेंदबाजों के घायल होने में बहुत अधिक क्रिकेट खेलना बड़ा कारक है। उनका नदारद रहना भी दर्शकों पर असर करता है। इसका उदाहरण जहीर खान हैं। दर्शक तो यहां अपने स्टार खिलाड़ी को देखना चाहते हैं। तो क्या आप खाली स्टेडियमों के लिए खेलते हैं और टेलीविजन पर एक भाग्य का भुगतान कर खेल को देखती है? यह खेल मृत हो सकता है अगर आप यह सोचते हैं कि दर्शक मैदान में नहीं आते है।
..और यह नजारा है भारत में आयोजित 2011 विश्वकप का जब भारत ने यह खिताब अपने नाम किया।
पूरी दुनिया में टेलीविजन कंपनियां क्रिकेट से रकम जुटा रही हैं, पर क्रिकेट ताक पर है। सब कुछ के बाद मैच से पहले शो के साथ 10 घंटे का एक खेल भरता है, तो प्रशासकों को खेल को बेचने के अलावा कुछ नहीं करना है। टीवी कंपनियां सिर्फ अधिकारियों के लिए अधिक से अधिक पैसा बोली रखने पर जोर देती है। तो क्या भविष्य में यह खेल दुखी करेगा? और अगर फिंक्सिंग का फांस दिखेगा तो दर्शक कम होंगे ही।
भारत में क्रिकेट का मक्का कहा जाने वाला ‘कोलकाता- ईडन गार्डेन हमेशा दर्शकों से भरा रहता था, 1,00,000 लोग भीतर और 10,000 से ज्यादा बाहर। सभी जगह भरी रहती थीं। अब दर्शक दीर्घा में काफी कम क्रिकेट प्रेमी दिखाई देते हैं। यही वह मैदान और स्टेडियम है जहां क्रिकेट का जुनून दिखता था। आज आप यह माने या नहीं पर क्रिकेट से दर्शक दूरियां बना रहे हैं।
यह प्रशंसक है। सिर्फ इतना पता है, अगर उन्हें क्रिकेट में डाल दिया तो फिर टेलीविजन हो या स्टेडियम वो रोमांच चाहेंगे, मगर कंपनियों रकम जुटाने के लिए यह कर रही हैं। अब ईएसपीएन, निंबस, सोनी, नियो और प्लस मिल गया है। वे सभी भारत में क्रिकेट के लिए रकम जुटा रहे हैं। तो यह एक बोली युद्ध है। अगर टीवी पर सब बिकेगा तब खेल का कोई मतलब नहीं है, यह बेकार है। अगर लोग आते नहीं और देखते नहीं, तो यह दुर्भाग्य है। क्या आप खाली स्टेडियमों के लिए खेलते हैं और टीवी आपके भाग्य का भुगतान करती है?
क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हालात-
यहां वर्ष 2000 से इस दिशा में लगभग 5.4 मिलियन पाउंड का काम किया जा चुका है। पिछले एक दशक से दर्शकों की सुविधाओं पर भी ध्यान दिया गया है, पर दर्शक का ध्यानाकर्षण नहीं हुआ है। अंग्रेजों द्वारा शुरू इस ‘जेंटलमैन’ खेल को अक्सर ‘लेजीमैन’ का खेल भी कहा जाता है, क्योंकि लोगों के पास इतना समय नहीं है। इसी कारण यूरोप व अमेरिकी महाद्वीपों में यह खेल उतना मशहूर नहीं है।
कुछ और… 
क्रिकेट के महानायक सचिन तेंदुलकर ने भी वन-डे मैचों को रोमांचक बनाने के लिए आईसीसी को सुझाव दिया, जिसे फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। अब भद्रजनों के इस गेम को लोकप्रिय बनाए रखना ही एक चुनौती लग रहा है। फिक्सिंग का फांस लोगों को अलग से परेशान- हैरान कर रहा है।
याद कीजिए नोएडा का फार्मूला वन रेस। वहां जाने वालों ने कहा कि लगभग 1 लाख लोगों ने इस रप्तार के रोमांच का मजा देखा। वह भी जुनून था। टिकट क्रिकेट से ज्याद महंगा था और भीतर यह नजारा साफ देखा जा सकता था। फिर भी विशेषज्ञों ने इसे खास वर्ग का खेल करार दिया। वह तीन घंटे का रोमांच था जिसे पहली बार भारत में आयोजित किया गया। अब क्रिकेट को धर्म का दर्जा देनेवालों की बारी है..!
First Published: Tuesday, November 22, 2011, 10:43