चुनावी बिसात और मुस्लिम मतदाता - Zee News हिंदी

चुनावी बिसात और मुस्लिम मतदाता




बिमल कुमार

 

नए साल के दस्‍तक देते ही पांच राज्‍यों में चुनाव की रणभेरी बज गई और शुरू हो गई वोट बैंक को पक्‍का करने और उन्‍हें रिझाने, लुभाने और मनाने की हरसंभव कोशिश। उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण वोट बैंक समझे जाने वाले मुस्लिम समुदाय के रुख पर कई पार्टियों का सियासी भविष्य टिका है। प्रदेश की कुल आबादी में करीब 19 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमानों को रिझाने के लिए लगभग सभी पार्टियां जी-जान से जुट गई हैं। जिस तरह से लुभावने वायदे किए जा रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि उत्तर प्रदेश में सियासत का रास्ता मुस्लिम वोट बैंक के जरिए ही तय होगा।

 

यूपी में में आठ फरवरी से तीन मार्च तक सात चरणों में होने वाले विधानसभा चुनावों के  लिए हुए परिसीमन के बाद 113 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की निर्णायक भूमिका होने के कारण तकरीबन सभी राजनीतिक दलों की नजर इन पर लगी है। वैसे भी साल 2007 के विधानसभा चुनावों में विभिन्न पार्टियों से 55 से ज्यादा मुस्लिम प्रत्‍याशियों ने जीत हासिल की।

 

आंकड़ों पर गौर करें तो प्रदेश की कुल आबादी में मुसलमानों की संख्या करीब 19 प्रतिशत है और राज्य के रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, सहारनपुर, बरेली, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बहराइच, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, ज्योतिबाफुले नगर, श्रावस्ती, बागपत, बदायूं, गाजियाबाद, लखनऊ, बुलंदशहर तथा पीलीभीत की कुल 113 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हो सकते हैं। इन जिलों में मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत 20 से 49 फीसदी के बीच है और नए परिसीमन के बाद सामने आया 113 सीटों का यह आंकड़ा किसी भी दल की किस्मत बना या बिगाड़ सकता है। अगर मुसलमानों का 30 प्रतिशत वोट भी किसी एक दल के पास पहुंच गया तो वह अहम हो सकता है।

 

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी वोट लुभाने की इस होड़ में कुछ ज्‍यादा ही आगे दिख रही हैं। बीते कुछ चुनाव पर नजर डालें तो प्रदेश में सपा और कांग्रेस की चुनाव में सफलता के लिए मुसलमान वोट काफी कारगर साबित हुए हैं। सूबे में चार दशक के करीब शासन कर चुकी कांग्रेस ने मुसलमानों को लुभाने के लिए राज्य में चुनावी बयार शुरू होने के साथ ही अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण मंजूर कर दिया।

 

इससे आगे बढ़ते हुए केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद फरूर्खाबाद में एक चुनावी सभा में यह आश्‍वासन जोर-शोर से दे बैठे कि यदि राज्‍य की सत्‍ता में कांग्रेस की वापसी होती है तो अल्‍पसंख्‍यकों के लिए नौ फीसदी आरक्षण की व्‍यवस्‍था की जाएगी। मुस्लिम वोट पर पकड़ मजबूत करने के कांग्रेस के इस कदम पर चौतरफा राजनीतिक प्रहार शुरू हो गए। आखिरकार चुनाव आयोग को हस्‍तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पड़ा और आयोग ने चुनाव समाप्‍त होने तक पांच राज्‍यों में साढ़े चार फीसदी अल्‍पसंख्‍यक आरक्षण पर रोक का फरमान सुना दी।

 

इसमें आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए कि अब तक राजनीतिक पार्टियों को आसानी से हां कहते आए इस तबके के मतदाता इस बार फूंक-फूंक कर कदम रख सकते हैं। भाजपा को भी इस बात का अहसास है कि मुस्लिम वोटों को पूरी तरह दरकिनार करना सही नहीं होगा, अन्‍यथा सत्ता हासिल करने का पार्टी का ख्वाब पूरा नहीं हो सकता। वहीं, मुस्लिम मतदाताओं को अपना मानकर चल रही सपा सत्ता में आने पर आरक्षण के प्रतिशत में बढ़ोतरी करने का वादा करते नहीं थक रही।

 

कांग्रेस ने हाल में अल्पसंख्यकों के लिये साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण देकर मुसलमानों को खुश करने की कोशिश की है। सपा भी चुनाव के बाद सत्ता में आने पर इस प्रतिशत में इजाफे का वादा कर रहे हैं, लेकिन आरक्षण का यह दांव कितना कारगर साबित होगा यह तो वक्त ही बताएगा। समाजवादी पार्टी ने यूपी विधानसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में मुसलमानों को लुभाने की भरपूर कोशिश की है। सपा ने कहा है कि मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए सच्चर कमेटी की सिफारिशों के दृष्टिगत सभी मुसलमानो को आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से अत्यधिक पिछडा मानते हुए दलितों की तरह जनसंख्या के आधार पर आरक्षण दिया जाएगा।

 

उधर, कांग्रेस की रणनीति से यही लग रहा है कि राज्य की आरक्षित 88 सीटों पर पार्टी अपना पूरा ध्यान केंद्रित कर रही है। यदि कांग्रेस को मुसलमान वोट का मात्र तीस प्रतिशत भी मिल गया तो इस राज्य में कांग्रेस निर्णायक स्थिति में आ सकती है। फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण वोट बैंक समझे जाने वाले मुसलमानों पर विधानसभा चुनावों में कई पार्टियों का सियासी भविष्य टिका है।

 

वहीं, कुछ प्रबुद्ध मुसलमानों का मानना है कि साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण में शामिल करने से इस तबके की मांग सिर्फ 25 फीसद ही पूरी हुई है और आरक्षण का यह दांव मुसलमान मतदाताओं को शायद ही लुभा सके। हालांकि मुस्लिम तबका चुनाव को लेकर पहले की ही तरह इस बार भी पसोपेश में जरूर है, लेकिन अगर मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टियां अपने एजेंडे में कामयाब रहीं तो मुसलमानों के वोटों का ध्रुवीकरण भी हो सकता है। हर बार की तरह इस बार भी सियासी पार्टियां मुस्लिम आरक्षण, राजनीति में समुचित प्रतिनिधित्व और मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने के मुद्दों को लेकर अनेक वादे कर रही हैं, लेकिन इन वादों कितना अमल होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अब देखना यह होगा कि इस बार पार्टियों के कोरे वादे चलते हैं या नहीं।

 

वैसे अभी तक मुसलमानों के मसलों और समस्याओं को दूर करने का कोई गंभीर प्रयास होता नहीं दिखा। ऐसे में क्‍या मुसलमान एक साथ आकर सियासी दलों को उनकी ताकत का एहसास कराएंगे। विधानसभा चुनाव से ऐन पहले अल्पसंख्यक आरक्षण के झुनझुने से मुसलमानों के वोट हासिल करने के मंसूबे क्‍या पूरे हो पाएंगे। बहरहाल, मुस्लिम मतदाताओं को लेकर उनके प्रतिनिधि संगठनों के आकलन और कोशिशें कितनी रंग लाएंगी, यह तो वक्त ही बताएगा। मगर इतना तो तय है कि चुनावी मेले में हर दल उनके वोट का तलबगार है।

First Published: Friday, January 27, 2012, 23:25

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