चुनौतियों के बीच कर्नाटक में लहराया हाथ

चुनौतियों के बीच कर्नाटक में लहराया हाथ

चुनौतियों के बीच कर्नाटक में लहराया हाथ संजीव कुमार दुबे

कर्नाटक में विधानसभा चुनाव से पहले कई नाटक हुए जिसमें राज्य में पहली बार कमल खिलाने वाले दिग्गज नेता येदियुरप्पा का बीजेपी से बाहर होना भी शामिल रहा। लेकिन कर्नाटक के सिंहासन के फाइनल में बीजेपी की इतनी करारी हार होगी और कांग्रेस को इतनी बेहतरीन जीत नसीब होगी यह दोनों पार्टियों में से किसी ने सपने में भी शायद नहीं सोचा होगा।

कर्नाटक में काउंटिंग से ठीक पहले देश की सियासत में भूचाल मचा । देश के रेलमंत्री की बागडोर संभाल रहे पवन बंसल के भांजे घूसकांड में फंस गए जिससे सियासी महकमें यह कयासबाजी जोरों से चलने लगी कि इस बार के चुनाव में बीजेपी दोबारा सत्ता पर काबिज हो जाएगी और कांग्रेस को फिर से हार का सामना करना होगा। कांग्रेस के दिग्गजों में इस बात पर भी सहमत होने की भी खबर आई कि कर्नाटक में वोटों की गिनती से पहले ही रेलमंत्री पवन बंसल को हटा दिया जाए अन्यथा चुनाव के नतीजों में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ा सकती है। लेकिन कयास और हकीकत के इस चक्रव्यूह में होनी को कुछ और ही मंजूर था। कांग्रेस ने विजयी होने का झंडा लहराया और बीजेपी चुनाव बुरी तरह हार गई।

अगर देखा जाए तो बीजेपी ने इस चुनाव में अपनी हार की पटकथा खुद लिखी। यह कहना गलत नहीं होगा कि उसने कांग्रेस को इस चुनावी संग्राम में कई बड़ी गलतियां कर जीतने का मौका दे दिया। इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अपनी हार की गाथा लिखने की शुरुआत की पार्टी के उस दिग्गज नेता को हटाकर जिसने दक्षिणी राज्य (कर्नाटक) में पहली बार कमल को खिलाया था यानी सत्ता पर काबिज करवाया था। येदियुरप्पा का पार्टी से अलग होना और बीजेपी का येदियुरप्पा से किनारा करना महंगा पड़ा जो उसकी हार और कांग्रेस की जीत के अहम कारणों में एक रहा।

हालांकि येदियुरप्पा कर्नाटक जनता पार्टी (केजेपी) बनाकर भी कोई करिश्मा हासिल नहीं कर सके लेकिन इतना जरूर है कि उनके पार्टी बनाने से बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ा और इस अंदरुनी लड़ाई का फायदा कांग्रेस को हुआ जिससे उसकी सत्ता पाने की राह आसान हो गई। येदियुरप्पा ने अलग पार्टी बनाई और पार्टी (बीजेपी) छोड़ दी लेकिन इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उनके बाहर होने के बाद बीजेपी में उस कद का कोई भी कद्दावर नेता नहीं था लिहाजा चुनाव बीजेपी लड़ी जरूर लेकिन कोई पार्टी फेस नहीं होने की वजह से उसकी जीत रामभरोसे थी। उसकी जीत के सपने हकीकत से कोसो दूर ताश के पत्ते की तरह थे जो चुनावी परिणाम के दौरान भरभरा कर गिर गए।

चुनावी जानकारों के मुताबिक बीएस येदियुरप्पा चुनावी मैदान पर एक जादूगर की तरह थे जिनके सियासी सम्मोहन का कोई जवाब नहीं था लेकिन जगदीश शेट्टार में ऐसी कोई खूबी नहीं थी जिससे जनता में उनकी छवि के बदले वोटों की बरसात होती। येदियुरप्पा क्या गए पार्टी बिखराव की ओर बढ़ने लगी और भरभरा कर गिर गई। पतन का यह सिलसिला चलता रहा जो अंतर्कलह के बीच और दबता चला गया। इसका भान बीजेपी के आलाकमान को भले ही ना हो लेकिन जमीन से जुड़े कुछ नेताओं को रहा तभी उमा भारती ने येदियुरप्पा को पार्टी में दोबारा वापस लाने की मांग पुरजोर तरीके से उठाई थी। येदियुरप्पा के जाने के घटनाक्रम से बीजेपी के मुख्य मतों में ही विभाजन हो गया और यह लाभ सीधा कांग्रेस की झोली में चला गया। इस विभाजन के बीच एक कड़वा सच यह भी है कि येदियुरप्पा के पार्टी से जाने के बाद कार्यकर्ताओं में कोई उत्साह नहीं रह गया था। बीजेपी का एक धड़ा ऐसा भी था जो येदियुरप्पा के घटनाक्रम को लेकर पार्टी आलाकमान से नाराज था। उसकी यह चाहत थी कि येदियुरप्पा को पार्टी में सम्मान के साथ लाया जाए।


राज्य के चुनाव में बुनियादी मुद्दे अहम होते हैं। सड़क, बिजली, पानी और रोटी कपड़ा जैसे बुनियादी मुद्दे पार्टी को सत्ता पर काबिज भी करते हैं और बाहर भी। जाहिर सी बात है कि इस बार के चुनाव में ये मुद्दे भी उभरे। पिछले कुछ सालों से सियासीं खींचतान के बीच शासक वर्ग के नेता यह भूल गए थे कि जिन लोगों ने उन्हें पांच साल पहले सत्ता पर बिठाया था उनकी भलाई के लिए भी कुछ करना है।

कर्नाटक में येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार के कई मामलों में फंसने, कुछ मामलों में कोर्ट से बरी होने, जगदीश शेट्टार के मुख्यमंत्री बनने और येदियुरप्पा का दोबारा सीएम पद की कुर्सी के लिए लड़ाई लड़ना जैसे खींचतान का अंतहीन सिलसिला रहा जिसने बीजेपी के सियासी नैया को डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे बीजेपी के लिए गले की फांस बन गए जिससे उबरने का काट वह समय रहते तलाश नहीं कर पाई। सूबे में अवैध खनन का मुद्दा भी इस बार जोर शोर से उछला। बीजेपी नेता जी. जर्नादन रेड्डी, जी. करुणाकर रेड्डी और जी. सोमशेखर रेड्डी का अवैध खनन के कारोबार पर एक समय निर्विवाद आधिपत्य था। अवैध खनन के मामले में जर्नादन रेड्डी फिलहाल हैदराबाद की जेल में बंद हैं। इन घटनाओं से बीजेपी की छवि बतौर पार्टी के रूप में दागदार होती चली गई।

विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे ज्यादा असर दिखाते हैं जो जनता के वोट में तब्दील होते हैं। कर्नाटक में बेल्लारी स्कैम, येद्दयुरप्पा पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने बीजेपी की छवि को मटियामेट कर दिया । खनन में घोटालों से छवि दागदार हुई जिसका फायदा भी कांग्रेस को मिला। भ्रष्टाचार के कई ऐसे मुद्दे रहे जिसकी सियासी रोटी कांग्रेस चुनावी मैदान में सेंकने में कामयाब रही।

बीजेपी सरकार को सत्ता विरोधी लहर का भी सामना करना पड़ा। ताबड़तोड़ घोटालों, जनता के मुद्दों से दूरी, उपजते अंतर्कलह से जनता में उसकी छवि दिनोदिन बिगड़ती चली गई। जनता में असंतोष का ज्वारभाटा आता और जाता रहा और जनता की बेचैनी का लावा भी फूटता रहा। किसी भी राज्य की जनता में अगर यह संदेश चला गया कि वर्तमान सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही तो फिर उसका पकड़ कमजोर होने लगती है और उसका पतन होना तय माना जाता है। जनता को भरोसे में जीतने के लिए जुबानी मुद्दे से कहीं ज्यादा हकीकत की धरातल पर काम करना होता है जो जीत की राह तय करते हैं और जनता के हमदर्द होने का विश्वास जगाते है। एक बार को भी अगर कोई पार्टी जनता की नजर में गिर गई तो फिर वोट बैंक या फिर जनादार ताश के पत्ते की तरह ढह जाता है।

कर्नाटक में आक्रामक चुनाव प्रचार भी कांग्रेस के लिए रामबाण सा साबित हुआ । कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चुनाव प्रचार में प्रमुखता से दिखे और बीजेपी सरकार की भ्रष्टाचार की पोल खोलते नजर आए। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तो एक साल पहले ही कमर कसकर चुनाव प्रचार जैसी कवायदों में लग गए थे जिसका फायदा कांग्रेस को मिला।

बीजेपी में नरेंद्र मोदी जैसे दिग्गज नेता चुनाव प्रचार में आए तो जरूर लेकिन वह सिर्फ 37 विधानसभा सीटों में ही चुनाव प्रचार करने गए जबकि कुल सीट 224 थी। इस लिहाज से यह नाकाफी था। मोदी ने भीड़ तो जुटाई लेकिन वह अपनी पार्टी को वोट दिलवा पाने में नाकाम रहे।

चुनाव भी एक खेल की तरह है जहां किसी की हार और किसी की जीत तय होती है। यह कहना कि कांग्रेस ने जीत के लिए जीतोड़ काफी मेहनत की तो शायद गलत होगा। बल्कि ज्यादा सहीं और सार्थक बात यह कही जा सकती है कि बीजेपी की गलतियों, उसकी रणनीतियों ने कांग्रेस के लिए जीत की राह आसान कर दी। चुनावी जीत के सूत्र और हार के कारणों की सियासी गाथा का कालचक्र हर पांच साल के बाद आता है। जीतनेवाली पार्टी कहती है हम (कांग्रेस ) जीत के हकदार थे और उनका (बीजेपी का) हारना तय था। हारनेवाली पार्टी कहती है कि हम (बीजेपी) हार के कारणों की समीक्षा करेंगे।







First Published: Wednesday, May 8, 2013, 17:22

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