चेहरा बदलने से नहीं बचती है `साख`

चेहरा बदलने से नहीं बचती है `साख`

चेहरा बदलने से नहीं बचती है `साख`प्रवीण कुमार
बहुप्रतीक्षित केंद्रीय मंत्रिमंडल में व्यापक फेरबदल कर यूपीए-2 सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह ने 7 कैबिनेट और 15 राज्य मंत्रियों को शामिल कर अपनी सरकार का चेहरा पूरी तरह से बदल दिया है। बड़ा सवाल यह है कि इस बड़े बदलाव को आप किस-किस रूप में देखते हैं? सरकार की साख बचाने की कवायद के रूप में, कांग्रेस के जनाधार को बढ़ाने की कवायद के रूप में या फिर राहुल गांधी को प्रतिष्ठापित करने की कवायद के रूप में। सवाल जितने दुरुह हैं, जवाब उतना ही आसान।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार की साख लगातार कमजोर हुई है, उसकी चमक निरंतर फीकी पड़ी है, सरकार पर आम आदमी का भरोसा भी डगमगाया है। चूंकि सरकार कांग्रेस नीत यूपीए की है इसलिए शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस को जो जन समर्थन हासिल था, उसमें भी कमी आई है और ये सब हालात पैदा हुए हैं महंगाई तथा भ्रष्टाचार की वजह से, कांग्रेसी नेताओं के बड़बोलेपन से। तो फिर क्या लगता है, सरकार का चेहरा बदल देने से या फिर कांग्रेस संगठन में बदलाव कर देने से जो साख बीते तीन साल में गिरी है, एक साल में उसकी भरपाई हो जाएगी? यह सरकार के मुखिया (मनमोहन सिंह) और कांग्रेस आलाकमान (सोनिया गांधी) दोनों ही जानते हैं कि देश जिन हालातों से गुजर रहा है उसमें न तो सरकार की साख को बचाया जा सकता है और न ही कांग्रेस के जनाधार को मजबूत किया जा सकता है। इसलिए अब जो कुछ सरकार और कांग्रेस के हाथ में है उसके तहत ये पूरी की पूरी कवायद कांग्रेस के भविष्य के नेता राहुल गांधी को प्रतिष्ठापित करने की है।

केंद्रीय मंत्रिमंडल में बदलाव का शोर तब से हो रहा था जब एफडीआई और पेट्रोल व डीजल की कीमतों में वृद्धि को लेकर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने अपना समर्थन यूपीए-2 की सरकार से वापस ले लिया था। लेकिन पिछले दो दिनों में एक के बाद एक सात मंत्रियों ने जब अपने-अपने इस्तीफे प्रधानमंत्री को सौंप दिए तो लगा कि सरकार में कुछ बड़े व अहम बदलाव होंगे जिसके सहारे कांग्रेस पार्टी `मिशन-2014` की नैया को पार लगाएगी। लेकिन जब इस बदलाव का असली चेहरा सामने आया तो `खोदा पहाड़ निकली चुहिया` वाली कहावत एक बार फिर साबित हो गई। इस बदलाव से कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि मिशन-2014 को लेकर महंगाई, भ्रष्टाचार और गिरती साख को लेकर सरकार गंभीर है या संवेदनशील है।

सबसे पहले बात करते हैं एस.एम.कृष्णा के विदेश मंत्री पद से इस्तीफे और उनकी जगह नए विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद को पदस्थापित करने की। अगर आपने विदेश मंत्री के पद से इस्तीफे के बाद कृष्णा के बयान पर ध्यान से सुना हो तो उन्होंने सरकार में युवाओं को शामिल करने, कांग्रेस संगठन में काम करने की इच्छा और अन्य देशों से द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर कई तरह के अनुभवों का जिक्र करने के अलावा जो सबसे अहम बात ये कही कि विदेश मंत्री के तीन साल से अधिक के कार्यकाल में विदेश मंत्रालय को घोटालों से मुक्त रखा। अब इस बदलाव के तहत विदेश मंत्रालय को उसी सलमान खुर्शीद के हवाले किया गया है जिनपर जाकिर हुसैन ट्रस्ट में विकलांगों के लिए आवंटित कोष के गबन का आरोप है। इसको लेकर अभी हाल ही में प्रेस कांफ्रेंस कर दो घंटे तक सलमान खुर्शीद को सफाई देनी पड़ी थी। जाहिर है सरकार ने सलमान को पदोन्नत कर भ्रष्टाचार को न सिर्फ संरक्षण दिया है बल्कि उसे सम्मानित करने का सफल प्रयास किया है।

जहां तक अलग-अलग राज्यों को मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व देने का सवाल है तो सात कैबिनेट मंत्री और 15 राज्य मंत्रियों में आंध्र प्रदेश से सबसे अधिक पांच मंत्रियों को स्थान देकर जहां जगन मोहन रेड्डी की लोकप्रियता को कमजोर करने की कोशिश की जाएगी, वहीं पश्चिम बंगाल से तीन नेताओं को केंद्रीय मंत्री बनाकर राज्य की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस पर चौतरफा हमले का संकेत दिया है। अधीर रंजन चौधरी और दीपा दासमुंशी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कड़े आलोचक माने जाते हैं। चौधरी और दीपा के अलावा एएच खान चौधरी को भी मंत्री बनाया गया है।

इस फेरबदल में पूरे हिन्दी भाषी पट्टी बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की उपेक्षा की गई है जहां पहले कभी कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था। कहने का मतलब यह कि इन राज्यों से सरकार में कोई ऐसा चेहरा नहीं जो कांग्रेस पार्टी के जनाधार को वापस दिला सके, गिरी हुई साख को उठाने में मदद कर सके। संकेत साफ है कि सोनिया गांधी को इस बात का अहसास हो गया है कि हिन्दी पट्टी से उनका भला नहीं होने वाला है इसलिए उत्तर पूर्वी व दक्षिण के राज्यों को खुश कर मिशन-2014 में सम्मानजनक सीटें हासिल की जाए।

इस बदलाव से एक और बात जो परिलक्षित हो रही है वो ये कि महंगाई और भ्रष्टाचार का मुद्दा जस का तस बना रहेगा। कमजोर होती साख का सवाल बना रहेगा। सरकार में कोई एक चेहरा नहीं जो सरकार में रहकर जनहित में महंगाई कम करने की बात करे। सब 10 जनपथ के रिमोट से संचालित होने वाली सरकार के मंत्री हैं। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की नीति जगजाहिर हो चुकी है। देश की जनता महंगाई कम होने की उम्मीद इनसे नहीं कर सकती।

महंगाई को लेकर मनमोहन सिंह देश के नाम संबोधन में पहले ही अपनी मंशा जाहिर कर चुके हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते। देशहित में कड़े आर्थिक फैसले लेने होंगे। जाहिर है जब कड़े आर्थिक फैसले अपना रंग दिखाएंगी तो महंगाई पर लगाम नहीं लगाई जा सकती। लेकिन इस दरम्यान अगर यह सरकार कोई ऐसा फैसला लेती है जिससे महंगाई पर ब्रेक लगती है तो तय मानिए कि चुनाव बाद देश को कमरतोड़ महंगाई का सामना करना पड़ेगा। कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला, वाड्रा-डीएलएफ डील प्रकरण, जाकिर हुसैन ट्रस्ट में गबन प्रकरण की गूंज निश्चित रूप से कांग्रेस के `मिशन-2014` में विध्न पैदा करेगा। कोल ब्लॉक आवंटन पर कैग की रिपोर्ट के बाद निशाने पर आए श्रीप्रकाश जायसवाल का अपने पद पर कायम रहना भी सरकार और कांग्रेस की मंशा को जाहिर करता है।

जहां तक राहुल गांधी का सवाल है तो उनको मंत्रिमंडल में शामिल करने या नहीं करने को लेकर खूब अटकलें लगाई जा रही थीं। अंत में कहा गया कि राहुल कैबिनेट में शामिल नहीं होंगे और केवल अनुभवी परामर्शदाता की भूमिका निभाएंगे। बड़ा सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी इतने समृद्ध राजनीतिज्ञ हो गए हैं कि एक वह सरकार और कांग्रेस पार्टी में अनुभवी परामर्शदाता की भूमिका निभा सकें? पहले बिहार और उसके बाद उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की राजनीतिक दक्षता के कारनामे किसी से छुपी नहीं है। राहुल के नेतृत्व में दोनों राज्यों में कांग्रेस को शर्मनाक प्रदर्शन का सामना करना पड़ा। अब जब राहुल गांधी हर जगह फ्लॉप शो साबित हो रहे हैं तो चर्चा है कि उन्हें कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जाएगा। स्वास्थ्य कारणों से सोनिया गांधी के पार्टी को पूरा समय नहीं दे पाने के कारण अब कमान राहुल गांधी संभालेंगे। सही बात है, अध्यक्ष पद की कुर्सी दूसरा कोई संभाल भी तो नहीं सकता। सदियों से कांग्रेस में चली आ रही वंशवाद की परंपरा को खत्म करने की जहमत कोई मोल भी नहीं ले सकता। एक बार सीताराम केसरी ने ये बीड़ा उठाया था तो उनका हश्र सबको पता है।

बहरहाल, सरकार का चेहरा बदल दिया गया है और सब कुछ ठीक रहा तो इसे आगामी लोकसभा चुनाव से पहले अंतिम बदलाव के रूप में ही देखा जाना चाहिए। इसके बाद कांग्रेस संगठन में बड़े बदलाव होने हैं जिसकी बुनियाद अंबिका सोनी और एस.एम. कृष्णा ने रख दी है। कई और नेताओं को कांग्रेस का जनाधार बढ़ाने के काम में लगाया जाएगा। लेकिन क्या इस पूरी कवायद से सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले इंडिया अगेंस्ट करप्शन के नेता अरविंद केजरीवाल का मुंह बंद किया जा सकता है, महंगाई को लेकर जनता की कराह को शांत किया जा सकता है और कांग्रेस के दिग्गज नेताओं व सरकार के मंत्रियों के बड़बोलेपन (बेनी प्रसाद, पी.चिदंबरम, सुशील शिंदे, श्रीप्रकाश जायसवाल, मोंटेक सिंह आहलूवालिया, मनीष तिवारी) में लगातार गिरी साख को उठाना कांग्रेस आलाकमान (सोनिया गांधी) और सरकार के मुखिया (मनमोहन सिंह) के लिए संभव होगा?

First Published: Sunday, October 28, 2012, 18:10

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