Last Updated: Thursday, March 29, 2012, 02:58
प्रवीण कुमार भारतीय राजनीति के लिहाज से साल 2012 काफी उथल-पुथल भरा साबित हो रहा है। देश की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी लगातार अपनी साख को खोती जा रही है। हालांकि भाजपा और वामपंथी दल भी कोई तीर नहीं मार रहे हैं, लेकिन कांग्रेस को लेकर देश सशंकित इसलिए है क्योंकि देश में कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार है और इस नाते कांग्रेस पार्टी की भूमिका अहम है। दुर्भाग्य से कांग्रेस के अहम नेता और मंत्री देश के मोर्चे पर फ्लॉप साबित हो रहे हैं। देश इन्हें गुनहगार ठहरा रहा है।
ये सरकार सिविल सोसायटी से लड़ने पर अमादा है क्यों कि सिविल सोसायटी भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण चाहती है और कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार को यह पसंद नहीं। यह काम एक ऐसी सरकार कर रही है जिसके 14 मंत्री किसी न किसी मामले में संलिप्त हैं और सिविल सोसायटी के शोध को माना जाए तो यदि देश में लोकपाल कानून होता तो ये सभी मंत्री जेल में होते। यह सरकार एक ऐसे शख्स (बलवंत सिंह राजोआना) की फांसी की सजा पर रोक लगा देती है जिसने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री (बेअंत सिंह) की सरेआम हत्या कर दी और खास बात यह है कि उस शख्स ने माफीनामा की कोई अर्जी भी नहीं लगाई है। यह सरकार अपने ही सेना प्रमुख को देश की शीर्ष अदालत में घसीटती है। यह सरकार अपने ही अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच कराती है। बड़ा सवाल यह है कि दोष किसका है- उस जनता का जिसने इन नेताओं को चुनकर संसद में भेजा है, उन राजनीतिक दलों का जिसकी शह पर ये नेता, मंत्री कुछ भी करने से डरते नहीं हैं या फिर उस व्यवस्था का जिसकी हर शिराओं में भ्रष्टाचार का खून दौर रहा है। करते हैं थोड़ी सी राजनीति की चीर-फाड़।
दरअसल, राजनीतिक दलों का आंकलन पांच बातों पर होता है। ये हैं- प्रेरणा, विचारधारा, कार्यपद्धति, व्यवहार और आचरण। इन पांच बातों को सही तरीके से किसी भी दल में लागू करने के लिए सबसे जरूरी होता है आत्मविलोपन। अगर किसी दल में इसका अभाव हो जाता है तो वहां गड़बड़ियां स्वाभाविक हैं। वहीं अगर कोई दल इन पांच बातों को सही और सफल ढंग से साध लेता है तो वह स्वाभाविक तौर पर सामाजिक बदलाव का औजार बन जाता है। दुर्भाग्य से इन पांच बातों से आज के राजनीतिक दलों का कोई वास्ता नहीं रह गया है। कांग्रेस पार्टी इसका अपवाद नहीं रह गई है।
कोई भी दल चाहे कांग्रेस हो, भाजपा हो या फिर वामपंथी दल हों, सबमें ऊपर के स्तर पर स्वार्थ, सत्ता और अहंकार का टकराव आए दिन दिखता रहता है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि स्वार्थ, सत्ता और अहंकार के खेल में जुटे लोगों के लक्ष्य और दिशा सामाजिक न होकर व्यक्तिगत हो गए हैं। इसलिए राजनीतिक दलों में अब दल की कोई ताकत नहीं रह गई है। वहां अलग-अलग व्यक्ति की अलग-अलग ताकत होती है। इससे पार्टी पर नेताओं के व्यावसायिक हित हावी हो चले हैं। बेशुमार दौलत और बेनामी संपत्तियों की सुरक्षा, नेताओं की जरूरत बन चुकी है। ऐसे में नेता राजनीति का अपने दौलत की रक्षा के लिए कवच के नाते इस्तेमाल करें यह लाजिमी है। बेनामी संपत्तियां हाथ से न निकल जाएं इसके लिए राजनैतिक अधिकार नेताओं की जरूरत बन जाते हैं।
आर्थिक और राजनैतिक हित का यह घालमेल ही वंशवाद को जन्म देता है और उसे पुख्ता करता है। इसलिए आर्थिक और राजनैतिक विरासत परिवार में बनी रहे, ये अब राजनेताओं की जरूरत बन चुकी है। देश की मुख्य धारा की सभी पार्टियों में यह आम हो गई है। समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने बहुत पहले कहा था कि सुधरो या टूटो। इससे साफ है कि टूट की परवाह किए बिना अज्ञान में कूदना ही परिष्कार की पूर्व शर्त होती है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह साहस भी सबमें नहीं होता। पर राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य के साथ निकले लोगों और दलों में तो सार्वजनिक हित को सर्वोपरी रखते हुए ऐसा करने का साहस तो होना ही चाहिए। सही मायने में देखा जाए तो आज की स्थिति का तकाजा यही है। ऐसे में फिर से बड़ा सवाल यही है कि क्या मूल्यों और मुद्दों से भटके इन जड़ दलों की सरकार खुद को सुधारेगी या फिर यूं ही भ्रष्टाचार के नित नए कीर्तिमान बनाती रहेगी। यानी जनकवि धूमिल के शब्दों में---
'देश डूबता है तो डूबेलोग ऊबते हैं तो ऊबेंजनता लट्टू हो चाहे तटस्थ रहेबहरहाल, वह सिर्फ यह चाहते हैं किउनका स्वष्तिक स्वस्थ रहे।'
First Published: Saturday, March 31, 2012, 16:05