Last Updated: Thursday, February 7, 2013, 08:17
प्रवीण कुमारधर्मनगरी प्रयाग में पृथ्वी का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन `महाकुंभ` अपने उफान पर है। ऐसा माना जा रहा है कि महाकुंभ-2013 इस देश में धर्म और राजनीति के बीच सैकड़ों सालों से चले आ रहे उस सौतिया डाह को खत्म करेगा जिसकी वजह से भारत `गुलाम भारत` की मन:स्थिति से आज तक उबर नहीं पाया है। बड़े नाजुक समय में महाकुंभ-2013 आया है। ऐसे समय में जब गंगा उदास है और यमुना हताश है। एक ऐसा समय जब `गटर गंगा` का बोलवाला है। इस महाकुंभ में हमें प्रण लेना है नदियों को बचाने का। नदियां बचेंगी तो जीवन बचेगा और जीवन रहा तभी धर्म बचेगा और बचेगी राजनीति। आप गौर करें तो समझ में आएगा कि इस देश में धर्म और राजनीति दोनों ही हाशिए पर हैं और यही वजह है कि देश डूब रहा है गटर गंगा में। हम यानी हमारा देश न तो नैतिक सत्ता के स्वामी हैं, न ही आर्थिक सत्ता के और न ही आध्यात्मिक सत्ता के। जरा सोचिए! कैसे बनेंगे विश्व गुरु। जरा सोचिए! कैसे बनेंगे हम सुपर पावर। इन सब ऊहा-पोहों के बीच महाकुंभ में धर्म संसद का आयोजन निश्चित रूप से एक बड़े बदलाव की आहट है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि धर्म संसद में देश के प्रधानमंत्री पद के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पेश करने के जो कयास लगाए जा रहे हैं, वाकई वह धर्म और राजनीति को जोड़ पाने में सफल होंगे? जिस धर्म और राजनीति के बीच तालमेल बिठाने का काम साबरमती के संत (महात्मा गांधी) पूरा नहीं कर पाए, क्या नरेंद्र मोदी उस संत के अधूरे कार्य को पूरा कर पाएंगे। निश्चित रूप से बड़ा सवाल है और देश इस बड़े सवाल पर बेचैन सा दिख रहा है।
आगे बढ़ने से पहले हमें धर्म और राजनीति के रिश्ते को समझना होगा। आखिर क्या वजह है कि भारत में धर्म और राजनीति एक दूसरे के पूरक नहीं बन पा रहे हैं? क्यों दोनों दो ध्रुव पर खड़े हैं? क्या आपमें कभी यह जानने की उत्कंठा हुई कि धर्म क्या है और राजनीति का धर्म से क्या रिश्ता है? सदियों से चली आ रही इस गुत्थी को किसी ने सुलझाने का प्रयास नहीं किया? प्रयास क्यों नहीं किया गया यह भी एक अबूझ पहेली है। आइए मिलकर थोड़ी माथापच्ची करते हैं। आध्यात्मिक संत ओशो के अनुसार, `धर्म जीवन को जीने की एक कला है एक मंत्र है, जीवन को जीने का एक विज्ञान है। इस रूप में धर्म यदि जीवन कला की आत्मा है तो राजनीति जीवन कला का शरीर है। धर्म अगर प्रकाश है जीवन का तो राजनीति पृथ्वी है। अब सोचने वाली बात है अकेली आत्मा और अकेला शरीर का क्या अस्तित्व होगा। शरीर न हो तो आत्मा अदृश्य हो जाती है और खो जाती है और आत्मा न हो तो शरीर सड़ जाता है, दुर्गंध देने लगता है। ठीक इसी तरह धर्म के बिना राजनीति सड़ा हुआ शरीर हो जाती है। लेकिन यह भी याद रहे कि राजनीति से विहीन धर्म भी विलीन हो जाता है।` इस देश की दशा कुछ ऐसी ही है जहां धर्म और राजनीति एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं, देश हाशिये पर जा रहा है।
दरअसल धर्म के ठेकेदारों ने सैकड़ों सालों से धर्म को राजनीति निरपेक्ष बनाए रखा और प्रतिक्रिया में राजनीतिज्ञों ने भी मौका पाकर राजनीति को धर्मनिरपेक्ष बनाकर बदला ले लिया, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इससे नुकसान किसका हुआ। राजनीति का धर्म निरपेक्ष होने का क्या मतलब हो सकता है, यही न कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, जो भी श्रेष्ठ है, राजनीति को उससे कोई वास्ता नहीं। फिर धर्म से निरपेक्ष होने का अर्थ सत्य से निरपेक्ष होना, प्रेम से निरपेक्ष, जीवन के गूढ़ ज्ञान से निरपेक्ष होना है। कोई भी राजनीति अगर धर्म से निरपेक्ष होगी तो वह मनुष्य शरीर में गहरे तक प्रवेश नहीं कर सकती और जो समाज केवल शरीर के आसपास जीने लगता है उस समाज के जीवन में सड़ी लाश जैसी दुर्गंध फैलने लगती है। हमारा मकसद यहां किसी को दोषी ठहराने का नहीं है और अगर दोषी हैं तो दोनों ही दोषी हैं जिसमें पहली गलती धर्म के ठेकेदारों ने की और फिर प्रतिक्रियास्वरूप राजनीतिज्ञों ने की। एक हजार साल तक देश गुलाम था और हिन्दुस्तान के साधु-संतों ने इस गुलामी को उखाड़ फेंकने की दिशा में कोई काम नहीं किया। इनका कहना यह था कि हमें राजनीति से क्या मतलब? कहने का अर्थ यह कि अच्छे लोगों को गुलामी बुरी चीज नहीं लगी। जब देश आजाद हुआ, राजनीति जब सत्ता में आई तो उसने भी कहा कि हमें धर्म से क्या लेना देना है। लेकिन गलत चीज का बदला लेना सही तो नहीं कहा जा सकता है। तो इस परिस्थिति में आज विचारणीय बात यह है कि क्या सदियों से धर्म और राजनीति के सौतिया डाह को उसी तरह से चलने दें जिस रूप में चली आ रही हैं या फिर दोनों के बीच की खाई को पाटा जाए, दूरियां मिटाई जाए।
महाकुंभ में आयोजित धर्म संसद में धर्म और राजनीति को करीब लाने की जो पहल की जा रही है यह निश्चित रूप से देश के भविष्य के लिए अच्छे संकेत हैं। खास बात यह है कि धर्म संसद के संतों ने जिस पराक्रमी राजनेता (नरेंद्र मोदी) को इंगित कर देश की सत्ता सौंपने की बात की है, अगर उसपर अमल हुआ तो तय मानिए कि इतिहास खुद को दोहराएगा नहीं। अगर भारतीय राजनीति के इतिहास पर गौर करें तो महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण दो ऐसी शख्सियत दिमाग में कौंधते हैं जिन्होंने राजनीतिक सत्ता की चाबी अपने हाथ में ली होती तो देश का नक्शा कुछ और होता। जिस सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में हम जी रहे हैं, गौर करें तो आप देखेंगे कि कोई भी राजनेता हमेशा धर्म से दूर भागता है। इसलिए क्योंकि धर्म के सामने उसे आत्मग्लानि होती है। धर्मरूपी दर्पण का वह सामना नहीं कर सकता है क्यों कि उसे उस दर्पण के सामने धर्म और कर्तव्य का पालन न करने का अपराधबोध होने लगता है। उसे मालूम है कि अगर वह धर्म और कर्तव्य से बंध गया तो देश में समस्या ही खत्म हो जाएगी और फिर उसकी अहमियत ही खत्म हो जाएगी। इसीलिए तो राजनीतिज्ञ हमेशा धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बात करता है। ठीक इसी प्रकार से कोई भी कमजोर प्रवृति का संत महात्मा कभी नहीं चाहता कि राजनीति से उसका कोई संबंध हो। दिनभर एक दर्जन राजनेताओं को आशीर्वाद देना उसे मंजूर है लेकिन सक्रिय राजनीति से वह हमेशा दूर भागने की कोशिश करता है, ठीक उसी तरह से जिस तरह एक कमजोर ब्रह्मचारी किसी स्त्री को देखकर दूर भागता है कि कहीं पास आने पर उसकी कमजोरी सार्वजनिक न हो जाए।

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महात्मा गांधी ने सबसे अच्छा काम किया था कि उन्होंने मुल्क की राजनीति में हिस्सा लिया, लेकिन गांधी का यह प्रयास कुछ ऐसा ही था जैसे कि कोई आदमी डूब रहा हो और उसे बचाकर ठेठ किनारे पर लाकर छोड़ दिया जाए। गांधी जी ने इस देश के साथ कुछ ऐसा ही किया। गुलाम भारत को आजाद कराने के बाद जब देश को पटरी पर लाने की बात आई तो उन्होंने हिन्दुस्तान की सत्ता दूसरों के हाथ में सौंपकर देश को नुकसान पहुंचाया। गांधी एक धार्मिक इंसान थे और जिन लोगों के हाथ में गांधी ने हिन्दुस्तान की सत्ता सौंपी उन्होंने सबसे पहला काम धर्म का राजनीति से रिश्ता तोड़ने का काम किया। गांधी धार्मिक व्यक्ति थे और पंडित जवाहर लाल नेहरू के चित्त में धर्म के लिए कोई जगह नहीं थी। वह घोर राजनीतिक व्यक्ति थे। गांधी के लिए अहिंसा जीवन और मरण का सवाल होता था तो नेहरू के लिए अहिंसा सिर्फ राजनीतिक हथियार। एक धार्मिक व्यक्ति (गांधी) के हाथ में सत्ता जाती तो मुल्क का भाग्य बदल सकता था। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं सका। इसी तरह के एक और शख्स आजादी के आंदोलन से निकले जिनका नाम बिनोबा था और उन्होंने तमाम अच्छे लोगों को राजनीति में जाने से रोका। जयप्रकाश नारायण जैसे नेक इंसान को भी बिनोबा ने राजनीति से अलग कर दिया। भारतीय राजनीति का इतिहास, भारतीय आजादी का इतिहास और धर्म का राजनीति से गठजोड़ इन तीनों परिदृश्यों को जोड़कर जब हम भारत देश के बारे में सोचते हैं तो पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि अगर आजादी के बाद महात्मा गांधी राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में लेते और फिर जयप्रकाश नारायण जैसे लोग गांधी के उत्तराधिकारी बनते तो शायद देश की सूरत कुछ और होती।
उक्त तमाम उपयोगी बातों को उद्धृत करने के पीछे मेरा मानना है कि जिस हिन्दुस्तान के पास सैकड़ों सालों की गुलामी और बहुत कम सैकड़ों सालों की आजादी का इतिहास और वर्तमान का अनुभव हो उस हिन्दुस्तान को इन तमाम अनुभवों से सीखने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि इस देश में धर्म और राजनीति को जोड़ने की जल्दी कोई पहल करता नहीं है और इसके बावजूद महाकुंभ-2013 में देश के संत-महात्माओं ने इस दिशा में कोई पहल की है तो वाकई ऐसा अहसास होता दिख रहा है कि भारत की तकदीर बदलने वाली है। मुझे नहीं मालूम कि धार्मिक लोग अचानक से राजनीति के प्रति इस तरह की सदाशयता क्यों दिखा रहे हैं और शायद जानने की जरूरत भी नहीं है। लेकिन जितनी सदाशयता धर्म संसद देश की राजनीति के प्रति दिखा रही है उतनी ही सदाशयता राजनीतिक लोगों को भी धर्म संसद के प्रति दिखानी चाहिए। बड़ी मुश्किल से संगम के तट पर यह संयोग बना है, शायद मुल्क की तकदीर बदलने के लिए।
First Published: Wednesday, February 6, 2013, 10:07