'पेट्रो बूम' का जनक था मुअम्मर गद्दाफी - Zee News हिंदी

'पेट्रो बूम' का जनक था मुअम्मर गद्दाफी

प्रवीण कुमार
लीबिया दुनिया का पहला विकासशील देश था, जिसने तेल के खनन से मिलनेवाली आमदनी का बड़ा हिस्सा हासिल किया। देखा-देखी दूसरे अरब देशों ने भी उसका अनुसरण किया और अरब देशों में 1970 के दशक की पेट्रो-बूम यानी तेल की बेहतर कीमतों से खुशहाली का दौर शुरू हुआ।

 

वर्ष 1942 में सिर्ते के एक कबायली परिवार में पैदा हुआ मुअम्मर अल गद्दाफी के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह बहुत ही होशियार और जहीन शख्स था, लेकिन दुनिया ने गद्दाफी का जो रूप देखा वह उसकी होशियारी और जहीनियत पर सवाल खड़े करता है। गद्दाफी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें कुरान और सैन्य शिक्षा के अलावा और किसी तरह की शिक्षा हासिल नहीं हुई थी। हालांकि कुरान एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो बहुत कुछ सिखा देता है, बावजूद इसके उनमें सब्र और दूरदर्शिता का बेहद अभाव था। इसी वजह से एक होशियार और जहीन इंसान फौजी से लीबिया का नायक बना और फिर तानाशाह शासक बन बैठा। 42 साल तक एकछत्र राज करने वाला यह तानाशाह सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसका और उसके साम्राज्य का अंत इतना भयावह होगा।

 

गद्दाफी को कम से कम तानाशाह शासक सद्दाम हुसैन के हश्र से तो सीख लेनी ही चाहिए थी, लेकिन नहीं। दरअसल सत्ता का जो नशा होता है आमतौर पर वह शासक से उसके सोचने और समझने का तरीका जैसा कि वह शासक बनने से पहले सोचता और समझता था, छीन लेता है। यह सिद्धांत दुनिया के सभी देशों के शासकों पर लागू होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो किसी देश में सत्ता परिवर्तन या जनक्रांति क्यों होती। गद्दाफी पर भी यही सिद्धांत लागू होता है।

 

गद्दाफी ने अपने 42 साल के शासनकाल में एक के बाद एक कई गलतियां की। 1970 के आसपास गद्दाफी ने विश्व के संबंध में एक तीसरा सिद्धांत विकसित करने का दावा किया था। अपनी किताब 'ग्रीन बुक' में गद्दाफी ने दावा किया कि इस विचारधारा में एक ऐसी राह दिखाई गई है, जिसमें पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच का मतभेद खत्म हो जाएगा। गद्दाफी की मानें तो इस विचारधारा में दबे-कुचले लोगों के राजनीतिक, आर्थिक प्रगति और सामाजिक क्रांति का रास्ता सुझाया गया है। लेकिन यहां भी आदतन गद्दाफी कथनी और करनी के भेद को ही तरजीह दी। जिस विचारधारा में लोगों को आजाद करने का गद्दाफी ने दावा किया था, उसी के नाम पर लोगों की सारी आजादी छीन ली गई।

 

गद्दाफी प्रजातंत्र को एक ऐसी तानाशाही मानता था जिसमें बहुमत दूसरों पर अपनी मर्जी थोपता है। इसीलिए गद्दाफी ने पूरे देश में जन समितियों की स्थापना की जिसे 'जम्हीरिया' (लोगों का राज) का नाम दिया। सिद्धांत ये था कि लीबिया लोगों का लोकतंत्र बन गया है जिसे लोकप्रिय स्थानीय क्रांतिकारी परिषदें चला रही हैं, लेकिन वास्तव में हर प्रमुख फैसला और लीबिया का धन गद्दाफी के के मजबूत कब्जे में ही रहा। बाद में कर्नल गद्दाफी ने चरमपंथी संगठनों को भी समर्थन देना शुरू कर दिया, जिसमें से कई तो बाद में उसके लिए ही घातक सिद्ध हुए। लीबिया वासियों के लिए 1980 का दशक काफी मुसीबतों भरा रहा। इस दौरान गद्दाफी ने अपने सामाजिक सिद्धांतों के कई प्रयोग किए।

 

अपनी सांस्कृतिक क्रांति के तहत गद्दाफी ने सभी निजी व्यवसाय बंद कर दिए और कई किताबों को जला दिया। विदेशों में रह रहे अपने विरोधियों की हत्याएं भी करवाईं। लीबिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाई। बर्लिन के एक नाइट क्लब पर 1986 में हमला किया गया, जहां अमेरिकी फौजी जाया करते थे और जिस पर हमले का आरोप गद्दाफी के सिर मढ़ा गया। घटना से नाराज तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने त्रिपोली और बेनगाजी पर हवाई हमलों का हुक्म दिया।

 

एक अन्य घटना जिसने दुनिया को हिला दिया था, वो था लॉकरबी शहर के पास पैनएम जहाज में बम विस्फोट। इस विस्फोट में 270 लोग मारे गए थे। कर्नल गद्दाफी ने हमले के दो संदिग्धों को स्कॉटलैंड के हवाले करने से मना कर दिया, जिसके बाद लीबिया के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए जो दोनों लोगों के आत्मसमर्पण के बाद 1999 में हटाया गया। गद्दाफी लगातार लीबिया पर एक ‘पुलिस राज्य’ की तर्ज पर मजबूत नियंत्रण बढ़ाते गए।

 

बाद में कर्नल गद्दाफी ने अपने परमाणु कार्यक्रम और रासायनिक हथियार कार्यक्रमों पर रोक लगाने की बात जब कही तो पश्चिमी देशों से गद्दाफी के संबंध सुधर गए। दिसंबर 2010 में जब टयूनीशिया से अरब जगत में बदलाव की क्रांति का शुभारंभ हुआ, तो उस संदर्भ में जिन देशों का नाम लिया गया, उसमें लीबिया को पहली पंक्ति में नहीं रखा गया था। क्योंकि कर्नल गद्दाफी को पश्चिमी देशों का पिट्ठू नहीं समझा जाता था। यह गद्दाफी के लिए क्षेत्र में जनता की नाराज़गी का सबसे बड़ा कारण माना गया। यहां गद्दाफी ने पेट्रो-बूम के जनक होने का फायदा उठाया और तेल से मिले धन को दिल खोलकर बांटा। वर्ष 2010 में 60  लाख लोगों वाले इस देश को तेल से 32 बिलियन अमरीकी डॉलर की कमाई हो रही थी। ये अलग बात है कि इस प्रक्रिया में गद्दाफी का परिवार भी बहुत अमीर हुआ था।

 

जहां तक चीन ने आखिरी समय तक गद्दाफी को मदद पहुंचाने के लिए बड़ी मात्रा में हथियारों की आपूर्ति करने के प्रस्ताव का सवाल है, उसके पीछे भी तेल का ही खेल था। चीन की सरकारी हथियार कंपनियों ने गद्दाफी को 20 करोड़ डॉलर मूल्य के हथियारों की आपूर्ति किए जाने का प्रस्ताव दिया था। कंपनियों ने गुप्त तरीके से पोत के जरिए अल्जीरिया और दक्षिण अफ्रीका तक हथियार पहुंचाने का वादा किया था।

First Published: Sunday, November 13, 2011, 00:48

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