Last Updated: Tuesday, November 29, 2011, 03:02
प्रवीण कुमारपाकिस्तान की सियासत आज की तारीख में अगर किसी एक शब्द से सबसे अधिक भय खा रहा है तो वह शब्द है ‘मेमोगेट।’ पाकिस्तान के मेमोगेट से अमेरिका के वाटरगेट कांड की यादें कौंध जाती हैं। सत्तर के दशक में वाटरगेट कांड ने अमेरिका में राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया था। जून 1972 में डेमोकेट्रिक नेशनल कमेटी के वाटरगेट काम्पलेक्स स्थित मुख्यालय में प्रवेश के दौरान पांच लोग गिरफ्तार किए गए थे। एफबीआई ने खुलासा किया था कि इन लोगों को वर्ष 1972 में राष्ट्रपति का चुनाव करने वाली समिति के कोष से भुगतान किया गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के स्टाफ के आला अफसरों का नाम मामले में सामने आया। जांच में पता चला कि निक्सन ने रिकॉर्डिंग सिस्टम के जरिए अपने ऑफिस में कई लोगों की बातचीत टेप की थी। इस विवाद में निक्सन को राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देना पड़ा था। कुछ ऐसा ही पाकिस्तान में इस समय घटित हो रहा है।
अमेरिका में पाकिस्तान के हाल तक राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने अपने मुल्क की फौज द्वारा नागरिक सरकार के तख्ता-पलट की आशंका को टालने के लिए अमेरिका से मदद की कथित गोपनीय गुहार लगाई थी। यह गुहार उस समय लगाई गई थी जब पाकिस्तान के ऐबटाबाद में घुसकर अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था। उस लिखित गुहार के लिए ही ‘मेमोगेट’ शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है और पाकिस्तान के हुक्मरान को शक की नजरों से देखा जा रहा है। भारत के लिए भी यह चिंता का विषय है। वह इसलिए कि भारत-पाकिस्तान एक बार फिर से आतंकवाद और कश्मीर को लेकर सार्थक बातचीत की ओर कदम बढ़ा रहे थे जिसकी बुनियाद दक्षेश सम्मेलन में रखी गई थी।
मेमोगेट विवाद को लेकर इस समय पाकिस्तान में हर शख्स अपने-अपने तरीके से नतीजे की ओर पहुंच रहा है। सभी चिल्ला रहे हैं कि मुल्क के साथ विश्वासघात हुआ है। ऐसे में, मियां नवाज शरीफ के सुझाव काबिले-तारीफ है। उन्होंने कहा है कि इस मामले की उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए। यह एक जायज तरीका होगा। गोपनीय ज्ञापन की हकीकत को टटोले बिना किसी शख्स पर अंगुली उठाना ठीक नहीं है। हुकूमत को चाहिए कि वह विपक्ष को भरोसे में लेकर निष्पक्ष जांच कराए। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान में वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारियों के अनुसार, उन्होंने मेमोगेट प्रकरण की जांच कर ली है। अधिकारियों को यक़ीन है कि ये मेमो राष्ट्रपति कार्यालय की ओर से था लेकिन ये साफ अभी नहीं है कि इसमें राष्ट्रपति जरदारी और राजदूत हक्कानी की कितनी भूमिका थी। अधिकारियों ने ये भी बताया कि हक्कानी ने सैनिक नेतृत्व के दबाव में इस्तीफा नहीं दिया। उनका कहना है कि इस्तीफ़ा पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के दबाव में दिया गया है क्योंकि वहां कुछ अधिकारी मानते थे कि हक्कानी उनकी अवहेलना करते थे।
मेमोगेट (गुप्त ज्ञापन) का विवाद उस वक्त तूल पकड़ा जब ब्रिटिश समाचार पत्र फाइनेंशियल टाइम्स ने पाकिस्तानी मूल के अमरीकी व्यापारी मंसूर ऐजाज का एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक्कानी द्वारा अमरीकी सरकार को एक ज्ञापन सौंपे जाने का जिक्र है, ताकि पाकिस्तान में सेना द्वारा संभावित तख्तापलट को रोका जा सके। हुसैन हक्कानी ने हालांकि ऐसा कोई ज्ञापन दिए जाने से इनकार कर दिया था, लेकिन अमरीकी सेनाओं के प्रमुख माइकल मलेन ने ज्ञापन मिलने की पुष्टि की, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इसे उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया। इस विवाद के गहराने के बाद हुसैन हक्कानी को इस्तीफा देना पड़ा। हुसैन हक्कानी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार माने जाते हैं।
इतिहास गवाह है कि किसी एक शख्स या पार्टी के खिलाफ आंख मूंदकर नफरत करने के कारण पाकिस्तान ने हमेशा घातक नुकसान उठाए हैं। इस ‘हल्ला बोल’ माहौल में कट्टरपंथी एक तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं। ‘मेमोगेट’ का मसला काफी हद तक अवाम-फौज संबंधों से जुड़ा है। अवाम और फौज के रिश्तों में विरोधाभास व असंतुलन का असर खास तौर पर नेताओं पर पड़ता है। यह एक ऐसी समस्या है, जो इस मुल्क में लगातार बनी हुई है और उसकी जद में तमाम सियासी पार्टियां हैं। फौज के कसते शिकंजे से पाकिस्तानी नेताओं के दम घुट रहे हैं। उन्हें इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। यह पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या है। आर्थिक संकट, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, जातीय संघर्ष, अंदरूनी और बाहरी दहशतगर्दी ये सभी इसी असंतुलन के नतीजे हैं।
पाकिस्तान के मौजू हालात पर गौर फरमाएं तो ये साफ है कि सरकार, सेना और आईएसआई के बीच आपसी सामंजस्य का भारी संकट है। सेना प्रमुख जनरल अशफाक कयानी उतने मजबूत नहीं हैं जितना आमतौर पर पाकिस्तानी सेना प्रमुख को माना जाता है। इसकी वजह भी है। सेना में एक धड़ा सरकार के पक्ष में है तो दूसरा धड़ा आईएसआई के पक्ष में बीन बजा रहा है। आतंकवाद के मुद्दे पर आईएसआई को सरकार की नीति रास नहीं आ रही है। सो आईएसआई सरकार विरोधी गतिविधियों में अपना ज्यादा वक्त जाया कर रहा है। तय मानिए कि कयानी की जगह सेना प्रमुख कोई जनरल परवेज मुशर्रफ जैसा होता तो आसिफ अली जरदारी के हाथ से सत्ता कबके छिन गई होती। हो न हो, मेमोगेट के पीछे आईएसआई का हाथ हो।
जहां से मैं देख रहा हूं, हालांकि इसके कोई साफ संकेत या प्रमाण नहीं हैं कि लंदन में निर्वासित जीवन जी रहे पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ और आईएसआई मिलकर पाकिस्तान में तख्तापलट की योजना को मूर्त रूप देने में लगे हों। अभी के हालात में अमेरिका को भी पाकिस्तानी हुक्मरान रास नहीं आ रहा सो बहुत हद तक इस बात की आशंका प्रबल है कि जनरल परवेज मुशर्रफ को अमेरिकी शह मिल रहा हो और पाकिस्तान में तख्तापलट के लिए जिस रिमोट को अमेरिका और आईएसआई ने मिलकर एसेंबल किया है उसको ऑपरेट करने की जिम्मेदारी मुशर्रफ को सौंपी गई हो। अतीत को याद करें तो आपको ध्यान होगा कि अमरीका ने जनरल मुशर्रफ़ के साथ गठबंधन कर आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग की शुरूआत की थी। इसलिए मेमोगेट प्रकरण में नवाज शरीफ की बातों को नजरंदाज करना जरदारी की सेहत के लिए ठीक नहीं होगा। पाकिस्तान सरकार इस मामले की निष्पक्ष जांच कराए और इस जांच के दायरे में परवेज मुशर्रफ और अमेरिका के बीच अगर कोई खिचड़ी पक रही है तो उन गतिविधियों को भी समेटने की कोशिश की जाए।
जहां तक कथित गुप्त ज्ञापन का सवाल है तो इससे कई सवाल उभरते हैं। मसलन 2 मई को ऐबटाबाद में अमरीकी सैनिकों की कार्रवाई में ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद पाकिस्तानी सेना की काफ़ी आलोचना हो रही थी। उसका मनोबल कम हो रहा था और उसके लिए अपना बचाव करना मुश्किल हो रहा था। क्या ऐसे में सेना सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का सोच सकती थी या कोई ऐसी योजना बना सकती थी? उन दिनों संसद और टीवी प्रोग्रामों में सबसे ज़्यादा सेना की आलोचना करने में मुस्लिम लीग नवाज़ के दोस्त आगे थे और पीपुल्स पार्टी वाले आईएसआई सहित सेना का हर मंच पर बचाव करते नजर आ रहे थे। ऐसे माहौल में सरकार को कैसे डर महसूस हो सकता था कि सेना तख़्ता पलट करने वाली है और उन्हें एडमिरल माइक मलेन से गुप्त रूप से मदद मांगनी चाहिए? अगर यह मान भी लें कि वह कथित संदेश अमरीकी सैन्य अधिकारी एडमिरल माइक मलेन को किसी आपात स्थिति में भेजा गया तो माइक मलेन के प्रवक्ता के मुताबिक़ उन्होंने उस संदिग्ध संदेश को महत्व क्यों नहीं दिया? चौथी बात ये कि अमरीका और पाकिस्तान के बीच ‘हॉट लाइन’ पर संपर्क बहाल है तो फिर मंसूर ऐजाज़ ख़ुद यह कथित संदेश सामने लाने पर मजबूर क्यों हुए? इसकी जानकारी एक विशेष मीडिया समूह के माध्यम से क्यों हुई? अगर यह सही है कि सेना सरकार का तख़्ता पलट करने वाली थी तो क्या उस बात की भी जांच होनी चाहिए कि ऐसा था भी या नहीं?
इसके अलावा मीडिया में मंसूर ऐजाज़ के जो बयान सामने आ रहे हैं उसमें भी काफ़ी विरोधाभास है। सबसे पहले उनका बयान आया कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के कहने पर हुसैन हक्कानी की मंजूरी से उन्होंने यह कथित संदेश माइक मलेन को भेजा। बाद में उनकी ओर से बयान आया कि कथित संदेश हुसैन हक्कानी ने नहीं लिखा था, बल्कि उनकी टेलीफोन पर हुई बातचीत के बाद उन्होंने खुद लिखा था। अब जो ताजा बयान सामने आ रहा है उसके मुताबिक मंसूर ऐजाज कहते हैं कि उस कथित संदेश के बारे में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को पता नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि मंसूर ऐजाज के किस बयान पर भरोसा किया जाए?
इसलिए बेहतर यही होगा कि पाकिस्तान की सरकार और विपक्ष संयुक्त रूप से यह तय करें कि इस मुद्दे की जांच किससे करानी चाहिए और असल तथ्यों तक कैसे पहुंचा जाए? इस बात की भी परख होनी जरूरी है कि मेमोगेट विवाद का लाभ लेने वाले कौन लोग हैं? पाकिस्तानी हुक्मरान के लिए यही एक समयोचित रास्ता है जो पाकिस्तान में अस्थिरता पैदा करने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा मेमोगेट विवाद की हकीकत को उजागर कर सकता है।
First Published: Tuesday, November 29, 2011, 08:35