Last Updated: Friday, October 5, 2012, 17:35
पुण्य प्रसून बाजपेयीक्या कांग्रेस की राजनीति बदल रही है? क्या कांग्रेस यह मान चुकी है कि पारंपरिक वोट बैंक अब उसके लिए नहीं है? क्या कांग्रेस राजनीतिक अर्थशास्त्र के दायरे में खुद को खड़ा कर एक नई राजनीति को गढ़ने में लग गई है? यानी कांग्रेस को खड़ा करने से लेकर सरकार चलाने तक में अब उस खांटी कांग्रेसी की जरूरत नहीं है जो जमीनी संघर्ष से निकले और कांग्रेस की परंपरा को कंधे पर उठा कर चले। ये सवाल इसलिए जरूरी हैं क्योंकि पहली बार कांग्रेसी परंपरा को कांग्रेसी सरकार के जरिए ही पलटी जा रही है। किसान, मजदूर, आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यकों का सवाल वोट बैंक के दायरे से निकल कर विकास के अनूठे मंत्र में समा रहा है, जहां राष्ट्रवाद पिछड़ रहा है और क्षेत्रीयता दकियानूस लग रही है। यह सवाल बीते दिनों का सच हो चला है कि कांग्रेस और सरकार की नीतियों में कोई मेल नहीं है। खांटी कांग्रेसी हाशिये पर हैं और जनता के बीच गए बगैर पिछले दरवाजे से घुसने वाले हुनरमंद कांग्रेसियों की ही चल निकली है।
कल तक हुनरमंद कांग्रेसियों की मदद खांटी कांग्रेसी लेते रहे और सरकार चलाते रहे। राजीव गांधी ने सूचना क्रांति के आधुनिक राजनीतिक जनक सैम पित्रोदा की मदद ली, तो सोनिया गांधी ने आधुनिक अर्थशास्त्र के राजनीतिक जनक मनमोहन सिंह को देश की बागडोर ही सौंप दी। हुनरमंदी के इस दौर में खांटी कांग्रेसियों को यह समझ में नहीं आया कि आने वाले वक्त में उनका राजनीतिक ज्ञान कहां टिकेगा। यह सवाल कांग्रेस के भीतर अचानक बड़ा होने लगा क्योंकि हुनरमंद कांग्रेसी राजनीति की लकीर भी खींचने लगे और सरकार चलाने से लेकर चुनावी राजनीति की परिभाषा भी बदलने लगे। सात महीने पहले यूपी चुनाव में कांग्रेस का चुनावी घोषणा पत्र जारी करते हुए लखनऊ में सैम पित्रोदा ने खुद के हुनरमंदी को वोट बैंक का तमगा देते हुए कहा कि वह बढ़ई के बेटे हैं। तो क्या 2014 में हुनरमंद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी बताएंगे कि वह किसके बेटे हैं। यह सवाल इसलिए क्योंकि भारत की विकास दर दुनिया में छाने और बाजार की चकाचौंध में दुनिया समाने के खेल के बावजूद न तो सामाजिक तौर पर और न ही राजनीतिक तौर पर देश की परंपरा, उसके सरोकार और सामाजिक ताना-बाना को बदला है। लेकिन राजनीति करने के तरीके और सरकार चलाने के तौर तरीको में न सिर्फ परिवर्तन आ रहा है बल्कि जिन हाथों में कमान है उनका समाज को देखने का नजरिया भी नई राजनीतिक जमीन बनाने पर आमादा है। शायद इसीलिए मनमोहन सिंह, पी. चिंदबरम, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और आनंद शर्मा सरीखे कांग्रेसियों का नाम हर जुबान पर आ जाता है। लेकिन पुराने खांटी कांग्रेसी माखनलाल फोतेदार से लेकर कमलनाथ और नटवर सिंह से लेकर गुलाम नबी आजाद तक का नाम जुबां पर आता नहीं।
इस कड़ी में दिग्विजय सिंह सरीखे कांग्रेसी नारदमुनि की भूमिका में आए लगने लगे हैं और इंदिरा के दौर की अंबिका सोनी एक चुकी हुई कांग्रेसी नेता लगने लगी हैं। जबकि इस कड़ी में बिना राजनीतिक जमीन के सलमान खुर्शीद जमीनी राजनेता लगने लगे हैं और मुकुल वासनिक से लेकर व्यालार रवि तक आधुनिक कांग्रेस के सिपहसालार बनने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखे। यानी झटके में खांटी कांग्रेसियों के चेहरे के बदले हुनरमंद आधुनिक कांग्रेसी चेहरे ही सबसे महत्वपूर्ण और कांग्रेस के खेवैया के तौर पर मान्यता पाने लगे। असल में मान्यता पाने से ज्यादा कांग्रेस की सत्ता में जगह बनाने की होड़ ने कांग्रेस के राजनीतिक तौर तरीकों को भी बदलना शुरू कर दिया, जिसका असर अब आर्थिक सुधार के पीछे खड़े होकर सरकार के सुर में कांग्रेसी सुर के मिलने से भी समझा जा सकता है और पारंपरिक वोट के आसरे कांग्रेस के खांटी नेताओं के हाशिए पर जाने से भी जाना जा सकता है।
उडीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से लेकर मध्यप्रदेश का एक बड़ा हिस्सा जो कभी कांग्रेस की सियासत का प्रतीक था, आज वहां कांग्रेस है ही नहीं। कहा जा सकता है कांग्रेस के वोट बैंक को क्षत्रपों ने हड़प लिया। लेकिन इसका राजनीतिक मिजाज यह भी है कि कांग्रेस की अपनी प्राथमिकता भी इस दौर में या तो बदलती चली गई या फिर कांग्रेस ने अपना विस्तार सामाजिक-आर्थिक तौर पर नहीं किया। विस्तार का सरल मतलब राजनीतिक संघर्ष है और व्यापक तौर पर इसका मतलब ट्रासंफॉरमेशन है। कांग्रेस की सत्ता में बदलाव तो आर्थिक लाभ को लेकर खूब आया लेकिन जमीनी तौर पर कांग्रेसी उसी जड़ में उम्मीदें बांधे रहे जो आजादी के बाद कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता दिलाई हुई थी। यह उम्मीद किसान, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक पर आश्रित खांटी कांग्रेसियों में टूटी क्योंकि कांग्रेस की हुनरमंद धारा ने खांटी कांग्रेसियों की जमीन पर खड़े वोट बैंक के लिए राजनीतिक पैकेज और पैकेज से पेट भरने वाले वोट बैंक की सामाजिक सरोकार की जमीन को राष्ट्रीय नीति से जोड़ दिया। यानी बजट से लेकर योजना आयोग की धारा ने वोट बैंक के उस मिथ को ही तोड़ दिया।
खांटी कांग्रेसियों को यह लगता कि कि राजनीति के जरिये पीढ़ियों तक कांग्रेस से वोटरों के मन को जोड़ा जा सकता है। इसी का नतीजा है कि देश के 225 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस का उम्मीदवार गिनती में नहीं आता है या कहें चुनाव लड़ता भी है तो उसका नंबर चौथा या पांचवा रहता है। बाकी 325 सीटों पर कांग्रेस की इतनी हैसियत नहीं कि 272 सीटें जीत ले। यानी चुनावी गणित के फेल होते मॉडल को तोड़ने की जरूरत कांग्रेस की भी है और हुनरमंद कांग्रेसियों के निर्णय ने इस मॉडल को तोड़ने की दिशा में कदम भी उठाए हैं। यानी पहली बार मनमोहन सरकार की नीतियों के खिलाफ न सिर्फ विपक्ष बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए गठबंधन का जो जोड़ कांग्रेस ने किया या सहयोगियों ने यह सोचकर किया कि वह उस कांग्रेस के साथ खड़े हैं, जिसने देश की आजादी के लिए संघर्ष किया। पहली बार इस विचारधारा के दामन पर भी दाग लगे। क्योंकि हुनरमंद कांग्रेसियों के आर्थिक सुधार की उड़ान ने सिर्फ कांग्रेसी धारा को ही नहीं उलटा बल्कि आने वाले वक्त में उन क्षत्रपों के सामने भी यह सवाल बड़ा हो गया कि चुनाव के बाद अगर वह भाजपा के साथ सांप्रदायिकता के सवाल पर साथ खड़े नहीं हो सकते तो कांग्रेस के साथ आर्थिक गुलामी के सवाल पर कैसे खड़े हो सकते हैं। जबकि उनका अपना वोट बैंक पहली बार सांप्रदायिकता के सवाल से कहीं ज्यादा आर्थिक गुलामी से प्रभावित हो रहा है और आने वाले वक्त में अपने वोटरों के सामने उन्हें जवाब देना है कि उनका रास्ता जाएगा किधर।
यह सवाल समाजवादियों के सामने भी है और वामपंथियो के सामने भी। लेकिन इस कड़ी में पहला सवाल खांटी कांग्रेसियों का है, जिनके सामने नई राजनीतिक विचारधारा हुनरमंद कांग्रेसियों के आर्थिक सुधार की है तो दूसरा सवाल उन युवा कांग्रेसियों का है, जो पिता की विरासत को लेकर संसद में पहुंचे। और अब विरासत को ढोते हुए कांग्रेस की धारा को बदलने के लिए उन्हे तैयार होना है। सचिन पायलट या जितेन्द्र प्रसाद सरीखे युवा कांग्रेसी किस रास्ते चले। और राहुल गांधी के कहने पर कांग्रेसी परंपरा को निभाने के लिए जो युवा कांग्रेस से जुड़े अगर उन्हें वर्धा के गांधी आश्रम से राजनीति का ककहरा पढ़ाया जा रहा है तो फिर वर्धा से निकलकर वह किसी कांग्रेस की पालकी उठाएंगे। इतना ही नहीं, राहुल गांधी ही जब कांग्रेस संगठन को किसी राजनीतिक मंडी की तरह खोलकर चंद चेहरों या खांटी कांग्रेसी परिवारों में सिमटे कांग्रेस को विस्तार देना चाहते हैं तो फिर आने वाले वक्त में कांग्रेस का रास्ता होगा क्या। क्योकि मौजूदा वक्त में कांग्रेस न तो नेहरू की लीक पर मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाने को तैयार है।
एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसे न तो इंदिरा गांधी की गरीबों से जुड़ी धारा में रूचि है और न ही राजीव गांधी के आधुनिक भारत के नजरिए से कुछ लेना-देना है। यानी न उद्योग न खेती अब कॉरपोरेट के बाजार में पूंजी के बुलबुले में विकास दर को मापने का वक्त है। यानी कांग्रेस में पी.वी. नरसिंह राव के दौर से उपजे हुनरमंद कांग्रेसियों की राजनीति जिसके बाद से कांग्रेस कभी अपने पैरों पर अपने बूते खड़ी हो नहीं पाई और सत्ता का मतलब सरकार के बिना बाजार पर कब्जा कर कॉरपोरेट के जरिये अपनी सत्ता बरकरार रखने का ढोल पीटना ही हो गया। यह सत्ता मंत्रिमंडल विस्तार में कांग्रेसियों को मिलने वाले मंत्रालयों से भी मापी जा सकती है। यह सत्ता संगठन को दुरुस्त करने के लिए खांटी कांग्रेसियों की उपयोगिता से भी मापी जा सकती है। यह सत्ता युवा कांग्रेसियों को मंत्रिमंडल में स्वतंत्र प्रभार से भी मापा जा सकता है। यह सत्ता 10 जनपथ की कोठरी में भी समाती है और यह सत्ता अल्पमत की सरकार को चलाने के हुनर के जरिये भी जानी जा सकती है। वहीं सरकार टिकाए रखना भी समाजवादियों की सत्ता का प्रतीक है। और वोट बैंक के आसरे दलितों के सवालों को देश से काटकर सरकार के साथ खड़े रहना भी बहुजन समाज की सत्ता है। तो क्या पहली बार हुनरमंद कांग्रेसियों ने चुनावी राजनीति की धारा और उससे मिलने वाली सत्ता के प्रतीकों को भी बदल दिया है।
गांधी परिवार की समझ कांग्रेस की जरूरत नहीं रही। लोहियावाद अब समाजवादियों की जरूरत नहीं रही। बहुजन समाज के लिए आंबेडकर और कांशीराम की राजनीतिक समझ बेमानी हो गई। बीजू पटनायक की थ्योरी नवीन पटनायक की जरूरत नहीं है और जेपी का संघर्ष लालू के लिए बेमतलब का है। भाजपा भी संघ के राजनीतिक स्वंयसेवक के तौर पर रहना नहीं चाहती और सड़क के आंदोलन भी राजनीति का वही ककहरा पढ़ना चाहते हैं जहां सत्ता उनकी सोच के अनुकूल चले। तो क्या राजनीति का यह दौर लोकतंत्र के पारंपरिक प्रयोगों को भी बदल रहा है और 2014 को लेकर चाहे खांटी कांग्रेसी या दूसरे दल पारंपरागत तरीके से शह और मात देने को तैयार हो रहे हैं। मगर हुनरमंद कांग्रेसी व्यवस्था अब चुनावी तरीकों को भी बदल रही है। यह सवाल इसलिए क्योंकि पहली बार वोट बैंक के लिए नहीं बल्कि समूचे देश के नाम पर बन रही नीतियों पर सवालिया निशान है। एक तरफ पारंपरिक राजनीति है तो दूसरी तरफ हुनरमंद कांग्रेसी सत्ता।
(लेखक ज़ी न्यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)
First Published: Friday, October 5, 2012, 17:35