Last Updated: Friday, March 1, 2013, 17:48
संजीव कुमार दुबेआस्था के महाकुंभ इलाहाबाद में रविवार को अचानक मातम पसर गया। भीड़ का सैलाब भगदड़ में तब्दील हो गया और 36 निर्दोष लोग अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठे। हादसा हो गया। अब जांच के आदेश भी दे दिए गए हैं। मुआवजे का मरहम भी लगाया गया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी वहीं कि हादसे पर सियासत, जांच और मुआवजे के ऐलान के बीच कोई यह बताएगा कि इसका जिम्मेदार कौन है?
महाकुंभ 12 साल में एक बार आता है। महाकुंभ के दौरान पांच शाही स्नान होते हैं। आम तौर पर देखा जाए तो आम दिनों में ही लाखों लोग स्नान करते हैं। 14 जनवरी को महाकुंभ 2013 की शुरुआत हुई और इसी दिन लगभग एक करोड़ लोगों ने आस्था की डुबकी लगाई। जब आम दिन में एक करोड़ लोग स्नान कर रहे हैं तो शाही स्नान में जाहिर सी बात है कि यह आंकड़ा कई करोड़ को पार करेगा। प्रशासन इसे भांपकर भी पर्याप्त इंतजाम कर पाने में नाकाम रहा।
इलाहाबाद स्टेशन पर भगदड़ इसलिए हुई, क्योंकि वहां बहुत अफरा-तफरी थी। इसका बेहतर तरीके से संभाला जा सकता था। यह हर धार्मिक आयोजन की कहानी बन गई है। कुंभ मेला अधिकारियों व स्थानीय अधिकारियों के पास भीड़ को संभालने की कोई योजना नहीं थी। सब कुछ राम भरोसे चल रहा था जो अचानक हादसे में तब्दील हो गया।
महाकुंभ से पहले इस बात की उम्मीद थी कि सरकार व अधिकारी इतने बड़े आयोजन का बेहतर ढंग से प्रबंधन करेंगे। इस बार इलाहाबाद में रिकॉर्डतोड़ भीड़ जुटी। इसके बाद भी अधिकारियों के पास भीड़ को प्रबंधित करने की कोई योजना नहीं थी और न ही उन्हें पता था कि वे ऐसी स्थितियों से कैसे निपटेंगे। अगर इसपर पहले से काम किया होता तो शायद ये नौबत आती ही नहीं।
ऐसे मौके पर प्रशासन की सबसे बड़ी चूक हुई कि यह मालूम होते हुए भी कि मौनी अमावस्या के दिन भारी भीड़ उमड़ेगी, प्रशासन ने इसे भांपकर भी उस मुताबिक इंतजाम कर पाने में नाकाम रहा। जब शाही स्नान होगा तो भीड़ भी करोड़ों की होगी। फिर चाहे मेला परिसर हो या ट्रेन प्लेटफॉर्म, हर जगह भीड़ का सैलाब उमड़ेगा। इसे सहीं ढंग से नियंत्रित और संचालित करने के लिए व्यवस्था को चौक चौबंद होना चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं था।
आरोपों के घेरे में रेलवे प्रशासन भी है और चश्मदीद यह बताते हैं कि जब प्लेटफॉर्म अचानक से बदले जाने की घोषणा हुई तो लोग दूसरे प्लेटफॉर्म पर भागने लगे। फिर जब लोग पुल पर चढ़े तो पुलिस ने बेवजह लाठीचार्ज कर दिया। अगर यह दो स्थितियां रहीं होंगी तो निश्चित तौर पर भीड़ (श्रद्धालुओं) के साथ लाठीचार्ज और प्लेटफॉर्म का अचानक बदला जाना सरासर गलत था। भीड़ के साथ ऐसी स्थिति होने पर भगदड़ मची जो एक दर्दनाक हादसे में तब्दील हो गया और कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।
इलाहाबाद में 10 से ज्यादा रेलवे प्लेटफॉर्म है। प्लेटफॉर्म का बदला जाना रेलवे की मजबूरी हो सकती है। लेकिन यह भी सच है कि अचानक हुए ऐसी घोषणाओं से अफरा-तफरी मचती है जो अक्सर हादसे में तब्दील हो जाती है। पुलिस को यह सोचना चाहिए कि श्रद्धालु प्लेटफॉर्म पर रैन बसेरा बनाने नहीं बल्कि अपनी गंतव्य ट्रेन पकड़ने आया है और ऐसी हालत में लाठीचार्ज करना समझ से परे और निंदनीय है। बात सिर्फ एक या दो लोगों की नहीं बल्कि उन लाखों लोगों की थी जो प्लेटफॉर्म पर अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहे थे।
सियासत के इस खींचतान के बीच उत्तर प्रदेश के नगर विकास मंत्री आजम खां ने हादसे की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए मेले के प्रभारी पद से इस्तीफा दे दिया । लेकिन इससे क्या हुआ और होगा। निर्दोष लोगों ने अकारण अपनी जान गंवा दी जिसकी जिम्मेदारी प्रशासन की बनती है। आजम खां का इस्तीफा क्या उन लोगों के आंसू पोछ पाएगा जिन्होंने अपने परिजनों को इस हादसे में खो दिया है। नैतिक जिम्मेदारी लेने की लीपापोती भारतीय राजनीति में अक्सर होती है लेकिन इससे दुखद हादसों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है। नेता ऐसा कर अपनी पीठ थपथपा लेते हैं लेकिन वह उन आंसुओं को नहीं देख पाते हैं जो अबतक नहीं रुके है।
हादसा हो गया और सियासत ना हो यह भला कैसे हो सकता है। सियासी पार्टियां अब आरोप लगा रही है कि यह हादसा केंद्र और राज्य की लापरवाही है। जांच कराने या फिर मुआवजा देने से इस प्रकार के दुखद हादसों का अंत कतई नहीं होगा। सबसे बड़ी और अहम बात यह भी है कि ऐसे दुखद हादसों पर सियासत से बचा जाना चाहिए। आरोप मढ़ने की बजाय जो घायल लोग अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं, उनकी मदद करना कहीं ज्यादा बेहतर है।
यह बात हमें गंभीरता से सोचने और समझने की जरूरत है कि क्या देश का कोई कोना ऐसा है जहां इतने बड़े धार्मिक समागम का आयोजन कर पाना मुमकिन है। तीन से चार करोड़ वह भी एक दिन में जहां लोग जुटते है वहां इतने लचर इंतजाम से आयोजन को सफल नहीं बनाया जा सकता है।
हिंदू धर्म और संस्कृति में श्रद्धा और आस्था को दरकिनार नहीं कि जा सकता। भारतीय संस्कृति में महाकुंभ का आयोजन और उस दौरान श्रद्धालुओं का स्नान हिंदू धर्म की शाश्वत परंपरा है। हम श्रद्धालुओं को यह तो कह नहीं सकते कि भीड़ बहुत है आप स्नान करने नहीं आएं लेकिन क्या करोड़ों की भीड़ के स्नान का पर्याप्त इंतजाम हम इमानदारी से कर पाएं। यह हादसा प्रबंधन और लापरवाही की पोल खोलता है और इसकी जिम्मेदार भी कोई नहीं लेगा, यह भी सच है।
हम कब इन हादसों से सबक लेंगे। इतना जरूर होना चाहिए कि अभी दो शाही स्नान और बचे हैं । कम-से-कम आनेवाले शाही स्नान के लिए इंतजाम इतना बेहतर हो कि श्रद्धालु आस्था के संगम में डुबकी लगाएं और सकुशल घर वापस आ जाए। आस्था पर हादसा का भारी होना यह बताता है कि हम मानवों ने अपनी मानवता को खुद सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। आस्था के संगम में क्रंदन ना हो , इसपर नए सिरे से सोचने,समझने और ठोस पहल करने की जरूरत है।
First Published: Monday, February 11, 2013, 16:28