मिड-डे मील नहीं, 'मौत' का भोजन

मिड-डे मील नहीं, 'मौत' का भोजन

मिड-डे मील नहीं, 'मौत' का भोजनसंजीव कुमार दुबे

बिहार के सारण जिले में मिड डे मील से हुई 23 बच्चों की मौत पर बिहार के सियासतदानों के चेहरे पर शिकन तक नहीं देखी। यह शर्मनाक है कि इस मुद्दे को गंभीरता से लेने की बजाय वह इसपर बेरुखी दिखा रहे हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं। इस घटना पर उनके दुखी होने की बात तो छोड़िए इसपर तो अब वहां राजनीति शुरू हो गई है। ऐसा लगता है कि बच्चों की मौत का मसला पीछे छूट गया और मौत पर सियासत का ताना-बाना बुना जाने लगा है। इन्हें बच्चों का वह दर्द नहीं सुनाई दे रहा है , जिस दर्द की वजह से 23 बच्चों के प्राण पखेरू हो गए हैं।

आपने शायद वो तस्वीरें देखी होगी जिसमें एक पिता अपने जिगर के टुकड़े को गोद में लेकर बुरी तरह रो रहा है । उसका बच्चा पेट की भूख मिटाने स्कूल गया था लेकिन भोजन उसके लिए यमराज बनकर आया। ये बच्चे दरअसल उस वर्ग के है जिनके परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटानी भी मुश्किल होती है। ये बच्चे गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे तभी ये स्कूल में रोजाना मिलने वाले मिड डे मिल से भूख मिटाते थे। लेकिन इन छात्र-छात्राओं को भला क्या मालूम था कि खाना इनके लिए मौत का कारण बन जाएगा। गोद में पिता के बच्चे का शव इस भयावह घटना की बारीकियों को बयां करने के लिए काफी है। रोते-बिलखते लोगों को देखकर भी अगर किसी का दिल नहीं पसीजा हो तो फिर उसके इंसान होने पर ही संदेह है। तभी अब लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर ये बच्चे भूखे रह जाते तो उनकी जिंदगी बच जाती।

शायद यही वजह भी रही कि बिहार की सत्ता से जुड़े नेता भला इस मुद्दे पर इतनी माथापच्ची क्यों करे। क्योंकि मरनेवाले बच्चे तो गरीब तबके के हैं। क्या फर्क पड़ता है। क्योंकि इन बच्चों के अभिभावक आर्थिक रूप से इतने मजबूत भी नहीं कि वह सरकार के नुमाइंदों को अदालत के कटघरे में घसीट सके। यह हमारे उस समाज की विडंबनाओं का सबसे गंदा स्वरुप है कि हम उस वर्ग की तरफ देखने से भी बचते हैं जो अपनी जिंदगी को बड़ी मुसीबतों में जीता है।

बजाय इस गंभीर मामले को जांच करने और उसकी तह तक पहुंचने के, दोष दूसरे के मत्थे थोपने की कवायद शुरू हो गई है। 23 बच्चों की मौत के लिए आलोचनाओं का सामना कर रही नीतीश सरकार ने गुरुवार को कहा कि उन्हें इसे लेकर केंद्र की ओर से कोई अलर्ट नहीं मिला था। जबकि केंद्र सरकार ने दावा किया था कि बिहार में मिड डे मील के खाने को लेकर आ रही शिकायतों के बाद केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को एक अलर्ट जारी किया था। जाहिर सी बात है कि ऐसी दलीलें सिर्फ खुद को बचाने और दूसरे के मत्थे दोष मढने की कवायद है। सियासतदानों को यह बात भी मालूम होगी कि अगर सिस्टम में दोष हो और लापरवाही रग-रग में समाया हो तो अलर्ट भी किसी काम नहीं आता है।


मिड डे मिल यानी मध्यान्ह भोजन (मिड डे मील) योजना भारत सरकार तथा राज्य सरकार द्वारा संचालित की जाती है, जो कि 15 अगस्त 1995 को लागू की गई थी, जिसमे कक्षा 1 से 5 तक के सरकारी, परिषदीय, राज्य सरकार द्वारा सहायता प्राप्त प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थियों को, जिनकी उपस्थिति 80 फीसदी है, उन्हे हर महीने 3 किलो गेहूं या चावल दिए जाने का प्रावधान था। लेकिन ऐसा लगता है कि यह स्कीम दिशाहीन हो गई है जिसमें सकारात्मक आयाम कम नजर आते हैं।

अब जरा केंद्र सरकार के दावों पर नजर डालिए। मिड डे मील की जो केंद्र सरकार की वेबसाइट है उसके मुताबिक देशभर में 1 लाख स्कूलों में इस योजना के जरिए 12 करोड़ बच्चों को लाभ मिलता है । यानी आप ये मानिए कि 12 करोड़ बच्चों के भूख मिटाने का आधार यही खाना है। सरकारी दावे के तहत इससे 24 लाख रसोइए को काम मिलता है। यानी इतने रसोइए को रोजगार मिला हुआ है 5 लाख 77 हजार किचन है जहां मिड डे मिल बनाया जाता है। इस योजना के तहत 50 ग्राम सब्जी, 20 ग्राम दाल और 100 ग्राम चावल प्रति छात्र/छात्राओं को दिया जाता है। सरकारी दावे के मुताबिक इस योजना पर पांच साल में 38343 करोड़ रुपये का खर्च आया। सोचने वाली बात है कि करीब सवा अरब की आबादी में अगर रोजाना 12 करोड़ गरीब बच्चे भूख मिटा पाते हैं तो इस देश में गरीबी दूर होते भी देर नहीं लगेगी। अगर ये आंकड़ा सच होता तो फिर देश में 80 फीसदी से ज्यादा लोग रोजाना 20 रुपया भी बतौर मजदूरी क्यों नहीं अर्जित कर पाते? सरकार की यह योजना शुरू से ही विवादों के घेरे में रही और इसपर हमेशा से सवाल उठते रहे। अक्सर ये योजना खराब क्वालिटी वाले खाने के लिए विवादों में घिरती रही है।

वर्ष 1995 में यह योजना देश के सभी जिलों में लागू कर दी गई। उस वक्त बच्चों को हर दिन 100 ग्राम अन्न मुफ्त दिया जाता था। 2004 में इस योजना में बदलाव किया गया और प्राइमरी क्लास यानि क्लास 1 से 5 तक के बच्चों बच्चों को पका हुआ खाना खिलाना शुरू किया गया। अक्टूबर 2007 में मिड डे मील योजना का दायरा और बढ़ाया गया। इसमें प्राइमरी ही नहीं बल्कि अपर प्राइमरी सरकारी स्कूलों को भी शामिल किया गया। यानि अब देश में मिड डे मील का फायदा कक्षा 1 से 8 तक के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिलता है। मकसद यही था कि खाने के बहाने बच्चे स्कूल आएंगे और पढ़ेंगे भी। लेकिन सही मायने में नतीजे कभी इतने अच्छे नहीं रहे जितना दावा किया जाता रहा। कागजी दावों और हकीकत की दुनिया में कभी कोई तालमेत नहीं होता, यह बात किसी से छिपी नहीं है।

2007 में मिड डे मिल के लिए बजट में 7324 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया था लेकिन 2013-14 में ये बढ़कर 13215 करोड़ रुपए कर दी गई । पैसे का इतना बड़ा खजाना खोलने के बावजूद मिड डे मिल योजना के तहत मिल रहे भोजन पर सवालिया निशान हमेशा से उठते रहे है। कभी गड़बड़ी पाए जाने पर जांच का ऐलान तो जरूर होता है। लेकिन उसके बाद सबकुछ ठंडे बस्ते में चला जाता है। ना किसी की जवाबदेही तय होती है और ना ही किसी को सजा होती है। ऐसे में उन लोगों की पौ-बारह होती है जो इस स्कीम की आड़ में करोड़ों के वारे-न्यारे करते हैं।

केंद्र सरकार कहती है वह इसके लिए किचन बनाती है जहां मिड डे मील का खाना बनाया जाता है लेकिन आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 22,102 सरकारी स्कूलों में रसोईघर नहीं हैं। राज्य में 7,235 स्कूलों में रसोईघर निर्माणाधीन हैं। ऐसे में जिन स्कूलों में रसोईघर नहीं हैं वहां खाना खुले में बनाया जाता है। ऐसे में कब उस खाने में सांप-बिच्छू या छिपकली चली जाए या फिर खाना जहरीला हो जाय, यह कहा नहीं जा सकता। यही वजह है कि हम अक्सर मिड डे मील में छिपकिली, सांप,बिच्छू,कंकड़, पत्थर मिलने की बात सामने आती है।

यह हमारे देश के सिस्टम का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि मसला कितना भी गंभीर क्यों ना हो हम जांच कमेटी बैठा देते हैं। जब तक जांच कमेटी की रिपोर्ट आती है तबतक उसी प्रकार का कोई दूसरा हादसा हो जाता है। या फिर जांच कमेटी की रिपोर्ट जब आती है तब सरकार एक्शन लेने की बात करती है। लेकिन जब उस एक्शन या ठोस पहल को अमलीजामा पहनाने की बात आती है तब तक वह सरकार सत्ता से बाहर हो जाती है। दूसरी सरकार जब आती है तो वह उस मुद्दे से पल्ला झाड़ते हुए कहती है कि यह तो पिछली सरकार का मामला था। वर्तमान में हमारे लोकतंत्राकि देश या फिर राज्य में यही होता आया है। हम दोष दूर करने की पहल नहीं करते लेकिन हां दोष मढ़ने के लिए हजारों बहाने ढूंढ लेते हैं। यानी लीपापोती, टोपी ट्रांस्फर का यह सिलसिला शायद कभी खत्म नहीं होनेवाला है। कुछ दिनों में लोग मिड-डे-मील से हुई दर्दनाक मौतों की दास्तान भूल जाएंगे लेकिन उन परिवारों का क्या जिनके घर का चिराग हमेशा के लिए बुझ गया है।

First Published: Friday, July 19, 2013, 14:01

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