मोहम्मद अफजल गुरु एक अबूझ पहेली, Mohammad Afjal Guru a mystic personality.

मोहम्मद अफजल गुरु एक अबूझ पहेली

मोहम्मद अफजल गुरु एक अबूझ पहेलीआलोक कुमार राव

मोहम्मद अफजल गुरु 13 दिसंबर 2001 को भारतीय लोकतंत्र के पवित्र मंदिर संसद पर हमले का मास्टरमाइंड था। 11 साल एक महीन 26 दिन बाद 9 फरवरी 2013 (शनिवार) की सुबह 8.00 बजे अफजल को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई। मुम्बई आतंकवादी हमले के दोषी पाकिस्तानी आतंकवादी आमिर अजमल कसाब की फांसी की तरह अफजल को भी बेहद गोपनीय तरीके से फांसी दी गई। नींद की खुमारी से जगते ही देशवासियों को एक सुखद अहसास देने वाली बड़ी खबर सुनने और देखने को मिली कि आतंक के गुरु अफजल का किस्सा खत्म हो गया है।

अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद यह बात सबके जेहन में उठ रही है कि बेहद शांत दिखने वाला, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला और फिर संसद हमले का मास्टरमाइंड बना अफजल गुरु आखिर कौन था? कहां से चला था वह और कहां पहुंच गया? किस अबूझ पहेली का नायक था मोहम्मद अफजल गुरु? उत्तर कश्मीर के सोपोर निवासी अफजल ट्रांसपोर्ट और लकड़ी का व्यवसाय करने वाले हबीबुल्ला गुरु का बेटा अफजल गुरु अपनी पिता की मौत के समय बहुत छोटा था। सोपोर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुआ अफजल बचपन से ही शेरो-शायरी और कला का दीवाना था।

कभी मेडिकल की अधूरी पढ़ाई और आईएएस की तैयारी कर चुका अफजल गुरु कब और कैसे आतंकवाद के रास्ते पर निकल लड़ा यकीनन तौर पर यह कहना बहुत मुश्किल है लेकिन इसने टीवी चैनलों पर जो इंटरव्यू दिए और उसके आतंकी रिकॉर्ड से पता चलता है कि जेकेएलएफ जैसे आतंकी संगठन से होते हुए अफजल जैश और लश्कर जैसे दहशतगर्द संगठनों के लिए काम करता था। बड़ा सवाल यह है कि आखिर अफजल की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसने आतंकवाद का रास्ता अख्तियार किया।

एक ऐसा शख्स जिसके ऊपर पिता के सपनों को पूरा करने (डॉक्टरी पेशा) का जुनून रहा हो, जो शख्स उर्दू शायर गालिब के मोहपाश में बंधा रहा हो, आतंक के फंदे में इस कदर फंस जाना जो मौत के फंदे तक पहुंचा दे, किसी बड़ी कहानी की ओर इंगित करता है।

क्षेत्रीय स्कूल से अफजल ने 1986 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। हायर सेकेंड्री के लिए जब गुरु ने सोपोर के मुस्लिम एजुकेशन ट्रस्ट में दाखिला लिया तो वहां उसकी मुलाकात नवीद हकीम से हुई जो शांतिपूर्ण भारत विरोधी गतिविधियों में सक्रिय था, लेकिन उस समय अफजल ने अपनी पढ़ाई को प्राथमिकता दी और 12वीं पास कर मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेकर पिता के ख्वाब को पूरा करने में जुट गया। जब कश्मीर में 1990 के आसपास हथियारबंद चरमपंथ का दौर शुरू हुआ तो अफजल एमबीबीएस के तीसरे साल में था और तब तक उसका दोस्त नवीद हकीम चरमपंथी बन चुका था।

इसी दौरान श्रीनगर के पास छानपुरा में सेना की कार्रवाई के दौरान कथित महिला उत्पीड़न को लेकर अफजल काफी दुखी हुआ था। अफजल को करीब से जानने वाले लोग बताते हैं कि इस घटना से अफजल के मन को गहरा आघात पहुंचा और उसने अपने साथियों के साथ हकीम से संपर्क स्थापित किया और फिर वह भारत विरोधी जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट में शामिल हो गया। अफजल ने पाकिस्तान जाकर हथियारों का प्रशिक्षण लिया और फिर जब लौटकर आया तो उसने सोपोर में करीब 300 कश्मीरी युवकों को भारत के खिलाफ तैयार भी किया।

इसके बाद अचानक वह दिल्ली क्यों आया था इसकी ठोस वजह किसी को पता नहीं। आशंका तो यही जताई जा रही है कि संसद पर हमले का मिशन लेकर वह दिल्ली आया था और मिशन का किसी को पता न चल पाए इसलिए अपने चचेरे भाई शौकत गुरु की मदद से दिल्ली विवि. में स्नातक में दाखिला ले लिया था। अपने खर्च निकालने के लिए अफजल दिल्ली में ट्यूशन भी पढ़ाने लगा और थोड़े समय के लिए बैंक ऑफ अमेरिका में नौकरी की।

वर्ष 2001 में जिस वक्त उसे संसद पर हमले के मामले में गिरफ्तार किया गया था, तब वह फल कारोबार में कमीशन एजेंट के तौर पर काम कर रहा था। अफजल की भूमिका में जल्दी-जल्दी बदलाव इस बात को ओर साफ इशारा करता है कि वह दिल्ली प्रवास के दौरान भी आतंकी गतिविधियों में संलग्न था। दिल्ली में करीब सात साल का समय गुजारने के बाद अफजल 1998 में कश्मीर लौटा और बारामूला की लड़की तबस्सुम से शादी की। कुछ समय बाद अफजल ने दिल्ली की एक दवा बनाने वाली कंपनी में एरिया मैनेजर की नौकरी भी की और साथ-साथ खुद भी दवाइयों का कारोबार करने लगा। कुछ समय बाद अफजल सोपोर को छोड़ श्रीनगर आ गया और यहां से उसका ज्यादातर समय दिल्ली और श्रीनगर में बीतने लगा।

निश्चित रूप से अफजल का श्रीनगर आना और दिल्ली-श्रीनगर के बीच आवाजाही कुछ और नहीं बल्कि आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम तक पहुंचाने कवायद का हिस्सा ही था। 13 दिसंबर 2001 को सुबह करीब 11.40 बजे पांच आतंकवादी गृह मंत्रालय की स्टीकर लगी एक अंबेसडर कार में सवार होकर संसद परिसर में दाखिल हुए। सुरक्षाकर्मियों के ललकारे जाने पर इन आतंकियों ने उन पर गोलीबारी की जिसमें नौ लोगों की मौत हुई। मुठभेड़ में सभी पांचों आतंकवादी भी ढेर हो गए। जांच शुरू हुई और दिल्ली पुलिस की विशेष इकाई ने तथ्यों और सबूतों के आधार पर चार शख्स मोहम्मद अफजल गुरु, शौकत हुसैन गुरु, अफसान गुरु और दिल्ली विवि. के लेक्चरर एस.ए.आर. गिलानी को गिरफ्तार किया।

सुनवाई के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के लेक्चरर गिलानी और शौकत हुसैन के साथ गुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी जबकि हुसैन की पत्नी अफसान को छोड़ दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने गिलानी को 2003 में बरी कर दिया जबकि गुरु और हुसैन की सजा बरकरार रखी। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में गुरु को सुनाई गई मौत की सजा बरकरार रखा और हुसैन को दस साल कैद की सजा सुनाई। जब यह तय हो गया कि अफजल गुरु को फांसी की सजा होगी तो गुरु की पत्नी तबस्सुम ने राष्ट्रपति के पास अफजल की फांसी के खिलाफ दया याचिका दायर की। इस बीच कई साल निकल गए और अफजल को लगने लगा कि उसकी दया याचिका मंजूर हो जाएगी। उसकी जान बच जाएगी।

इसी अहसास के बीच जब मुंबई हमले के दोषी आमिर अजमल कसाब को अचानक फांसी दे दी गई तो अफजल गुरु को भी फांसी के लिए जनमानस का सरकार पर दबाव बढ़ा। फिर क्या था, राष्ट्रपति ने अफजल की दया याचिका ठुकरा दी और 9 फरवरी को अफजल को फांसी के फंदे पर झुला दिया गया।

यह सही है कि अफजल को फांसी पर लटकाने में हुई देरी के पीछे राजनीति वजहें रहीं, लेकिन अब जबकि अफजल को फांसी दे दी गई तो इसको लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। केंद्र सरकार का देर से लिया गया एक सही फैसला है। लेकिन सवाल उठते हैं और उठने भी चाहिए इस बात को लेकर कि जब 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने निचले कोर्ट की फांसी की सजा को बरकरार रखा था तो फिर सरकार ने अफजल की तरफ से दया याचिका का इंतजार क्यों किया?

इससे भी बड़ा सवाल यह कि जो अफजल चला था डॉक्टर बनने वह संसद पर हमले का मास्टरमाइंड क्यों बन गया? क्या सरकार की जांच एजेंसी ने अफजल से पूछा था कि आतंक के रास्ते को उसने क्यों चुना, कौन सी ऐसी परिस्थितियां उसे इस रास्ते को चुनने के लिए मजबूर किया? अगर सरकारी जांच एजेंसी ने अफजल की ब्रेन मैपिंग की है और सरकार को लगता है कि उसे सार्वजिनक करना जनमानस के हित में है तो उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि फिर हमारे समाज में कोई दूसरा युवक अफजल गुरु न बनने पाए।










First Published: Monday, February 11, 2013, 13:34

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