यहां शिवलिंग नहीं, अंगूठे की पूजा होती है - Zee News हिंदी

यहां शिवलिंग नहीं, अंगूठे की पूजा होती है



संजीव कुमार दुबे

 

माउंट आबू राजस्थान का इकलौता हिल स्टेशन है, एकमात्र पहाड़ी नगरी है। यह सभी जानते हैं। लेकिन माउंटआबू का सदियों पहले से आध्यात्मिक महत्व रहा है जिसका जिक्र हमारे पुराण भी करते हैं।  पुराणों के मुताबिक यह नगरी अर्धकाशी कहलाती है क्योंकि यहां भगवान शंकर के 108 मंदिर है। स्कंद पुराण के मुताबिक वाराणसी शिव की नगरी है तो माउंट आबू भगवान शंकर की उपनगरी । ऐसी मान्यता है कि यहीं वह भूमि है जहां 33 करोड़ देवी-देवता निवास करते हैं।

 

 

माउंट आबू की दिलकश खूबसूरती यहां की फिजाओं में गूंजा करती है। खासकर तब जब आप यहां नक्की झील में बोटिंग कर रहे हो। माउंट आबू की यात्रा के दौरान मैने नक्की झील में वोटिंग का सुबह-सुबह ही लुत्फ लिया और अपनी यात्रा का पूरा एक दिन शिव मंदिरों के दर्शन के लिए रखा था। मैं यहां कई शिव मंदिरों में गया लेकिन अचलगढ़ की स्मृति अब भी मन के हर कोने में रची-बसी है जहां के अनुभवों को व्यक्त कर पाना मुश्किल है। अचलगढ़  शिव मंदिर माउन्ट आबू से लगभग 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में हैं  अचलगढ़  मंदिर एक बहुत ही सुन्दर और प्राचीन मंदिर हैं । मंदिर परिसर में मंदिर के आगे नंदी जी की बड़ी मूर्ति हैं जो पीतल की हैं । मंदिर के अंदर एक गहरा गड्डा बना हुआ है और पास में ही स्फटिक पत्थर की दो प्राचीन मूर्तिया भी है। मंदिर के पुजारी जी ने बताया की यह शिवलिंग कुदरती रूप से ऐसा ही हैं, और यहां शिवलिंग के गड्ढे में अन्दर भगवान शंकर के पैर के अंगूठे का निशान बना हुआ हैं। भगवान शिव के सभी मंदिरों में उनके शिवलिंग की पूजा होती है लेकिन यहां भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है। दुनिया में यही इकलौती जगह है जहां भगवान शंकर के शिवलिंग की नहीं बल्कि उनके अंगूठे की पूजा की जाती है।

 

 

आबू पर्वत का केंद्रबिंदु अचलेश्वर महादेव मंदिर माउंट आबू का सबसे प्रमुख, स्थापत्य कला से परिपूर्ण ऐतिहासिक मंदिर है। गर्भगृह में शिवलिंग पाताल खंड के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिसके ऊपर एक तरफ पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है, जिन्हें स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है।  यह देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा माना जाता है। पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर मंदिर में भगवान शिव के पैरों के निशान आज भी मौजूद हैं।

 

 

मंदिर परिसर के विशाल चौक में चंपा का विशाल पेड़ अपनी प्राचीनता को दर्शाता है। मंदिर की बायीं बाजू की तरफ दो कलात्मक खंभों का धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी शिल्पकला अद्भुत है और बस देखते ही बनती है। कहते हैं कि इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे। मंदिर परिसर में द्वारिकाधीश मंदिर भी बना हुआ है। गर्भगृह के बाहर वाराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी अवतारों की काले पत्थर की भव्य मूर्तियां स्थापित इस मंदिर के बारे में पौराणिक कथा ये है कि पौराणिक काल में जहां आज आबू पर्वत स्थित है, वहां नीचे विराट ब्रह्म खाई थी। इसके तट पर वशिष्ठ मुनि रहते थे।

 

 

उनकी गाय कामधेनु एक बार हरी घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई, तो उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती गंगा का आह्वान किया तो ब्रह्म खाई पानी से जमीन की सतह तक भर गई और कामधेनु गाय गोमुख पर बाहर जमीन पर आ गई। एक बार दोबारा ऐसा ही हुआ। इसे देखते हुए बार-बार के हादसे को टालने के लिए वशिष्ठ मुनि ने हिमालय जाकर उससे ब्रह्म खाई को पाटने का अनुरोध किया। हिमालय ने मुनि का अनुरोध स्वीकार कर अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्र्धन को जाने का आदेश दिया। अर्बुद नाग नंदी वद्र्धन को उड़ाकर ब्रह्म खाई के पास वशिष्ठ आश्रम लाया। आश्रम में नंदी वद्र्धन ने वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए एवं पहाड़ सबसे सुंदर व विभिन्न वनस्पतियों वाला होना चाहिए। वशिष्ठ ने वांछित वरदान दिए। उसी प्रकार अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो। इसके बाद से नंदी वद्र्धन आबू पर्वत के नाम से विख्यात हुआ। वरदान प्राप्त कर नंदी वद्र्धन खाई में उतरा तो धंसता ही चला गया, केवल नंदी वद्र्धन का नाक एवं ऊपर का हिस्सा जमीन से ऊपर रहा, जो आज आबू पर्वत है। इसके बाद भी वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर महादेव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे पसार कर इसे स्थिर किया यानी अचल कर दिया तभी यह अचलगढ़ कहलाया।

 

तभी से यहां अचलेश्वर महादेव के रूप में महादेव के अंगूठे की पूजा-अर्चना की जाती है। इस अंगूठे के नीचे बने प्राकृतिक पाताल खड्डे में कितना भी पानी डालने पर खाई पानी से नहीं भरती। इसमें चढ़ाया जानेवाला पानी कहा जाता है यह आज भी एक रहस्य है। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि  इसी अंगूठे ने पूरे माउन्ट आबू के पहाड़ को थाम रखा हैं और जिस दिन यह अंगूठे का निशान गायब हो जायेगा माउंट आबू पहाड़ खत्म हो जाएगा ।  अचलगढ़ में एक घंटे से ज्यादा वक्त बीत चुका था। शाम ढल चुकी थी। मेरे मित्र यह अनुरोध कर रहे थे कि सनसेट प्वाइंट पर सूर्यास्त देखना है।

 

लेकिन अचलगढ़ का अनुभव किसी आध्यात्मिक सूर्योदय की तरह था। मन वहां की आध्यात्मिक फिजाओं में रम रहा था। शंखनाद और मंदिर में बज रही घंटियां ढल रहे सूरज के बीच साकारात्मक सुबह का प्रतीक बनकर उभर रही थी। यकीनन शिव की इस उपनगरी में आकर आध्यात्मिक भूख जाग उठी थी।  मैं सूर्यास्त के बाद भी वहां दो घंटे तक रहा। भगवान शंकर के इस मंदिर में शिव की अनुभूति अचल  होकर अब भी स्थित है। भोले यहां अंगूठे के रुप में विराजते है। जीवन में अचलगढ़ अचल और स्थिर होने की सीख देता है। यह स्थिरता, यह अचलता जीवन के बाधाओं को पार करने के लिए जरुरी है।

First Published: Monday, February 20, 2012, 09:17

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